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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
    ऋषिः - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    मा॒याभि॑रिन्द्र मा॒यिनं॒ त्वं शुष्ण॒मवा॑तिरः। वि॒दुष्टे॒ तस्य॒ मेधि॑रा॒स्तेषां॒ श्रवां॒स्युत्ति॑र॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒याभिः॑ । इ॒न्द्र॒ । मा॒यिन॑म् । त्वम् । शुष्ण॑म् । अव॑ । अ॒ति॒रः॒ । वि॒दुः । ते॒ । तस्य॑ । मेधि॑राः । तेषा॑म् । श्रवां॑सि । उत् । ति॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिरः। विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां श्रवांस्युत्तिर॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मायाभिः। इन्द्र। मायिनम्। त्वम्। शुष्णम्। अव। अतिरः। विदुः। ते। तस्य। मेधिराः। तेषाम्। श्रवांसि। उत्। तिर॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तद्गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    हे इन्द्र शूरवीर ! त्वं मायाभिः शुष्णं मायिनं शत्रुमवतिरस्तस्य हनने ये मेधिरास्ते तव सङ्गमेन सुखिनो भूत्वा श्रवांसि प्राप्नुवन्तु, त्वं तेषां सहायेनारीणां बलान्युत्तिरोत्कृष्टतया निवारय॥७॥

    पदार्थः

    (मायाभिः) प्रज्ञाविशेषव्यवहारैः। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक शत्रुनिवारक सभासेनयोः परमाध्यक्ष ! (मायिनम्) माया निन्दिता प्रज्ञा विद्यते यस्य तम्। अत्र निन्दार्थ इनिः। (त्वम्) प्रज्ञासेनाशरीरबलयुक्तः (शुष्णम्) शोषयति धार्मिकान् जनान् तं दुष्टस्वभावं प्राणिनम्। अत्र ‘शुष शोषणे’ इत्यस्मात् तृषिशुषि० (उणा०३.१२) अनेन नः प्रत्ययः। (अव) विनिग्रहार्थे। अवेति विनिग्रहार्थीयः। (निरु०१.३) (अतिरः) शत्रुबलं प्लावयति। अत्र लडर्थे लुङ् विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शश्च। (विदुः) जानन्ति (ते) तव (तस्य) राज्यादिव्यवहारस्य मध्ये (मेधिराः) ये मेधन्ते शास्त्राणि ज्ञात्वा दुष्टान् हिंसन्ति ते। अत्र ‘मिधृ मेधृ मेधाहिंसनयो’रित्यस्माद्बाहुलकादौणादिक इरन् प्रत्ययः। (तेषाम्) धार्मिकाणां प्राणिनाम् (श्रवांसि) अन्नादीनि वस्तूनि। श्रव इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) श्रव इत्यन्ननाम श्रूयत इति सतः। (निरु०१०.३) अनेन विद्यमानादीनामन्नादिपदार्थानां ग्रहणम्। (उत्) उत्कृष्टार्थे (तिर) विस्तारय॥७॥

    भावार्थः

    ईश्वर आज्ञापयति-मेधाविभिर्मनुष्यैः सामदानदण्डभेदयुक्त्या दुष्टशत्रून्निवार्य्य विद्याचक्रवर्त्तिराज्यस्य विस्तारः सम्भावनीयः। यथाऽस्मिन् जगति कपटिनो मनुष्या न वर्द्धेरंस्तथा नित्यं प्रयत्नः कार्य्य इति॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    हे परमैश्वर्य्य को प्राप्त कराने तथा शत्रुओं की निवृत्ति करनेवाले शूरवीर मनुष्य ! (त्वम्) तू उत्तम बुद्धि सेना तथा शरीर के बल से युक्त हो के (मायाभिः) विशेष बुद्धि के व्यवहारों से (शुष्णम्) जो धर्मात्मा सज्जनों का चित्त व्याकुल करने (मायिनम्) दुर्बुद्धि दुःख देनेवाला सब का शत्रु मनुष्य है, उसका (अवातिर) पराजय किया कर, (तस्य) उसके मारने में (मेधिराः) जो शस्त्रों को जानने तथा दुष्टों को मारने में अति निपुण मनुष्य हैं, वे (ते) तेरे संगम से सुखी और अन्नादि पदार्थों को प्राप्त हों, (तेषाम्) उन धर्मात्मा पुरुषों के सहाय से शत्रुओं के बलों को (उत्तिर) अच्छी प्रकार निवारण कर॥७॥

    भावार्थ

    बुद्धिमान् मनुष्यों को ईश्वर आज्ञा देता है कि-साम, दाम, दण्ड और भेद की युक्ति से दुष्ट और शत्रुजनों की निवृत्ति करके विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य की यथावत् उन्नति करनी चाहिये। तथा जैसे इस संसार में कपटी, छली और दुष्ट पुरुष वृद्धि को प्राप्त न हों, वैसा उपाय निरन्तर करना चाहिये॥७॥

