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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
    ऋषिः - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    पु॒रां भि॒न्दुर्युवा॑ क॒विरमि॑तौजा अजायत। इन्द्रो॒ विश्व॑स्य॒ कर्म॑णो ध॒र्ता व॒ज्री पु॑रुष्टु॒तः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒राम् । भि॒न्दुः । युवा॑ । क॒विः । अमि॑तऽओजाः । अ॒जा॒य॒त॒ । इन्द्रः॑ । विश्व॑स्य । कर्म॑णः । ध॒र्ता । व॒ज्री । पु॒रु॒ऽस्तु॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत। इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता वज्री पुरुष्टुतः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुराम्। भिन्दुः। युवा। कविः। अमितऽओजाः। अजायत। इन्द्रः। विश्वस्य। कर्मणः। धर्ता। वज्री। पुरुऽस्तुतः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरिन्द्रशब्देन सूर्य्यसेनापतिगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    अयममितौजा वज्री पुरां भिन्दुर्युवा कविः पुरुष्टुत इन्द्रः सेनापतिः सूर्य्यलोको वा विश्वस्य कर्मणो धर्त्ताऽजायतोत्पन्नोऽस्ति॥४॥

    पदार्थः

    (पुराम्) सङ्घातानां शत्रुनगराणां द्रव्याणां वा (भिन्दुः) भेदकः (युवा) मिश्रणामिश्रणकर्त्ता (कविः) न्यायविद्याया दर्शनविषयस्य वा क्रमकः (अमितौजाः) अमितं प्रमाणरहितं बलमुदकं वा यस्य यस्माद्वा सः (अजायत) उत्पन्नोऽस्ति (इन्द्रः) विद्वान्सूर्य्यो वा (विश्वस्य) सर्वस्य जगतः (कर्मणः) चेष्टितस्य (धर्त्ता) पराक्रमेणाकर्षणेन वा धारकः (वज्री) वज्राः प्राप्तिच्छेदनहेतवो बहवः शस्त्रसमूहाः किरणा वा विद्यन्ते यस्य सः। अत्र भूम्न्यर्थे इनिः (पुरुष्टुतः) बहुभिर्विद्वद्भिर्गुणैर्वा स्तोतुमर्हः॥४॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। यथेश्वरेण सृष्ट्वा धारितोऽयं सूर्य्यलोकः स्वकीयैर्वज्रभूतैश्छेदकैः किरणैः सर्वेषां मूर्त्तद्रव्याणां भेत्ता बहुगुणहेतुराकर्षणेन पृथिव्यादिलोकस्य धाताऽस्ति, तथैव सेनापतिना स्वबलेन शत्रुबलं छित्त्वा सामदानादिभिर्दुष्टान् मनुष्यान् भित्त्वाऽनेकशुभगुणाकर्षको भूत्वा भूमौ स्वराज्यपालनं सततं कार्य्यमिति वेद्यम्॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्य्य और सेनापति के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    जो यह (अमितौजाः) अनन्त बल वा जलवाला (वज्री) जिसके सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले शस्त्रसमूह वा किरण हैं, और (पुराम्) मिले हुए शत्रुओं के नगरों वा पदार्थों का (भिन्दुः) अपने प्रताप वा ताप से नाश वा अलग-अलग करने (युवा) अपने गुणों से पदार्थों का मेल करने वा कराने तथा (कविः) राजनीति विद्या वा दृश्य पदार्थों का अपने किरणों से प्रकाश करनेवाला (पुरुष्टुतः) बहुत विद्वान् वा गुणों से स्तुति करने योग्य (इन्द्रः) सेनापति और सूर्य्यलोक (विश्वस्य) सब जगत् के (कर्मणः) कार्यों को (धर्त्ता) अपने बल और आकर्षण गुण से धारण करनेवाला (अजायत) उत्पन्न होता और हुआ है, वह सदा जगत् के व्यवहारों की सिद्धि का हेतु है॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे ईश्वर का रचा और धारण किया हुआ यह सूर्य्यलोक अपने वज्ररूपी किरणों से सब मूर्तिमान् पदार्थों को अलग-अलग करने तथा बहुत से गुणों का हेतु और अपने आकर्षणरूप गुण से पृथिवी आदि लोकों का धारण करनेवाला है, वैसे ही सेनापति को उचित है कि शत्रुओं के बल का छेदन साम, दाम और दण्ड से शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करके बहुत उत्तम गुणों को ग्रहण करता हुआ भूमि में अपने राज्य का पालन करे॥४॥

