ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
ऋषिः - जेता माधुच्छ्न्दसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
तवा॒हं शू॑र रा॒तिभिः॒ प्रत्या॑यं॒ सिन्धु॑मा॒वद॑न्। उपा॑तिष्ठन्त गिर्वणो वि॒दुष्टे॒ तस्य॑ का॒रवः॑॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । अ॒हम् । शू॒र॒ । रा॒तिऽभिः॑ । प्रति॑ । आ॒य॒म् । सिन्धु॑म् । आ॒ऽवद॑न् । उप॑ । अ॒ति॒ष्ठ॒न्त॒ । गि॒र्व॒णः॒ । वि॒दुः । ते॒ । तस्य॑ । का॒रवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवाहं शूर रातिभिः प्रत्यायं सिन्धुमावदन्। उपातिष्ठन्त गिर्वणो विदुष्टे तस्य कारवः॥
स्वर रहित पद पाठतव। अहम्। शूर। रातिऽभिः। प्रति। आयम्। सिन्धुम्। आऽवदन्। उप। अतिष्ठन्त। गिर्वणः। विदुः। ते। तस्य। कारवः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 11; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रशब्देन शूरवीरगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
हे शूर! ये तव रातिभिस्त्वां सिन्धुमिवावदन् सन्नहं प्रत्यायम्। हे गिर्वणस्तव तस्य च कारवस्त्वां शूरं विदुरुपातिष्ठन्त ते सदा सुखिनो भवन्ति॥६॥
पदार्थः
(तव) बलपराक्रमयुक्तस्य (अहम्) सर्वो जनः (शूर) धार्मिक दुष्टनिवारक विद्याबलपराक्रमवन् सभाध्यक्ष ! (रातिभिः) अभयादिदानैः (प्रति) प्रतीतार्थे क्रियायोगे (आयम्) प्राप्नुयाम्। अत्र लिङर्थे लङ्। (सिन्धुम्) स्यन्दते प्रस्रवति सुखानि समुद्र इव गम्भीरस्तम् (आवदन्) समन्तात् ब्रुवन्सन् (उप) सामीप्यार्थे (अतिष्ठन्त) स्थिरा भवेयुः। अत्र लिङर्थे लङ्। (गिर्वणः) गीर्भिर्वन्द्यते सेव्यते जनैस्तत्सम्बुद्धौ (विदुः) जानन्ति (ते) तव (तस्य) राज्यस्य युद्धस्य शिल्पस्य वा (कारवः) ये कार्य्याणि कुर्वन्ति ते॥६॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोपमालङ्कारौ स्तः। ईश्वरः सर्वानाज्ञापयति-मनुष्यैर्धार्मिकस्य शूरस्य प्रशंसितस्य सभाध्यक्षस्य वा सेनाध्यक्षस्य मनुष्याभयदानेन समुद्रस्य जन्तव इवाश्रयेण राज्यकार्य्याणि सम्यग् विदित्वा संसाधनीयानि दुःखनिवारणेन सुखाय परस्परमुपस्थितिश्च कार्य्येति॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है-
पदार्थ
हे (शूर) धार्मिक घोर युद्ध से दुष्टों की निवृत्ति करने तथा विद्या बल पराक्रमवाले वीर पुरुष ! जो (तव) आपके निर्भयता आदि दानों से मैं (सिन्धुम्) समुद्र के समान गम्भीर वा सुख देनेवाले आपको (आवदन्) निरन्तर कहता हुआ (प्रत्यायम्) प्रतीत करके प्राप्त होऊँ। हे (गिर्वणः) मनुष्यों की स्तुतियों से सेवन करने योग्य ! जो (ते) आपके (तस्य) युद्ध राज्य वा शिल्पविद्या के सहायक (कारवः) कारीगर हैं, वे भी आप को शूरवीर (विदुः) जानते तथा (उपातिष्ठन्त) समीपस्थ होकर उत्तम काम करते हैं, वे सब दिन सुखी रहते हैं॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि-जैसे मनुष्यों को धार्मिक शूर प्रशंसनीय सभाध्यक्ष वा सेनापति मनुष्यों के अभयदान से निर्भयता को प्राप्त होकर जैसे समुद्र के गुणों को जानते हैं, वैसे ही उक्त पुरुष के आश्रय से अच्छी प्रकार जानकर उनको प्रसिद्ध करना चाहिये तथा दुःखों के निवारण से सब सुखों के लिये परस्पर विचार भी करना चाहिये॥६॥
विषय
अब इस मन्त्र में इन्द्र शब्द से शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शूर! ये तव रातिभिःत्वां सिन्धुम् इव आवदन् सन् अहं प्रति आयम्। हे गिर्वणःतव तस्य च कारवः त्वां शूरं विदुः उपातिष्ठन्त ते सदा सुखिनो भवन्ति॥६॥
