ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
ऋषिः - जेता माधुच्छ्न्दसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
पू॒र्वीरिन्द्र॑स्य रा॒तयो॒ न वि द॑स्यन्त्यू॒तयः॑। यदी॒ वाज॑स्य॒ गोम॑तः स्तो॒तृभ्यो॒ मंह॑ते म॒घम्॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्वीः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ । न । वि । द॒स्य॒न्ति॒ । ऊ॒तयः॑ । यदि॑ । वाज॑स्य । गोऽम॑तः । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । मंह॑ते । म॒घम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्यन्त्यूतयः। यदी वाजस्य गोमतः स्तोतृभ्यो मंहते मघम्॥
स्वर रहित पद पाठपूर्वीः। इन्द्रस्य। रातयः। न। वि। दस्यन्ति। ऊतयः। यदि। वाजस्य। गोऽमतः। स्तोतृऽभ्यः। मंहते। मघम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तावेवोपदिश्येते।
अन्वयः
यदीन्द्रः स्तोतृभ्यो वाजस्य गोमतो मघं मंहते तर्ह्यस्यैताः पूर्व्यो रातय ऊतयो न विदस्यन्ति नैवोपक्षयन्ति॥३॥
पदार्थः
(पूर्वीः) पूर्व्यः सनातन्यः। सुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णादेशः। (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य सभासेनाध्यक्षस्य वा (रातयः) दानानि (न) निषेधार्थे (वि) क्रियायोगे (दस्यन्ति) उपक्षयन्ति (ऊतयः) रक्षणानि (यदि) आकाङ्क्षार्थे (वाजस्य) वजन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तस्य (गोमतः) प्रशस्ताः पृथिवी गावः पशवो वागादीनीन्द्रियाणि च विद्यन्ते यस्मिन् तस्य (स्तोतृभ्यः) स्तुवन्ति जगदीश्वरं सृष्टिगुणाँश्च ये तेभ्यो धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यः (मंहते) ददाति। मंहत इति दानकर्मसु पठितम्। (निघं०३.२०) (मघम्) प्रकृष्टं विद्यासुवर्णादिधनम्॥३॥
भावार्थः
अत्रापि श्लेषालङ्कारः। यथेश्वरस्य जगति दानरक्षणानि नित्यानि न्याययुक्तानि कर्माणि सन्ति, तथैव मनुष्यैरपि प्रजायां विद्याऽभयदानानि नित्यं कार्य्याणि। यदीश्वरो न स्यात्तर्हीदं जगत्कथमुत्पद्येत, यदीश्वरः सर्वमुत्पाद्य न दद्यात्तर्हि मनुष्याः कथं जीवेयुस्तस्मात् सकलकार्य्योत्पादकः सर्वसुखदातेश्वरोऽस्ति, नेतर इति मन्तव्यम्॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी अगले मन्त्र में इन्हीं दोनों का उपदेश किया है-
पदार्थ
(यदि) जो परमेश्वर वा सभा और सेना का स्वामी (स्तोतृभ्यः) जो जगदीश्वर वा सृष्टि के गुणों की स्तुति करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् मनुष्य हैं, उनके लिये (वाजस्य) जिसमें सब सुख प्राप्त होते हैं, उस व्यवहार, तथा (गोमतः) जिसमें उत्तम पृथिवी, गौ आदि पशु और वाणी आदि इन्द्रियाँ वर्त्तमान हैं, उसके सम्बन्धी (मघम्) विद्या और सुवर्णादि धन को (मंहते) देता है, तो इस (इन्द्रस्य) परमेश्वर तथा सभा सेना के स्वामी की (पूर्व्यः) सनातन प्राचीन (रातयः) दानशक्ति तथा (ऊतयः) रक्षा हैं, वे कभी (न) नहीं (विदस्यन्ति) नाश को प्राप्त होतीं, किन्तु नित्य प्रति वृद्धि ही को प्राप्त होती रहती हैं॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में भी श्लेषालङ्कार है। जैसे ईश्वर वा राजा की इस संसार में दान और रक्षा निश्चल न्याययुक्त होती हैं, वैसे अन्य मनुष्यों को भी प्रजा के बीच में विद्या और निर्भयता का निरन्तर विस्तार करना चाहिये। जो ईश्वर न होता तो यह जगत् कैसे उत्पन्न होता? तथा जो ईश्वर सब पदार्थों को उत्पन्न करके सब मनुष्यों के लिये नहीं देता तो मनुष्य लोग कैसे जी सकते? इससे सब कार्य्यों का उत्पन्न करने और सब सुखों का देनेवाला ईश्वर ही है, अन्य कोई नहीं, यह बात सब को माननी चाहिये॥३॥