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    विषय

    फिर इस मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्य्य और सेनापति के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अयं अमितौजा वज्री पुरा  भिन्दुः युवा कविः पुरुष्टुत इन्द्रः सेनापतिः सूर्य्यलोको वा विश्वस्य कर्मणो धर्त्ता अजायत उत्पन्नो अस्ति॥४॥

    पदार्थ

    (अयम्)=यह, (अमितौजाः) अमितं प्रमाणरहितं बलमुदकं वा यस्य यस्माद्वा स=१-अनन्त बल २- जल वाला, (वज्री) वज्राः प्राप्तिच्छेदनहेतवो बहवः शस्त्रसमूहाः किरणा वा विद्यन्ते यस्य सः=जिसके किरणों के समूह बहुत से पदार्थों की प्राप्ति और छेदन के लिए हैं, (पुराम्) सङ्घातानां शत्रुनगराणां द्रव्याणां वा=१-समुदायों या शत्रुओं के नगरों के, (भिन्दुः) भेदकः=नाश वा अलग-अलग करने, (इन्द्रः)=विद्वान्, सेनापतिः सूर्य्यो वा=विद्वान्, इन्द्र या सेनापति, (युवा) मिश्रणामिश्रकर्त्ता= पदार्थों का मेल करने वा कराने वाला, (कविः) न्यायविद्याया दर्शनविषयस्य वा क्रमकः=न्याय शास्त्र  या दर्शन विषयों का क्रमबद्ध पाठ करने वाला, (पुरुष्टुतः) बहुभिर्विविद्वद्भिर्गुणैर्वा स्तोतुमर्हः=बहुत विद्वानों या गुणों से स्तुति करने योग्य, (इन्द्रः) विद्वान्सूर्य्यो वा=विद्वान् या सूर्य्य, (सेनापतिः)=सेनापति, (सूर्य्योलोकः)=सूर्य्योलोक, (वा)=अथवा, (विश्वस्य) सर्वस्य जगतः=सारे संसार के, (कर्मणः) चेष्टितस्य=कार्यो का, (धर्त्ता) पराक्रमेणाकर्षणेन वा धारक:=पराक्रम या आकर्षण के गुण से धारण करने वाला, (अजायत) उत्पन्नोऽस्ति=उत्पन्न होता है॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। जैसे ईश्वर का रचा और धारण किया हुआ यह सूर्य्यलोक अपने वज्ररूपी किरणों से सब मूर्तिमान् पदार्थों को अलग-अलग करने तथा बहुत से गुणों का हेतु और अपने आकर्षणरूप गुण से पृथिवी आदि लोकों का धारण करनेवाला है, वैसे ही सेनापति के लिये उचित है कि शत्रुओं के बल का छेदन साम, दाम और दण्ड से करके, बहुत उत्तम गुणों को ग्रहण करता हुआ भूमि में अपने राज्य का पालन करे॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)-प्रथम अर्थ सेनापति के पक्ष में-
    यह (अमितौजाः) अपरिमित बल वाला, (वज्री) छेदक शस्त्रसमूहों वाला, (पुराम्) शत्रु-नगरों का (भिन्दुः) भेदक, (युवा) जोड़ने-तोड़ने वाला, (कवि:) राजनीति-विद्या का दृष्टा (पुरुष्टुतः) अनेक विद्वानों से या अनेक गुणों के कारण प्रशंसित (इन्द्रः) विद्वान् सेनापति (विश्वस्य) सम्पूर्ण राष्ट्र के (कर्मण:) कार्यों का (धर्त्ता) पराक्रम या आकर्षण के गुण से धारण करने वाला (अजायत) उत्पन्न होता है॥४॥
    द्वितीय अर्थ  सूर्य्य के पक्ष में-
    (अयम्) यह (अमितौजाः) अनन्त जल बरसाने वाला, (वज्री) जिसके किरणों के समूह बहुत से पदार्थों की प्राप्ति और छेदन के लिए होते  हैं। यह (युवा) संयुक्त या मिले हुए पदार्थों को व्यवस्थित करने वाला है। यह (पुरुष्टुतः) बहुत विद्वानों या गुणों से स्तुति करने योग्य है। (इन्द्रः) सूर्य्य (सूर्य्योलोकः) सूर्य्य लोक में स्थित है, जो (विश्वस्य) सारे संसार के (कर्मणः) कार्यो को (धर्त्ता) आकर्षण के गुण से धारण करने हेतु (अजायत) उत्पन्न होता है॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (पुराम्) सङ्घातानां शत्रुनगराणां द्रव्याणां वा (भिन्दुः) भेदकः (युवा) मिश्रणामिश्रणकर्त्ता (कविः) न्यायविद्याया दर्शनविषयस्य वा क्रमकः (अमितौजाः) अमितं प्रमाणरहितं बलमुदकं वा यस्य यस्माद्वा सः (अजायत) उत्पन्नोऽस्ति (इन्द्रः) विद्वान्सूर्य्यो वा (विश्वस्य) सर्वस्य जगतः (कर्मणः) चेष्टितस्य (धर्त्ता) पराक्रमेणाकर्षणेन वा धारकः (वज्री) वज्राः प्राप्तिच्छेदनहेतवो बहवः शस्त्रसमूहाः किरणा वा विद्यन्ते यस्य सः। अत्र भूम्न्यर्थे इनिः (पुरुष्टुतः) बहुभिर्विद्वद्भिर्गुणैर्वा स्तोतुमर्हः॥४॥
    विषय- पुनरिन्द्रशब्देन सूर्य्यसेनापतिगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- अयममितौजा वज्री पुरां भिन्दुर्युवा कविः पुरुष्टुत इन्द्रः सेनापतिः सूर्य्यलोको वा विश्वस्य कर्मणो धर्त्ताऽजायतोत्पन्नोऽस्ति॥४॥
     