पदार्थ
हे (शूर) धार्मिक दुष्टनिवारक विद्याबलपराक्रमवन् सभाध्यक्ष=धार्मिक, दुष्टों को दूर करने वाले, विद्यावान्, बलशाली, पराक्रमवान् और सभा के अध्यक्ष, (ये)=जो, (तव)=आपके, (रातिभिः) अभयादिदानैः=निर्भयता आदि देने से, (त्वाम्)=आपको, (सिन्धुम्) स्यन्दते प्रस्रवति सुखानि समुद्र इव गम्भीरस्तम्=समुद्र के समान गम्भीर या सुख देने वाले के, (इव)=समान, (आवदन्) समन्तात् ब्रुवन्सन्=निरन्तर कहता, (सन्)=हुआ, (अहम्)=मैं, (प्रति) प्रतीतार्थे क्रियायोगे=क्रिया के साथ अर्थ होगा, (आयम्) प्राप्नुयाम्=प्राप्त होना, (प्रत्यायम्)=प्रतीत करके प्राप्त होऊँ, (हे)=हे, (गिर्वणः) गीर्भिर्वन्द्यते सेव्यते जनैस्तत्सम्बद्धौ=मनुष्यों की वाणी से सेवन करने योग्य, (तव-तस्य)=उसका, (च)=और, (कारवः) ये कार्य्याणि कुर्वन्ति ते=जो कार्य करते हैं अर्थात् शिल्पविद्या के सहायक, वे, (त्वाम्)=आपको, (शूरम्)=शूरों को, (विदुः) जानन्ति=जानते हैं, (उपातिष्ठन्त)=समीपस्थ होकर, (ते)=आपके, (सदा)=सदैव, (सुखिनः)=सुखी, (भवन्ति)=होते हैं॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि जैसे मनुष्यों को धार्मिक शूर प्रशंसनीय सभाध्यक्ष वा सेनापति मनुष्यों के अभयदान से निर्भयता को प्राप्त होकर जैसे समुद्र के गुणों को जानते हैं, वैसे ही उक्त पुरुष के आश्रय से अच्छी प्रकार जानकर उनको प्रसिद्ध करना चाहिये तथा दुःखों के निवारण से सब सुखों के लिये परस्पर विचार भी करना चाहिये॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (शूर) धार्मिक, दुष्टों को दूर करने वाले, विद्यावान्, बलशाली, पराक्रमवान् और सभा के अध्यक्ष! (ये) जो (तव) आपके (रातिभिः) निर्भयता आदि देने से (त्वाम्) आपको (सिन्धुम्) समुद्र के समान गम्भीर या सुख देने वाले के (इव) समान (आवदन्+सन्) निरन्तर कहते हुए (अहम्) मैं (प्रत्यायम्) प्रतीत करके उन गुणों को प्राप्त होऊँ। (हे) हे (गिर्वणः) मनुष्यों की वाणी से सेवन करने योग्य शूर! (तव) आपके (च) और (तस्य) उसके (कारवः) जो कार्य करते हैं अर्थात् शिल्पविद्या के सहायक हैं, (त्वाम्) आप उन (शूरम्) शूरों को (विदुः) जानते हैं। वे (ते) आपके (उपातिष्ठन्त) समीपस्थ होकर (सदा) सदैव (सुखिनः) सुखी (भवन्ति) होते हैं॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तव) बलपराक्रमयुक्तस्य (अहम्) सर्वो जनः (शूर) धार्मिक दुष्टनिवारक विद्याबलपराक्रमवन् सभाध्यक्ष ! (रातिभिः) अभयादिदानैः (प्रति) प्रतीतार्थे क्रियायोगे (आयम्) प्राप्नुयाम्। अत्र लिङर्थे लङ्। (सिन्धुम्) स्यन्दते प्रस्रवति सुखानि समुद्र इव गम्भीरस्तम् (आवदन्) समन्तात् ब्रुवन्सन् (उप) सामीप्यार्थे (अतिष्ठन्त) स्थिरा भवेयुः। अत्र लिङर्थे लङ्। (गिर्वणः) गीर्भिर्वन्द्यते सेव्यते जनैस्तत्सम्बुद्धौ (विदुः) जानन्ति (ते) तव (तस्य) राज्यस्य युद्धस्य शिल्पस्य वा (कारवः) ये कार्य्याणि कुर्वन्ति ते॥६॥
विषयः- अथेन्द्रशब्देन शूरवीरगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- हे शूर! ये तव रातिभिस्त्वां सिन्धुमिवावदन् सन्नहं प्रत्यायम्। हे गिर्वणस्तव तस्य च कारवस्त्वां शूरं विदुरुपातिष्ठन्त ते सदा सुखिनो भवन्ति॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र लुप्तोपमालङ्कारौ स्तः। ईश्वरः सर्वानाज्ञापयति-मनुष्यैर्धार्मिकस्य शूरस्य प्रशंसितस्य सभाध्यक्षस्य वा सेनाध्यक्षस्य मनुष्याभयदानेन समुद्रस्य जन्तव इवाश्रयेण राज्यकार्य्याणि सम्यग् विदित्वा संसाधनीयानि दुःखनिवारणेन सुखाय परस्परमुपस्थितिश्च कार्य्येति॥६॥