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    विषय

    विषय(भाषा)- फिर भी इस मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र शूरवीर ! त्वं मायाभिः शुष्णं मायिनं शत्रुम् इव अतिरः तस्य हनने ये मेधिराः ते तव सङ्गमेन सुखिनः भूत्वा श्रवांसि प्राप्नुवन्तु त्वं तेषां सहायेन अरीणाम् बलानि उत्तिरः उत्कृष्टतया निवारय॥७॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक शत्रुनिवारक सभासेनयोः परमाध्यक्ष !=परम ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले शत्रुओं का निवारण करनेवाले सभा और सेना के परम अध्यक्ष ईश्वर!  (शूरवीर) शूरवीर-धार्मिक दुष्टनिवारक विद्याबलपराक्रमवन् सभाध्यक्ष=धार्मिक, दुष्टों को दूर करने वाला, विद्यावान्, बलशाली, पराक्रमवान् और सभा के अध्यक्ष शूरवीर मनुष्य! (त्वम्)=आप, (मायाभिः) प्रज्ञाविशेषव्यवहारैः=विशेष बुद्धि के व्यवहारों से, (शुष्णम्) शोषयति धार्मिकान् जनान् तं दुष्टस्वभावं प्राणिनाम्=दुष्ट स्वभाव के वे प्राणी जो धार्मिक लोगों का शोषण करते हैं, (मायिनम्) माया निन्दिता प्रज्ञा विद्यते यस्य तम्=जिसकी बुद्धि निन्दित किये जाने योग्य है, (शत्रुम्)=शत्रु को, (अव)=रक्षा करना, (अतिरः)=शत्रु के बल को स्वर्ग लोक भेज देते हैं, (तस्य)=उसका, (हनने) हननम्=वध करने में, (ये)=जो, (मेधिराः) ये मेधन्ते शास्त्रणि ज्ञात्वा दुष्टान् हिंसन्ति ते=जो शस्त्रों को जानने तथा दुष्टों को मारने में अति निपुण मनुष्य हैं, वे (ते) तव=आपके, (सङ्गमेन)=मिलने सें, (सुखिनः)=सुखी, (भूत्वा)=होकर, (श्रवांसि) अन्नादीनि वस्तूनि=अन्न आदि वस्तुएँ, (प्राप्नवन्तु)=प्राप्त करें,  (त्वम्)=आप, (तेषाम्)=उनकी, (सहायेन)=सहायता से, (अरीणाम्)=शत्रुओं के, (बलानि)=बल को, (उत्) उत्-उत्कृष्टार्थे=अच्छी तरह, (तिर) विस्तारय=विस्तार करो॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    बुद्धिमान् मनुष्यों को ईश्वर आज्ञा देता है कि साम, दाम, दण्ड और भेद की युक्ति से दुष्ट और शत्रुजनों की निवृत्ति करके विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य की यथावत् उन्नति करनी चाहिये। तथा इस संसार में कपटी, छली और दुष्ट पुरुषों की वृद्धि  न हों, वैसे उपाय निरन्तर करने चाहियें॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले शत्रुओं का निवारण करनेवाले सभा और सेना के परम अध्यक्ष ईश्वर! (शूरवीर) धार्मिक, दुष्टों को दूर करने वाला, विद्यावान्, बलशाली, पराक्रमवान् और सभा के अध्यक्ष शूरवीर मनुष्य! (त्वम्) आप (मायाभिः) विशेष बुद्धि के व्यवहारों से (शुष्णम्) दुष्ट स्वभाव के वे प्राणी जो धार्मिक लोगों का शोषण करते हैं, (मायिनम्) जिनकी बुद्धि निन्दित किये जाने योग्य है,  (शत्रुम्) उन शत्रुओं से (अव) रक्षा कीजिए। (अतिरः) उन शत्रुओं के बल को स्वर्ग लोक भेज दीजिए। (तस्य) उसके  (हनने) वध करने में (ये) जो (मेधिराः) जो शस्त्रों को जानकर दुष्टों को हिंसित करते हैं, (ते) आपके (सङ्गमेन) मिलने सें (सुखिनः) सुखी (भूत्वा) होकर (श्रवांसि) अन्न आदि वस्तुएँ (प्राप्नुवन्तु) प्राप्त करें।  (त्वम्) आप (तेषाम्) उनकी (सहायेन) सहायता से (अरीणाम्) शत्रुओं के (बलानि) विरुद्ध बलों को (उत्) को अच्छी तरह  से (तिर) बढ़ाओ॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मायाभिः) प्रज्ञाविशेषव्यवहारैः। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक शत्रुनिवारक सभासेनयोः परमाध्यक्ष ! (मायिनम्) माया निन्दिता प्रज्ञा विद्यते यस्य तम्। अत्र निन्दार्थ इनिः। (त्वम्) प्रज्ञासेनाशरीरबलयुक्तः (शुष्णम्) शोषयति धार्मिकान् जनान् तं दुष्टस्वभावं प्राणिनम्। अत्र 'शुष शोषणे' इत्यस्मात् तृषिशुषि० (उणा०३.१२) अनेन नः प्रत्ययः। (अव) विनिग्रहार्थे। अवेति विनिग्रहार्थीयः। (निरु०१.३) (अतिरः) शत्रुबलं प्लावयति। अत्र लडर्थे लुङ् विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शश्च। (विदुः) जानन्ति (ते) तव (तस्य) राज्यादिव्यवहारस्य मध्ये (मेधिराः) ये मेधन्ते शास्त्राणि ज्ञात्वा दुष्टान् हिंसन्ति ते। अत्र 'मिधृ मेधृ मेधाहिंसनयो'रित्यस्माद्बाहुलकादौणादिक इरन् प्रत्ययः। (तेषाम्) धार्मिकाणां प्राणिनाम् (श्रवांसि) अन्नादीनि वस्तूनि। श्रव इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) श्रव इत्यन्ननाम श्रूयत इति सतः। (निरु०१०.३) अनेन विद्यमानादीनामन्नादिपदार्थानां ग्रहणम्। (उत्) उत्कृष्टार्थे (तिर) विस्तारय॥७॥
    विषयः- पुनस्तद्गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हे इन्द्र शूरवीर ! त्वं मायाभिः शुष्णं मायिनं शत्रुमवतिरस्तस्य हनने ये मेधिरास्ते तव सङ्गमेन सुखिनो भूत्वा श्रवांसि प्राप्नुवन्तु, त्वं तेषां सहायेनारीणां बलान्युत्तिरोत्कृष्टतया निवारय॥७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वर आज्ञापयति-मेधाविभिर्मनुष्यैः सामदानदण्डभेदयुक्त्या दुष्टशत्रून्निवार्य्य विद्याचक्रवर्त्तिराज्यस्य विस्तारः सम्भावनीयः। यथाऽस्मिन् जगति कपटिनो मनुष्या न वर्द्धेरंस्तथा नित्यं प्रयत्नः कार्य्य इति॥७॥

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    विषय

    शुष्ण का संहार

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) - सब असुरों के [आसुरवृत्तियों के] संहार करनेवाले प्रभो ! (मायिनम्) - नानाविध कपटों से युक्त  , अशोभनीय रूपों के धारण करनेवाले (शुष्णम्) - विरहाग्नि में सुखा देनेवाले इस काम - रूप असुर को (त्वम्) - आप ही (मायाभिः) -  प्रज्ञानों के द्वारा (अवातिरः) - सुदूर हिंसित करनेवाले हो । प्रभु के बिना इस शोषक काम को कौन नष्ट कर सकता है? मनुष्य के लिए इसे नष्ट कर सकना सम्भव नहीं । इसे प्रभु ही जीतते हैं । महादेव की ज्ञान - ज्वाला [माया] में ही कामदेव भस्म होता है । 

    २. (मेधिराः) - मेधावी लोग (ते) - आपकी (तस्य) - इस शुष्ण - नामक असुर पर विजय को (विदुः) जानते हैं । वे समझते हैं कि यह विजय आपकी ही है । 

    ३. हे प्रभो ! आप (तेषाम्) - उन मेधावी पुरुषों के (श्रवांसि) - ज्ञानों व यशों को (उत्तिर) - बढ़ानेवाले होओ । आपकी कृपा से उनका ज्ञान व निरभिमानता के कारण यश बढ़ता ही जाए । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही इस अत्यन्त मायावी काम को नष्ट करते हैं । मेधावी लोग इस बात को समझते हैं और इस विजय का गर्व न कर निरभिमान बने रहते हैं । इनका ज्ञान व यश बढ़ता चलता है । 

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    विषय

    आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) शत्रुनाशक ! राजन् ! ( त्वं ) तू ( मायिनम् ) माया, कुटिल बुद्धि वाले ( शुष्णम् ) प्रजाओं के रक्त शोषण करने वाले, अत्याचारी, अधार्मिक पुरुष को (मायाभिः) विशेष बुद्धियों से (अव अतिरः) विनष्ट कर । ( मेधिराः ) मेधावान् विद्वान् पुरुष ( ते तस्य ) तेरे उस सामर्थ्य को ( विदुः ) भली प्रकार जानें और (तेषां) उनको तू ( श्रवांसि ) नाना अन्न और ऐश्वर्य ( उत् तिर ) प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — ८ जेता माधुच्छन्दस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बुद्धिमान माणसांना ईश्वर आज्ञा देतो की, साम, दाम, दंड व भेदाच्या युक्तीने दुष्ट शत्रूंचा नाश करून विद्या व चक्रवर्ती राज्याची यथायोग्य उन्नती केली पाहिजे. या संसारात कपटी, छळ करणाऱ्या दुष्ट पुरुषांची वाढ होता कामा नये तसा उपाय निरंतर केला पाहिजे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of supernal powers, with your vision and extraordinary intelligence ward off the artful opponent and exploiter. Your friends and admirers know you. Listen to their voice and overthrow the enemies.