विषय
फिर भी इस मन्त्र में इन्हीं दोनों का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यदि इन्द्रः स्तोतृभ्यः वाजस्य गोमतः मघं मंहते तर्हि अस्य एताः पूर्व्यः रातय ऊतयः न विदस्यन्ति न एव उपक्षयन्ति॥३॥
पदार्थ
(यदि) आकांक्षार्थे=यदि, (इन्द्रः)=परमेश्वरः सेनाध्यक्षः वा=परमेश्वर या सेनाध्यक्ष, (स्तोतृभ्यः) स्तुवन्ति जगदीश्वरं सृष्टिगुणाँश्च ये तेभ्यो धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यः=जो परमेश्वर और सृष्टि के गुणों की स्तुति करते हैं, उन धार्मिको और विद्वानों के द्वारा, (वाजस्य) वजन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन्=जिस व्यवहार से जाकर सुख प्राप्त करते हैं, उसमें, (गोमतः) प्रशस्ता पृथिवी गावः पशवो वागादीनीन्द्रियाणि च विद्यन्ते यस्मिन् तस्य=जिसमें उत्तम पृथिवी, गौ आदि पशु और वाणी आदि इन्द्रियां रहती हैं, उसके सम्बन्घ में, (मघम्) कृष्टविद्यासुवर्णादिधनम्=प्रकृष्ट विद्या और सुवर्ण आदि धन, (मंहते) ददाति=देता है, (तर्हि)=तब या उस समय, (अस्य)=इसका, (एता)=ये, (पूर्व्यः)=पहले जैसे, (रातयः) दानानि=दान, (ऊतयः)=रक्षा, (न)=नहीं, (विदस्यन्ति)=विशेष रूप से नष्ट होना, (न)=नहीं, (एव)=ही॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में भी श्लेष अलङ्कार है। जैसे ईश्वर या राजा की इस संसार में दान और रक्षा निश्चल न्याययुक्त होती हैं, वैसे अन्य मनुष्यों को भी प्रजा के बीच में विद्या और निर्भयता का निरन्तर विस्तार करना चाहिये। जो ईश्वर न होता तो यह जगत् कैसे उत्पन्न होता? तथा जो ईश्वर सब पदार्थों को उत्पन्न करके सब मनुष्यों के लिये नहीं देता तो मनुष्य लोग कैसे जी सकते? इससे सब कार्यों का उत्पन्न करने और सब सुखों का देनेवाला ईश्वर ही है, अन्य कोई नहीं, यह बात सब को माननी चाहिये॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यदि) यदि (इन्द्रः) परमेश्वर या सेनाध्यक्ष (स्तोतृभ्यः) जो परमेश्वर और सृष्टि के गुणों की स्तुति करते हैं, उन धार्मिको और विद्वानों के द्वारा, (वाजस्य) जिस व्यवहार से जाकर सुख प्राप्त होते हैं, (गोमतः) उनमें उत्तम पृथिवी, गौ आदि पशु और वाणी आदि इन्द्रियां रहती हैं, उसके सम्बन्घ में (मघम्) प्रकृष्ट विद्या और सुवर्ण आदि धन (मंहते) देता है (तर्हि) तब (अस्य) इसके (एता) ये (पूर्व्यः) पहले जैसे (रातयः) दान शक्ति उसकी (ऊतयः) रक्षा करती हैं और (विदस्यन्ति) विशेष रूप से नष्ट (न) नहीं, (एव) ही होती हैं॥३॥
संस्कृत भाग
पू॒र्वीः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ । न । वि । द॒स्य॒न्ति॒ । ऊ॒तयः॑ । यदि॑ । वाज॑स्य । गोऽम॑तः । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । मंह॑ते । म॒घम् ॥
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (पूर्वीः) पूर्व्यः सनातन्यः। सुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णादेशः। (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य सभासेनाध्यक्षस्य वा (रातयः) दानानि (न) निषेधार्थे (वि) क्रियायोगे (दस्यन्ति) उपक्षयन्ति (ऊतयः) रक्षणानि (यदि) आकाङ्क्षार्थे (वाजस्य) वजन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तस्य (गोमतः) प्रशस्ताः पृथिवी गावः पशवो वागादीनीन्द्रियाणि च विद्यन्ते यस्मिन् तस्य (स्तोतृभ्यः) स्तुवन्ति जगदीश्वरं सृष्टिगुणाँश्च ये तेभ्यो धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यः (मंहते) ददाति। मंहत इति दानकर्मसु पठितम्। (निघं०३.२०) (मघम्) प्रकृष्टं विद्यासुवर्णादिधनम्॥३॥
विषय- पुनस्तावेवोपदिश्येते।