    भावार्थः(महर्षिकृतः)-अत्र श्लेषालङ्कारः। यथेश्वरेण सृष्ट्वा धारितोऽयं सूर्य्यलोकः स्वकीयैर्वज्रभूतैश्छेदकैः किरणैः सर्वेषां मूर्त्तद्रव्याणां भेत्ता बहुगुणहेतुराकर्षणेन पृथिव्यादिलोकस्य धाताऽस्ति, तथैव सेनापतिना स्वबलेन शत्रुबलं छित्त्वा सामदानादिभिर्दुष्टान् मनुष्यान् भित्त्वाऽनेकशुभगुणाकर्षको भूत्वा भूमौ स्वराज्यपालनं सततं कार्य्यमिति वेद्यम्॥४॥

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    विषय

    प्रभु - भक्त की गुण - चतुष्टयी पुरां

    पदार्थ

    १. प्रभु - भक्त सदा (अजायत) - होता है  , विकसित होता हुआ निम्न गुणोंवाला बनता है । यह (इन्द्रः) - जितेन्द्रिय होता है और इन्द्रियों के जीतने के कारण ही सिद्धि को प्राप्त करता है [सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति] सारे दोष इन्द्रियों की गुलामी के कारण ही तो थे । [इन्द्रियाणां प्रसंगेन दोषमृच्छत्यसंशयम्] अब निर्दोष जीवनवाला बनकर यह जन्म - मरण के चक्र से ऊपर उठता है । इसी बात को इस रूप में कहते हैं कि पुरा भिन्दुः यह शरीररूप पुरियों का विदारण करनेवाला होता है । स्थूल  , सूक्ष्म व कारणशरीर' ही असुरों के "त्रिपुर' हैं । इनका विदारण करनेवाला यह सचमुच "त्रिपुरारि' होता है । 

