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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्नुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्सानोः॒ सानु॒मारु॑ह॒द्भूर्यस्प॑ष्ट॒ कर्त्व॑म्। तदिन्द्रो॒ अर्थं॑ चेतति यू॒थेन॑ वृ॒ष्णिरे॑जति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । सानोः॑ । सानु॑म् । आ । अरु॑हत् । भूरि॑ । अस्प॑ष्ट । कर्त्व॑म् । तत् । इन्द्रः॑ । अर्थ॑म् । चे॒त॒ति॒ । यू॒थेन॑ । वृ॒ष्णिः । ए॒ज॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्सानोः सानुमारुहद्भूर्यस्पष्ट कर्त्वम्। तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। सानोः। सानुम्। आ। अरुहत्। भूरि। अस्पष्ट। कर्त्वम्। तत्। इन्द्रः। अर्थम्। चेतति। यूथेन। वृष्णिः। एजति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कथं वेदितव्य इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    यूथेन वायुगणेन सह वृष्णिः सूर्य्यकिरणसमूहः सानोः सानुं भूर्यारुहत् स्पशते राजति चलति चालयति वा, यो मनुष्यो यत्सानोः सानुं कर्मणः कर्मत्वं भूर्यारुहत्, अस्पष्टैजति तस्मै इन्द्रः परमात्मा तत्तस्मात् सानोः सानुमर्थं भूरि चेतति ज्ञापयति॥२॥

    पदार्थः

    (यत्) यस्मात् (सानोः) पर्वतस्य शिखरात् संविभागात्कर्मणः सिद्धेर्वा। दृसनिजनि० (उणा०१.३) अनेन सनेर्ञुण्प्रत्ययः। अथवा ‘षोऽन्तकर्मणि’ इत्यस्माद् बाहुलकान्नुः। (सानुम्) यथोक्तं त्रिविधमर्थम् (आ) धात्वर्थे (अरुहत्) रोहति। अत्र लडर्थे लङ्। विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शः। (भूरि) बहु। भूरीति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) अदिसदिभू० (उणा०४.६६) अनेन भूधातोः क्तिन् प्रत्ययः। (अस्पष्ट) स्पशते। अत्र लडर्थे लङ्, बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (कर्त्त्वम्) कर्त्तुं योग्यं कार्य्यम्। अत्र करोतेस्त्वन् प्रत्ययः। (तत्) तस्मात् (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वरः (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा। उषिकुषिगार्त्तिभ्यः स्थन्। (उणा०२.४) अनेनार्त्तेः स्थन् प्रत्ययः। (चेतति) संज्ञापयति प्रकाशयति वा। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (यूथेन) सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह। तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। (उणा०२.१२) अनेन यूथशब्दो निपातितः। (वृष्णिः) वर्षति सुखानि वर्षयति वा। सृवृषिभ्यां कित्। (उणा०४.५१) अनेन वृषधातोर्निः प्रत्ययः स च कित्। (एजति) कम्पते॥२॥

    भावार्थः

    इवशब्दानुवृत्त्याऽत्राप्युपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः सम्मुखस्थान् वायुना सह पुनः पुनः क्रमेणात्यन्तमाक्रम्याकर्ष्य प्रकाश्य भ्रामयति, तथैव यो मनुष्यो विद्यया कर्त्तव्यानि बहूनि कर्माणि निरन्तरं सम्पादयितुं प्रवर्त्तते, स एव साधनसमूहेन सर्वाणि कार्य्याणि साधितुं शक्नोति। अस्यामीश्वरसृष्टावेवंभूतो मनुष्यः सुखानि प्राप्नोति। ईश्वरोऽपि तमेवानुगृह्णति॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी ईश्वर को कैसे जानें, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    जैसे (यूथेन) वायुगण अथवा सुख के साधन हेतु पदार्थों के साथ (वृष्णिः) वर्षा करनेवाला सूर्य्य अपने किरणसमूह से प्रकाश करके (सानोः) पर्वत के एक शिखर से (सानुम्) दूसरे शिखर को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) प्राप्त होता (अस्पष्ट) स्पर्श करता (एजति) क्रम से अपनी कक्षा में घूमता और घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य क्रम से एक कर्म को सिद्ध करके दूसरे को (कर्त्त्वम्) करने को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) आरम्भ तथा (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ (एजति) प्राप्त होता है, उस पुरुष के लिये (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वर उन कर्मों के करने को (सानोः) अनुक्रम से (अर्थम्) प्रयोजन के विभाग के साथ (भूरि) अच्छी प्रकार (चेतति) प्रकाश करता है॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में भी इव शब्द की अनुवृत्ति से उपमालङ्कार समझना चाहिये। जैसे सूर्य्य अपने सम्मुख के पदार्थों को वायु के साथ वारंवार क्रम से अच्छी प्रकार आक्रमण, आकर्षण और प्रकाश करके सब पृथिव्यादि लोकों को घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य विद्या से करने योग्य अनेक कर्मों को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होता है, वही अनेक क्रियाओं से सब कार्य्यों के करने को समर्थ हो सकता तथा ईश्वर की सृष्टि में अनेक सुखों को प्राप्त होता, और उसी मनुष्य को ईश्वर भी अपनी कृपादृष्टि से देखता है, आलसी को नहीं॥२॥