अन्वयः- यदीन्द्रः स्तोतृभ्यो वाजस्य गोमतो मघं मंहते तर्ह्यस्यैताः पूर्व्यो रातय ऊतयो न विदस्यन्ति नैवोपक्षयन्ति॥३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रापि श्लेषालङ्कारः। यथेश्वरस्य जगति दानरक्षणानि नित्यानि न्याययुक्तानि कर्माणि सन्ति, तथैव मनुष्यैरपि प्रजायां विद्याऽभयदानानि नित्यं कार्य्याणि। यदीश्वरो न स्यात्तर्हीदं जगत्कथमुत्पद्येत, यदीश्वरः सर्वमुत्पाद्य न दद्यात्तर्हि मनुष्याः कथं जीवेयुस्तस्मात् सकलकार्य्योत्पादकः सर्वसुखदातेश्वरोऽस्ति, नेतर इति मन्तव्यम्॥३॥
विषय
रातयः - ऊतयः
पदार्थ
१. गत मन्त्र के अनुसार जब हम प्रभु को मित्र बनाते हैं तो उस (इन्द्रस्य) - प्रभु के (रातयः) - दान (पूर्वीः) - हमारा पालन व पुरण करनेवाले होते हैं अथवा प्रथम स्थान के अर्थात सर्वोत्कृष्ट होते हैं [पूर्व - प्रथम] । अन्य मित्र शक्ति की कमी के कारण हमारी सब आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकते व अज्ञानवश हमें गलत वस्तु भी दे सकते हैं , परन्तु प्रभु अपनी शक्ति व ज्ञान की पूर्णता के कारण हमें सर्वोत्तम वस्तुएँ ही प्राप्त कराया करते हैं ,
२. और यदि जब आवश्यक होता है तो (गोमतः) - गो - दुग्ध से युक्त (वाजस्य) - अन्न के (ऊतयः) - सहायता - रूप में दान तो (न विदस्यन्ति) - कभी नष्ट होते ही नहीं । 'प्रभु हमें आवश्यक अन्न भी प्राप्त न कराएँ' , ऐसा नहीं हो सकता । 'मोटर न मिले , कोठियाँ न मिलें' यह सम्भव है , पर अन्न न मिले यह कैसे हो सकता है? और वह अन्न भी रूखा - सूखा नहीं , गो - दुग्धयुक्त अन्न प्राप्त होता है । महाभारत के 'यमस्तु अन्नरसे प्रादात्' ये शब्द स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि अन्न व रस की कभी कमी न होगी ।
३. वे प्रभु (स्तोतृभ्यः) - स्तोताओं के लिए (मघम्) - पापशून्य ऐश्वर्य को (मंहते) - प्राप्त कराते हैं । वस्तुतः प्रभु - स्तवन से अन्ततः निःश्रेयस तो प्राप्त होता ही है , अभ्युदय की भी कमी नहीं रहती ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के दान सर्वोत्कृष्ट हैं , उसके गोरस - युक्त अन्न के साहाय्य तो कभी नष्ट होते ही नहीं , प्रभु के स्तोताओं को पवित्र ऐश्वर्य भी प्राप्त होता है ।
विषय
पक्षान्तर में राजा, सेनापति ।
भावार्थ
( यदि ) जिससे ( गोमतः ) उत्तम गौ आदि पशु, वाणी आदि इन्द्रियों से सम्पन्न ( वाजस्य ) सुख प्राप्त करने वाले सामर्थ्य के ( मघम् ) ऐश्वर्य को ( स्तोतृभ्यः ) स्तुतिकर्ता विद्वान् पुरुषों को ( मंहते ) दान करता है, इसी कारण से ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के दिये ( पूर्वीः ) सनातन से चले आये ( रातयः ) दान और (ऊतयः) ज्ञान और रक्षाएं भी ( न विदस्यन्ति ) कभी विनष्ट नहीं होतीं । राजा के पक्ष में—राजा विद्वानों को भूमि आदि धन प्रदान करता है । ( इसीसे उसके दिये दान और रक्षाएं नष्ट नहीं होतीं। सत्पात्र में दिया दान नष्ट नहीं होता ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ — ८ जेता माधुच्छन्दस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. या जगात ईश्वर व राजा यांचे दान व रक्षण न्याययुक्त (कर्म) असते, तसा इतर माणसांनीही प्रजेमध्ये विद्या व निर्भयता यांचा निरंतर फैलाव केला पाहिजे. जर ईश्वर नसता तर हे जग कसे निर्माण झाले असते? व ईश्वराने सर्व पदार्थ उत्पन्न करून सर्व माणसांना दिले नसते तर माणसे कशी जगली असती? हे सर्व कार्य ईश्वर करतो व सर्वांना सुख देतो, दुसरा कुणी नव्हे! ही गोष्ट सर्वांनी मानली पाहिजे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The eternal gifts of Indra, lord magnificent, never fail, His favours and protections never fade, nor exhaust, because the munificence of the lord of earth and His bounties of wealth and honour always flow in abundance more and ever more for the devotees.