विषय
शूर व सिन्धु
पदार्थ
१. गत मंत्र का ' जेता ' बल का विदारण करनेवाला प्रभु से प्रार्थना करता है - हे (शूर) मेरे शत्रुओं के शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (अहम्) - मैं (तव) - तेरे (रातिभिः) दानों से (सिन्धुम्) [स्यंदते] सब दानों के प्रवाह जिनसे चलते हैं उन आपको (आवदन्) प्रत्येक विजय में प्रशंसित करता हुआ (प्रत्यायम्) - प्राप्त होता हूं । मैं इन विजयों को अपना न समझकर आपसे होती हुई ही जानता हूं ।
२. (गिर्वणः) - गिरओं का सेवन करने वाले अथवा इन वाणियों से उपासन करनेवाले (उपातिष्ठन्त) - आपकी उपासना करते हैं । ३. और ये (कारवः) - कलात्मक प्रकार से कार्यों को करनेवाले (ते) तव - आपकी (तस्य) उस विजय को (विदुः) जानते हैं । उनको विजय का गर्व नहीं होता वह स्पष्ट समझते हैं कि आपकी ही शक्ति उन के माध्यम से उस विजय को कर रही है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही शूर हैं , हमारे शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले हैं । वे ही "सिंधु" हैं , सारे दानप्रवाह उनसे ही चलते हैं । प्रभु की दी हुई शक्तियों से ही मनुष्य विजयी होता है , अतः "कारू" पुरुष इस विजय को प्रभु का ही समझते हैं ।
विषय
आत्मा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( शूर ) शूरवीर सेनापते ! राजन् ! परमेश्वर ! ( तव रातिभिः ) तेरे अनेक दानों से मैं तुझको ( सिन्धुम् ) बहते महानद के समान अक्षय ऐश्वर्यवान् ( आ वदन् ) कहता हुआ ( प्रतिआयम् ) प्राप्त होता हूं । हे ( गिर्वणः ) वाणियों द्वारा स्तुति योग्य ! समस्त वाणियों के आश्रय ! (तस्य ) उस समुद्र के समान गम्भीर और अक्षय ऐश्वर्यवान् ( ते ) तुझे ही ( कारवः ) स्तुतिकर्त्ता विद्वान् गण और राज्यादि कार्यो के कर्ता कुशल पुरुष ( ते विदः ) तेरे सामर्थ्य को जानते हैं और ( उपातिष्ठन्त ) तेरी उपासना करते हैं, तेरा ही आश्रय लेते हैं। अध्यात्म में—हे (शूर) आशुरमण करने हारे ! व्यापक आत्मन् ! (तव रातिभिः) तेरे ऐश्वर्यों से तुझको ( सिन्धुम् आवदन् ) सबको अपने में बांधने वाला मुख्य प्राण कहता हुआ तुझे जानता हूं । (ते कारवः विदुः) विक्रियाशील प्राणगण और विज्ञजन भी तेरा ध्यान करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ — ८ जेता माधुच्छन्दस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. ईश्वर सर्व माणसांना आज्ञा देतो की, जसे माणसांना धार्मिक शूर, प्रशंसनीय सभाध्यक्ष किंवा सेनापतीच्या अभयदानाने निर्भयता प्राप्त होऊन जसे समुद्राच्या गुणांना जाणता येते तसे वरील पुरुषाच्या आश्रयाने राजकारण जाणून त्यांना प्रकट केले पाहिजे. दुःखाच्या निवारणासाठी व सर्वांच्या सुखासाठी परस्पर विचारही केला पाहिजे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Hero of generosity, drawn by your gifts of light and grace, I come to you as to the sea, singing songs of praise. Lord and lover of the voice of celebration, they, all your servants, know you and they abide by you in adoration.