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    विषय

    विषय(भाषा)- फिर भी ईश्वर को कैसे जानें, सो इस मन्त्र में प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यूथेन (वायुगणेन सह) वृष्णिः (सूर्य्यकिरणसमूहः) सानोः सानुम् भूरि आ रुहत् स्पशते राजति चलति चालयति वा, यः मनुष्यः यत् सानोः सानुं  कर्मणः कर्मत्वं भूरि आरुहत् अस्पष्ट एजति तस्मै इन्द्रः (परमात्मा) तत्त् (तस्मात्) सानोः सानुम् अर्थं भूरि चेतति ज्ञापयति॥२॥

    पदार्थ

    {यूथेन-(वायुगणेन सह)} सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह= वायुगण अथवा सुख के साधन हेतु पदार्थों के साथ, {वृष्णिः-(सूर्य्यकिरणसमूहः)} वर्षति सुखानि वर्षयति वा=वर्षा करनेवाला सूर्य्य अपने किरणसमूह से प्रकाश करके, (सानोः) पर्वतस्य शिखरात्=पर्वत के एक शिखर से,  (सानुम्) यथोक्तं त्रिविधमर्थम्=पर्वत के एक शिखर को, (भूरि) बहु=बहुधा,  (आरुहत्)=प्राप्त होता, (राजति) प्रकाशयति=प्रकाशित करता है, (चलति चालयति)=कम्पन करता है, (यः)=जो, (मनुष्यः)=मनुष्य, (यत्)=जो, (सानोः) पर्वतस्य शिखरात्=पर्वत के एक शिखर से,  (सानुम्) यथोक्तं त्रिविधमर्थम्कर्मण=पर्वत के एक शिखर को, (कर्मत्वम्)=कर्म के लिए, (भूरि) बहु=बहुधा, (आरुहत्)=प्राप्त होता है, (एजति) कम्पते=कम्पन करता है, (तस्मै)=उसके लिए, इन्द्रः (परमात्मा) तत्त् (तस्मात्)=उससे, (सानोः) पर्वतस्य शिखरात्=पर्वत के एक शिखर से,  (सानुम्) यथोक्तं त्रिविधमर्थम्=पर्वत के एक शिखर को, (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा=प्रयोजन के लिए, (भूरि) बहृ=बहुधा, (चेतति-ज्ञापयति) संज्ञापयति प्रकाशयति वा=प्रकाशित करता है॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में भी “इव” शब्द की अनुवृत्ति से उपमालङ्कार समझना चाहिये। जैसे सूर्य्य अपने सम्मुख के पदार्थों को वायु के साथ वारंवार क्रम से अच्छी प्रकार आक्रमण, आकर्षण और प्रकाश करके सब पृथिव्यादि लोकों को घुमाता है। वैसे ही जो मनुष्य विद्या से करने योग्य अनेक कर्मों को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होता है। वही अनेक क्रियाओं से सब कार्य्यों के करने को समर्थ हो सकता है तथा ईश्वर की सृष्टि में अनेक सुखों को प्राप्त होता है; और उसी मनुष्य को ईश्वर भी अपनी कृपादृष्टि से देखता है, आलसी को नहीं॥२॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)-  {यूथेन-(वायुगणेन सह)} वायु गण अथवा सुख के साधन हेतु पदार्थों के साथ {वृष्णिः-(सूर्य्यकिरणसमूहः)}  वर्षा करनेवाला सूर्य्य अपने किरणसमूह से प्रकाश करके, (सानोः) पर्वत के एक शिखर से  (सानुम्) दूसरे पर्वत के एक शिखर को (भूरि) बहुधा  (आरुहत्) प्राप्त होता हुआ (राजति) प्रकाशित करता है और (चलति-चालयति) घूमता है। (यः) जो (मनुष्यः) मनुष्य, (यत्) जिस (सानोः) पर्वत के एक शिखर से  (सानुम्) दूसरे पर्वत के एक शिखर को (कर्मत्वम्) कर्म के लिए (भूरि) बहुधा (आरुहत्) प्राप्त होता हुआ (एजति) गति करता है, (तस्मै) उसके लिए (इन्द्रः) परमात्मा (तस्मात्) उस (सानोः) पर्वत के एक शिखर से  (सानुम्) दूसरे पर्वत के एक शिखर को (अर्थम्) उस प्रयोजन के लिए (भूरि) बहुधा (चेतति) प्रकाशित करता है॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यत्) यस्मात् (सानोः) पर्वतस्य शिखरात् संविभागात्कर्मणः सिद्धेर्वा। दृसनिजनि० (उणा०१.३) अनेन सनेर्ञुण्प्रत्ययः। अथवा 'षोऽन्तकर्मणि' इत्यस्माद् बाहुलकान्नुः। (सानुम्) यथोक्तं त्रिविधमर्थम् (आ) धात्वर्थे (अरुहत्) रोहति। अत्र लडर्थे लङ्। विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शः। (भूरि) बहु। भूरीति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) अदिसदिभू० (उणा०४.६६) अनेन भूधातोः क्तिन् प्रत्ययः। (अस्पष्ट) स्पशते। अत्र लडर्थे लङ्, बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (कर्त्त्वम्) कर्त्तुं योग्यं कार्य्यम्। अत्र करोतेस्त्वन् प्रत्ययः। (तत्) तस्मात् (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वरः (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा। उषिकुषिगार्त्तिभ्यः स्थन्। (उणा०२.४) अनेनार्त्तेः स्थन् प्रत्ययः। (चेतति) संज्ञापयति प्रकाशयति वा। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (यूथेन) सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह। तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। (उणा०२.१२) अनेन यूथशब्दो निपातितः। (वृष्णिः) वर्षति सुखानि वर्षयति वा। सृवृषिभ्यां कित्। (उणा०४.५१) अनेन वृषधातोर्निः प्रत्ययः स च कित्। (एजति) कम्पते॥२॥
    विषयः- पुनः स कथं वेदितव्य इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- यूथेन वायुगणेन सह वृष्णिः सूर्य्यकिरणसमूहः सानोः सानुं भूर्यारुहत् स्पशते राजति चलति चालयति वा, यो मनुष्यो यत्सानोः सानुं कर्मणः कर्मत्वं भूर्यारुहत्, अस्पष्टैजति तस्मै इन्द्रः परमात्मा तत्तस्मात् सानोः सानुमर्थं भूरि चेतति ज्ञापयति॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- इवशब्दानुवृत्त्याऽत्राप्युपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः सम्मुखस्थान् वायुना सह पुनः पुनः क्रमेणात्यन्तमाक्रम्याकर्ष्य प्रकाश्य भ्रामयति, तथैव यो मनुष्यो विद्यया कर्त्तव्यानि बहूनि कर्माणि निरन्तरं सम्पादयितुं प्रवर्त्तते, स एव साधनसमूहेन सर्वाणि कार्य्याणि साधितुं शक्नोति। अस्यामीश्वरसृष्टावेवंभूतो मनुष्यः सुखानि प्राप्नोति। ईश्वरोऽपि तमेवानुगृह्णति॥२॥