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    Subject of the mantra

    Yet again, qualities of the Sun have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)=God, the supreme head of the Assembly and the Army, who has attained the supreme opulence, who removes the enemies! (śūravīra)=righteous, remover of the wicked, learned, powerful, mighty and the head of the Assembly, a brave man! (tvam)=You, (māyābhiḥ)= with special intelligence, (śuṣṇam)= those evil-tempered beings who exploit the righteous, (māyinam)= Whose wisdom deserves to be condemned, (śatrum)= from those enemies, (ava)=protect, (atiraḥ)= Send the forces of those enemies to heaven, (tasya)=his, (hanane)=in killing, (ye)=those, (medhirāḥ)= Those who inflict violence on the wicked knowing their weapons, (te)=Your, (saṅgamena)= by meeting, (sukhinaḥ)=happy, (bhūtvā)=being, (śravāṃsi)= food etc. substances, (prāpnavantu)=obtain, (tvam)=You, (teṣām)=their, (sahāyena)==with the help, (arīṇām)=of enemies, (balāni)=against forces, (ut)= well, (tira)= increase.

    English Translation (K.K.V.)

    O God, the supreme head of the assembly and the army, who has attained the supreme opulence, who removes the enemies! You protect from those enemies with special intelligence. Evil-tempered living beings who exploit the righteous, their wisdom deserves to be condemned. Send the forces of those enemies to heaven. In his killing, those, who inflict violence on the wicked knowing their weapons, by meeting you, being happy obtain food etc. substances. With their help, you increase the forces against the enemies properly.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God commands wise men that through the means of peace, price, punishment and distinction, the wicked and enemies should be finished and Chakravarti kingdom should be continuously progressed. And there should be no increase of cheat, deceit and evil men in this world, such measures should be taken continuously.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Chief of the State or the army) with thy subtle intelligence, wondrous power, stratagem, thou overthrowest unrighteous, wily (deceitful or cunning) enemy who tyrannizes over righteous persons. The wise know this thy greatness. Bestow upon them aboutdant food and make them happy and prosperous. Weaken the power of the wicked enemies with the help of the wise.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मायाभिः) प्रज्ञाविशेषव्यवहारैः मायेति प्रज्ञानाम ( निघ० ३–९) = Subtle intelligence or stratagem, wondrous power (Griffith). (शुष्णम्) शोषयति धार्मिकान् जनान् तं दृष्टस्वभावं प्राणिनम् शुषशोषणे इत्यस्मात् तृषिशुषिरसिभ्यः कित् (उणादि० ३.१२) अनेन च प्रत्ययः (मेधिराः) मेधन्ते शास्त्राणि ज्ञात्वा दुष्टान्हिंसते ते । अत्र मेधृमेधा हिंसनयो: संगमेच इत्यस्माद् बाहुलकादौणादिक इरन् 'प्रत्ययः ।। =Those wise men who knowing the Shastras destroy wily enemies.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God commands that highly intelligent persons should overthrow enemies by using all legitimate means consisting of peaceful persuation, charity, discord and punishment and should diffuse knowledge and extend righteous Government. They should always exert themselves in such a way that deceitful or cunning persons may not grow.

    Translator's Notes

    It is wrong on the part of Sayanacharya, Skandaswami, Venkata Madhava, Wilson and Griffith to take Shushna as the name of a particular demon. It is a general term for an unrighteous person who tyrannizes over righteous persons. Even Sayanacharya gives its etymological or derivative meaning correctly as भूतानाम्शोषणहेतुम् and Griffith in his foot-note gives the meaning as (drier up.) = Yet he and others take it to be the name of a particular demon, forgetting the main principle of the Vedic terminology that सर्वाणिनामानि ख्यातजानि इति नैरुंक्तसमय : i e. All nouns in the Vedas are derivatives or derived from the roots. It is Rishi Dayananda alone that interprets the word शुष्णम् quite correctly giving its root-meaning as given man of above. शोषयति धार्मिकाम् जनान् तं दुष्ट स्वभावं प्राणिनम् i. e. a wicked nature who dries up righteous persons by tyrannizing over them.

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