    २. यह (विश्वस्य) - सब (कर्मणः) - कर्तव्य कर्मों का (धर्ता) - धारण करनेवाला होता है  , अर्थात् इसके जीवन में कभी अकर्मण्यता को स्थान नहीं मिलता  , इसी का यह परिणाम है कि यह (युवा) - [यु - मिश्रण - अमिश्रण] अच्छाइयों को अपने साथ मिलानेवाला व बुराइयों को अपने से पृथक् करनेवाला होता है । आलस्य व क्रिया का अभाव शतशः दोषों का जनक होता है । 

    ३. यह (वज्री) - वज्रवाला होता है । इस वज्र से ही इन्द्र वृत्र का विनाश करता है । इन्द्र 'जीवात्मा' हैं  , वज्र - [वज गतौ] उसका सतत क्रियाशील जीवन है । इस क्रियाशील जीवनरूप वज्र से ही वह ज्ञान की आवरणभूत कामवासना को विनष्ट करता है । इस प्रकार यह (कविः) - क्रान्तदर्शी बनता है । 

    ४. यह (पुरुष्टुतः) - खूब स्तुतिवाला होता है । वास्तविकता तो यह है कि यह श्वास - प्रश्वास लेते हुए भी प्रभु - स्तवन कर रहा होता है । इसका जीवन प्रभु - स्तवन द्वारा प्रभु से जुड़ जाता है और इसके जीवन में प्रभु की शक्ति का प्रवाह होने से यह (अमितौजाः) - अ - मित - बहुत अधिक ओज - [शक्ति] - वाला होता है । प्रभु जैसा ही हो जाता है  , अतः इसकी शक्ति अमित तो होनी ही है ।

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम जितेंद्रिय बनकर जन्म मरण पर विजय पाएं । हम कर्मनिष्ठ बनकर गुणों का ग्रहण व दोषों का अपाकरण करें   , हम क्रियामय वज्र को लेकर ज्ञान के आवरण - भूत काम को नष्ट कर क्रांतदर्शी [कवि] बने तथा सदा प्रभु स्तवन से प्रभु मित्र बनकर अनंत शक्ति को प्राप्त करें ।

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा, सेनापति ।

    भावार्थ

    परमेश्वर ( पुरा भिन्दुः ) मुमुक्षु जनों के देह रूप पुरों को तोड़ने वाला होने से ‘पुरभित्’ है । कभी वृद्ध और परिणामी न होने से ( युवा ) युवा है । अथवा नाना पदार्थों को मिलाने, जुदा करने में समर्थ होने से ‘युवा’ है । ( कविः ) क्रांतदर्शी होने से ‘कवि’ है । (अमितौजाः) अनन्त पराक्रम होने से वह सर्वशक्तिमान्, बल का अक्षय भण्डार है । वह परमेश्वर ही ( वज्री ) अज्ञान का निवारक होने से ज्ञानमय वज्र का धर्त्ता ‘वज्री’ है । ( पुरुष्टुतः ) बहुत से विद्वानों से स्तुति किये जाने से ‘पुरुस्तुत्’ है । वह ही ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर ( विश्वस्य कर्मणः ) विश्व रूप कर्म का ( धर्त्ता ) धारण करने वाला ( अजायत ) है। सेनापति के पक्ष में— शत्रुओं के पुरों को तोड़नेवाला, सन्धि विग्रह से मिलाने तोड़ने वाला, क्रान्तदर्शी, अपरिमित बल वाला इन्द्र, सेनापति ही समस्त राष्ट्र कार्यों को धारण करता है। वही शस्त्रों अस्त्रों का स्वामी, बलवान्, प्रजाओं से स्तुति किया जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — ८ जेता माधुच्छन्दस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसा ईश्वराने निर्माण केलेला व धारण केलेला हा सूर्यलोक आपल्या वज्ररूपी किरणांनी सर्व मूर्तिमान पदार्थांना वेगवेगळे करतो व पुष्कळशा गुणांचा हेतू असून आपल्या आकर्षणरूपी गुणाने पृथ्वी इत्यादी लोकांना धारण करणारा असतो, तसेच सेनापतीने शत्रूंच्या बलाचा, साम, दाम, दंड, भेद याद्वारे नाश करावा. शत्रूंना वेगवेगळे करावे. चांगल्या गुणांचे ग्रहण करून पृथ्वीवर स्वराज्याचे पालन करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Breaker of the enemy forts, youthful, creative and imaginative, hero of boundless strength, sustainer of the acts of the world and disposer, wielder of the thunderbolt, universally acclaimed and celebrated is risen into prominence.