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    विषय

    पर्वत - शिखर से पर्वत - शिखर पर

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु को जीवन का लक्ष्य बनाकर जब हम जीवन - यात्रा में चलेंगे तब 'मार्ग में विघ्न न आएँगे'  , ऐसी तो कल्पना ही न करनी चाहिए । "श्रेयांसि बहु विघ्नानि" - विघ्न कल्याणों में ही हुआ करते हैं - 'दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति' धर्म का मार्ग दुर्गम तो है ही । परन्तु प्रभु को लक्ष्य बनाकर (यत्) - जब यह 'मधुच्छन्दा' आगे बढ़ता है तब (सानोः) - एक पर्वतशिखर से (सानुम्) - दूसरे पर्वत शिखर पर (आरुहत्) - आरूढ़ होता है  , अर्थात् एक के बाद दूसरी बाधा को जीतकर आगे बढ़ता चलता है तथा (भूरि) - खूब ही (कर्वम्) - अपने कर्तव्यों को (अस्पष्ट) स्पृष्ट करता है  , अर्थात् प्रारम्भ करता है  , संक्षेप में जब यह विघ्नबाधाओं से न घबराकर उनको जीतता हुआ आगे बढ़ता चलता है 

    २. (तद्) - [तदा] तब यह (इन्द्रः) - जितेन्द्रिय पुरुष विघ्नबाधाओं से न घबरानेवाला पुरुष (अर्थम्) - अपने पुरुषार्थ को  , लक्ष्य को (चेतति) - जान पाता है  , अर्थात् लक्ष्य तक पहुँच जाता है  , मोक्षरूप परम पुरुषार्थ को यह प्राप्त कर पाता है । नियम यही तो है कि 'यो यदर्थं कामयते घटतेऽपि च । अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते' जो जिस अर्थ की कामना करता है  , जिसके लिए पुरुषार्थ भी करता है  , उसे वह अवश्य पाता है  , यदि ऊबकर रुक नहीं जाता । 

    ३. यह परम पुरुषार्थ का साधक पुरुष (वृष्णिः) - शक्तिशाली व सबपर सुखों की वर्षा करनेवाला बनकर (यूथेन) - प्राणगणों के साथ - मरुत् रूप अपने सैनिकों के साथ (एजति) - शत्रुओं को कम्पित करके दूर भगा देता है । प्राणसाधना के द्वारा काम - क्रोधादि शत्रुओं के आक्रमण की आशंका जाती रहती है और इस प्रकार निर्विघ्नता से मनुष्य लक्ष्य - स्थान पर पहुँच जाता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - '  ,विघ्नों को दूर कर आगे बढ़ते चलना तथा कर्तव्यों को करना' यही पुरुषार्थ प्राप्ति का मार्ग है । यह साधक प्राणसाधना से कामादि शत्रुओं को कम्पित कर दूर कर देता है । 