Subject of the mantra
Yet again these two (God and the army chiefs) have been elucidated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yadi)=if, (indraḥ)=God or army chief, (stotṛbhyaḥ)=those who praise God and virtues of creation of universe, (vājasya)=going through which behavior one gets delight, (gomataḥ)=the God in that aspect in which earth, cow et cetera animals and speech of Vedas exist, (magham)=Specific knowledge and gold et cetera wealth, (maṃhate)=provides, (tarhi)=then, (asya)=its, (etā)=these, (pūrvyaḥ)=as earlier, (rātayaḥ)=capacity to donation, (ūtayaḥ)=protect, (vidasyanti)=get destructed specifically, (na)=not, (eva)=only.
English Translation (K.K.V.)
If God or the army chiefs who praise God and virtues of creation of universe; by those righteous fellows and scholars, delights are obtained. Going through which behavior, in that aspect in which earth, cow et cetera animals and speech of Vedas exist; God provides Specific knowledge and gold et cetera wealth, then its (army chief’s) capacity to donate, as earlier, protects him and does not let him get destroyed specifically.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In this mantra there is paronomasia as a figurative. Just as the charity and protection of God or a king are justified in this world, similarly other human beings should also continuously spread knowledge and fearlessness among the subjects. If there was no God, how would this world have arisen? And if God does not create all things and give them to all human beings, then how can human beings live? From this, God is the creator of all works and the giver of all happiness, no one else, this thing should be accepted by all.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The gifts of God from eternity, His saving succours never fail, if He grants to the righteous devotee who praise Him and the attributes of creation, wealth which gives happiness and consists of noble speech, a land, kine and senses.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(गोमतः) प्रशस्ता पृथिवी गावः पशवो वागादी नीन्द्रियाणि च विद्यन्ते यस्मिन् अस्य (वाजस्य ) वजन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तस्य ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As in God's Universe, there are eternal protections and acts full of perfect justice, in the same manner, men should also give the gifts of fearlessness and knowledge to the people. If there were no God, how could this universe come into being? If God does not give, how can men live? Therefore we should believe in God as the Creator of all objects of the world and Giver of all happiness.
Translator's Notes
गौरिति पृथिवी नाम (निघ० १, १ ) = Earth.गौरिति वाङ्नाम (निघ० १.११) = Speech. वज-गतौ गतेस्त्रयो ऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थग्रहणं कृत्वा व्याख्यातमृषिणा दयानन्देन ।
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