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    Subject of the mantra

    Yet again, in this mantra qualities of the Sun and virtues of army chief have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First in favour of Army Chief- (yaha)=This, (amitaujāḥ)=having infinite power or water, (vajrī)=whose bunch of rays are or attainment of matters and their piercing, (purām)=cities of communities or enemies, (bhinduḥ)=pierser, Indra=God or army chief, (yuvā)= connecting and breaking, (kavi:)=political visionary, (puruṣṭutaḥ)=admired by many scholars or because of many virtues, (indraḥ)=learned commander, (viśvasya)=of the whole universe, (karmaṇa:)=of deeds, (dharttā)=holding with quality of valour or attraction, (ajāyata)=is born. Second in favour of the Sun- (ayam)=This, (amitaujāḥ)=is eternal rain shower, (vajrī)= The bunch of whose rays are for receiving and penetrating many substances. This, (yuvā)=is Combined or combined substances are arranged by this, (indraḥ)=Sun, (puruṣṭutaḥ)= is worthy of praise by many scholars or by virtues, (sūryyolokaḥ)=is located in the Sun-world, (viśvasya)=of the whole world, (karmaṇaḥ)=to deeds, (dharttā)= to hold by the quality of attraction, (ajāyata)=is born.

    English Translation (K.K.V.)

    First in favour of army Chief- This one with infinite strength, piercing weapons, the destroyer of enemy-cities, the one who connects and separates, the seer of political science, the scholar commander praised by many scholars or because of many qualities, the work of the whole nation by the virtue of might or attraction One who wears, is born. English Translation (K.K.V.) Second in favour of the Sun- This is eternal rain shower, the bunch of whose rays are for receiving and penetrating many substances. This is combined or combined substances are arranged by this. This Sun is worthy of praise by many scholars or by qualities. The Sun is stationed in the Sun-world, which is born to hold by the deeds of the whole world by quality of attraction.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra there is paronomasia as a figurative. Like this Sun-world, created and imbued by God, is the one who separates all the idols with the rays of his thunderbolt and is the cause of many qualities and the earth by its attraction form quality. In the same way, it is appropriate for a commander to pierce the enemy's strength with material, with peace, by purchasing by price and punishment, imbibing very good qualities and must nurse his kingdom in the land.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) In the case of a commander of an army the meaning is. The commander of an army is born as crusher of enemies' cities, the young, the wise, of unbounded strength, the sustainer of all pious acts, the wielder of thunderbolt and other destructive weapons and much extolled. (2) In the ease of the sun- The sun is the destroyer of the germs of various diseases, giver of light to see all objects, containing un-measured force and water to rain down, sustainer of all by his gravitating power, possessing rays which remove impurity and therefore praised by wise.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Just as the sun created by God is the destroyer of diseases with his rays and the upholder of the earth by his gravitating force, so should a commander by his power weaken or destroy the force of his enemies, should create disunion among unrighteous persons by the use of peaceful persuation and charity and other means and by imbibing many virtues, should always preserve Swarajya. (वज्री) दुष्टेभ्यो न्यायरूप वज्रधारी ।।

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