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    विषय

    सर्वद्रष्टा, सुख वर्षक, सर्वज्ञ ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जिस प्रकार मनुष्य जब ( सानोः ) एक पर्वत शिखर से ( सानुम् ) दूसरे पर्वत शिखर पर ( आरुहत् ) चढ़ता है तब वह और ( भूरि ) बहुत से कर्तव्य करने योग्य कार्यों को और जाने योग्य स्थानों को दूर दूर तक ( अस्पष्ट ) देख सकता है । ( तत् ) उसी प्रकार ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर भी ( अर्थम् ) प्राप्त होने योग्य समस्त पदार्थों को ( चेतति ) सर्वोपरि होने से जानता है । ( वृष्णिः ) वर्षण करने वाला मेघ जिस प्रकार ( यूथेन ) वायुगण से भी प्रेरित होकर आगे बढ़ता है उसी प्रकार वह परमेश्वर भी समस्त काम्य सुखों का वर्णन करनेहारा होकर ( यूथेन ) सुख प्रदान करने वाले समस्त साधनों से ( राजति ) संसार को चलाता है । सूर्य के पक्ष में —जब सूर्य पर्वत से पर्वतान्तर के शिखर पर चढ़ता है तो ही वह बहुत से कार्यों को प्रकाशित करता है और वही ( वृष्णिः ) वर्षणशील मेघ होकर वायुगणों सहित आकाश में गति करता है । अथवा ‘वृष्णिः’ संवत्सर होकर ऋतुगण सहित गति करता है । राजा के पक्ष में—पर्वतों पर पद से पदान्तर पर चढ़कर वह बहुत से विजेतव्य देशों को देखता है । कर्त्तव्य कर्म पर विचार करता है । और बलवान् शस्त्रवर्षी होकर सेनायूथसहित प्रयाण करता है। अध्यात्म में—कुण्डलिनी प्रबोध के अवसर पर मेरु दण्ड में एक पोरु से दूसरे पोरु को चढ़ता हुआ अथवा एक मानस भूमि से दूसरी भूमि को पहुंचते हुए बहुत से लोकोत्तर कर्मों का साक्षात् करता है और तब प्राप्य अर्थ, परमपद को जानता है और धर्मभेध में सुखवर्षी मेघ के समान आनन्दघन होकर प्राणगण सहित उत्क्रमण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । १—३, ५, ६, ७, ९-१२ अनुष्टुभः ॥ भुरिगुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रातही ‘इव’ शब्दाच्या अनुवृत्तीने उपमालंकार समजला पाहिजे. जसा सूर्य आपल्यासमोर असलेल्या पदार्थांना वायूच्या संगतीने चांगल्या प्रकारे आक्रमण, आकर्षण व प्रकाश यांच्याद्वारे पृथ्वीगोलाला फिरवितो, तसेच जो माणूस विद्यायुक्त बनून अनेक कर्म करण्यास प्रवृत्त होतो, तोच अनेक साधनांनी सर्व कार्य करण्यास समर्थ होऊ शकतो व ईश्वराच्या सृष्टीत अनेक प्रकारचे सुख प्राप्त करू शकतो व त्याच माणसावर ईश्वरही आपली कृपादृष्टी वळवितो, आळशी व्यक्तीवर नाही. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    As the sun-beams radiate with waves of energy from one peak to another of a mountain illuminating each in succession, similarly when a person rises from one peak of action to another, accomplishing one after another as holy duty, then Indra, lord of light, illuminates one meaning of life and mystery after another for him.

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    Subject of the mantra

    Even then, how should we know God, this has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    {yūthena-(vāyugaṇena saha)}=with groups of air segments and substances as means of comfort, {vṛṣṇiḥ-(sūryyakiraṇasamūhaḥ)}=the sun illuminating with its bunch of rays making it rain, (sānoḥ)=from a hilltop, (sānum)=to other hilltop, (karmatvam)=for action, (bhūri)= in many ways, (calati-cālayati)= revolves around, (yaḥ)=which, (manuṣyaḥ)=person, (yat)=from which, (āruhat)=arrives and, (ejati)=makes movement, (tasmai)=for him, (indraḥ)=God, (tasmāt)=from that, (artham)=for that purpose, (cetati)=illuminates.

    English Translation (K.K.V.)

    With groups of air segments and substances as means of comfort, the Sun illuminating with bunch of its rays making it rain repeatedly, arrives from a hilltop to other hilltop for action and revolves around. That person who arrives to another hilltop from a hilltop, for that purpose, God illuminates in many ways. For that, God often illuminates one peak of another mountain from one peak of that mountain, for that purpose.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra also, by following the word "Iva" one should understand simile as a figurative. Just as the Sun, by attacking and lighting the objects in front of it with air in a frequent sequences, rotates all the earthly planets, in the same way, a person who is inclined to accomplish many deeds, worth doing by learning, he can be capable of doing all the tasks by many actions and gets many pleasures in the creation of God; and the same man is also seen by the God with his grace, not the lazy one.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra (God) to be known is taught in the next Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the rays of the sun along with the airs go from one peak to another, so also the man who goes from one action to another and who touches things and moves them, God gives him power to know more and more along with all objects that give happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सानो:) पर्वतस्य शिखरात संविभागात् कर्मणः सिद्धेः (वृष्णि:) वर्षति सुखानि वर्षयति वा (अर्थम् ) अर्तु ज्ञातुं प्राप्तुं योग्यं गुणं द्रव्यं वा ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankar or simile used is the Mantra. As the sun moves the earth and other world, which are in front along with the airs, draws them and gives them light, so a man who with the help of the knowledge is able to do many deeds continuously, is able to accomplish works with the group of means. It is such a man that can attain happiness in this world made by God. God also shows kindness to him.

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