Subject of the mantra
Now, by the word “Indra” virtues of brave have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śūra)=Righteous, remover of rogues, rich in knowledge, strong, mighty and chairman of the Assembly, (ye)=which, (tava)=your, (rātibhiḥ)=by providing fearlessness , (tvām)=to you, those, (sindhum)=as solemn as the sea or comforting, (iva)=like, (āvadan+san)=saying incessantly, (he)=O! (aham=I, (pratyāyam)=believing get obtained, (girvaṇaḥ)= to be surved with the speech of humen, (tava)=your, (ca)=and, (tasya)=his, (kāravaḥ)= craftsmen who perform work of craftsmanship, (tvām)=to you, (śūram)=of those might persons, (viduḥ)=know, (upātiṣṭhanta)=approaching nearest, (sadā)=always, (sukhinaḥ)=happy, (bhavanti)=become.
English Translation (K.K.V.)
O righteous, remover of rogues! You are rich in knowledge, strong, mighty and chairman of the assembly. Those of your virtues of providing fearlessness et cetera, being solemn like ocean or like one providing delights, saying incessantly. I should believe them as obtained. O mighty person serviceable by the speech of men! Those works of craftsmanship done for You and him, have been performed by craftsmen. They know You. They are always happy, while approaching nearest you.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is latent simile as figurative in this mantra. God commands all human beings to know the qualities of the ocean, just as a virtuous valour, a laudable councilor or commander, having attained safe-conduct from the fearlessness of human beings, in the same way, knowing well from the shelter of the said person, He should be made famous and from the removal of sorrows should also consider each other for all the happiness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a hero are described in this mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Addressing the President of the council or the commander of the army, it is said-- O hero, Attracted by thy bounties, I again come to thee, celebrating thy liberality while addressing thee who art deep like the ocean and source of happiness. O praise-worthy, the performer of the works of the state and industries, I know thee to be a true and munificent hero.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सिन्धुम् ) स्यन्दते प्रस्रवते सुखानि, समुद्र इव गम्भीरस्तम् ॥ = Source of happiness and deep or serious like the ocean. (कारवः ) ये कार्याणि कुर्वन्ति ते । = Performers of the works of the State etc. (रातिभिः) अभयादिदानै: रा-दाने = By the gifts of fearlessness etc. (शूर ) धार्मिक, दुष्टनिवारक, विद्याबलपराक्रमवन् सभाध्यक्ष |
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God commands all. Men should take shelter in a righteous heroic person (who is the president of the council or commander of the army) and who is therefore praised by all, as sharks and other creatures take shelter in the ocean. They should give the charity of fearlessness or harmlessness and should conduct all the affairs of the State well with knowledge and should try to make all happy by taking away all their misery.
Translator's Notes
The word कास्वः used in this Mantra is very important and significant. Skanda Swami interprets it as स्तोतारः Praisers, Venkata Madhava explains it as प्राज्ञाः स्तोतार: wise men. Sayanacharya interprets it प्रज्ञाः कर्तारः ऋत्विग् यजमानाः DOERS OF WORKS-- Priests and performers of sacrifice. Wilson translates it, following Sayanacharya as performers of the rite. Griffith translates it "singers". Rishi Dayananda has given the correct root-meaning as ये कार्याणि कुर्वन्ति Those who do the work. as It is derived from डु कृञ -करणे कृवा पा जिमि स्वदि साध्यसूभ्यं उण (उगादि १.१ ) इति उण So it is clear that Rishi Dayananda is right in taking the word in wide sense than narrowing it down to the performer of a ritual. This comprehensiveness of the Rishi is remarkable.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Manuj Sangwan
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal