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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 135/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - विराडत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    आ वां॒ रथो॑ नि॒युत्वा॑न्वक्ष॒दव॑से॒ऽभि प्रयां॑सि॒ सुधि॑तानि वी॒तये॒ वायो॑ ह॒व्यानि॑ वी॒तये॑। पिब॑तं॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः पूर्व॒पेयं॒ हि वां॑ हि॒तम्। वाय॒वा च॒न्द्रेण॒ राध॒सा ग॑त॒मिन्द्र॑श्च॒ राध॒सा ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । रथः॑ । नि॒युत्वा॑न् । व॒क्ष॒त् । अव॑से । अ॒भि । प्रयां॑सि । सुऽधि॑तानि । वी॒तये॑ । वायो॒ इति॑ । ह॒व्यानि॑ । वी॒तये॑ । पिब॑तम् । मध्वः॑ । अन्ध॑सः । पू॒र्व॒ऽपेय॑म् । हि । वा॒म् । हि॒तम् । वायो॒ इति॑ । आ । च॒न्द्रेण॑ । राध॑सा । आ । ग॒त॒म् । इन्द्रः॑ । च॒ । राध॑सा । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वां रथो नियुत्वान्वक्षदवसेऽभि प्रयांसि सुधितानि वीतये वायो हव्यानि वीतये। पिबतं मध्वो अन्धसः पूर्वपेयं हि वां हितम्। वायवा चन्द्रेण राधसा गतमिन्द्रश्च राधसा गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। रथः। नियुत्वान्। वक्षत्। अवसे। अभि। प्रयांसि। सुऽधितानि। वीतये। वायो इति। हव्यानि। वीतये। पिबतम्। मध्वः। अन्धसः। पूर्वऽपेयम्। हि। वाम्। हितम्। वायो इति। आ। चन्द्रेण। राधसा। आ। गतम्। इन्द्रः। च। राधसा। आ। गतम् ॥ १.१३५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 135; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किंवद्भवितव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे सभासेनेशौ यो वां नियुत्वान्रथो वीतये सुधितानि प्रयांस्यभ्यावक्षदवसे वीतये हव्यानि च तौ युवां यथेन्द्रो वायुश्च तथा राधसा गतम्। वां हि यन्मध्वोऽन्धसः पूर्वपेयं वां हितमस्ति तत्पिबतं चन्द्रेण राधसाऽगतम्। हे वायो त्वं चन्द्रेण राधसा हितमायाहि हे वायो हव्यानि चायाहि ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवयोः (रथः) (नियुत्वान्) वायुवद्वेगवान् (वक्षत्) वहेत् (अवसे) विजयाऽगमाय (अभि) आभिमुख्ये (प्रयांसि) प्रीतानि (सुधितानि) सुष्ठु धृतानि (वीतये) आनन्दप्राप्तये (वायो) वायुवत् प्रिय (हव्यानि) दातुमर्हाणि (वीतये) धर्मप्रवेशाय (पिबतम्) (मध्वः) मधुरगुणयुक्तस्य (अन्धसः) अन्नस्य, (पूर्वपेयम्) पूर्वैः पातुं योग्यम् (हि) खलु (वाम्) युवाभ्याम् (हितम्) (वायो) दुष्टानां हिंसक (आ) समन्तात् (चन्द्रेण) सुवर्णेन। चन्द्रमिति हिरण्यना०। निघं० १। २। (राधसा) राध्नुवन्ति संसिद्धिं प्राप्नुवन्ति येन तेन (आ) (गतम्) गच्छतं प्राप्नुतम् (इन्द्रः) विद्युत् (च) चकारद्वायुः (राधसा) (आ) संसिद्धिकरेण साधनेन सह (गतम्) प्राप्नुतम्। अत्रोभयत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुविद्युतौ सर्वाऽभिव्याप्ते भूत्वा सर्वाणि वस्तूनि सेवेते तथा सज्जनैरैश्वर्यप्राप्तये सर्वाणि साधनानि सेवनीयानि ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को किसके समान होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सभासेनाधीशो ! जो (वाम्) तुम्हारा (नियुत्वान्) पवन के समान वेगवान् (रथः) रथ (पीतये) आनन्द की प्राप्ति के लिये (सुधितानि) अच्छे प्रकार धारण किये हुए (प्रयांसि) प्रीति के अनुकूल पदार्थों को (अभ्यावक्षत्) चारों ओर से अच्छे प्रकार पहुँचे और (अवसे) विजय की प्राप्ति वा (वीतये) धर्म की प्रवृत्ति के लिए (हव्यानि) देने योग्य पदार्थों को चारों ओर भली-भाँति पहुँचावे, वे तुम जैसे (इन्द्रः) बिजुली रूप आग (च) और पवन आवें वैसे (राधसा) जिससे सिद्धि को प्राप्त होते उस पदार्थ के साथ (आ, गतम्) आओ, जो (मध्वः) मीठे (अन्धसः) अन्न का (पूर्वपेयम्) अगले मनुष्यों के पीने योग्य (वाम्) और तुम दोनों के लिये (हितम्) सुखरूप भाग है उसको (पिबतम्) पिओ और (चन्द्रेण) सुवर्णरूप (राधसा) उत्तम सिद्धि करनेवाले धन के साथ (आगतम्) आओ। हे (वायो) पवन के समान प्रिय ! आप उत्तम सिद्धि करनेवाले सुवर्ण के साथ सुखभोग को (आ) प्राप्त होओ और हे (वायो) दुष्टों की हिंसा करनेवाले ! लेने-देने योग्य पदार्थों को भी (आ) प्राप्त होओ ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पवन और बिजुली सब में अभिव्याप्त होकर सब वस्तुओं का सेवन करते, वैसे सज्जनों को चाहिये कि ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये सब साधनों का सेवन करें ॥ ४ ॥

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    विषय

    सोम का पूर्वपान

    पदार्थ

    १. वायु के साथ यहाँ इन्द्र का भी स्मरण है। 'इन्द्र' शक्तिशाली है, 'वायु' गतिशील। यह शरीररथ इन्द्र और वायु का है, अर्थात् शक्तिशाली और गतिशील पुरुष का है। प्रभु कहते हैं कि (वाम्) = आप दोनों का यह शरीर रथ (नियुत्वान्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला है। यह रथ (अवसे) = रक्षण के लिए (सुधितानि) = उत्तमता से स्थापित किये गये (प्रयांसि) = अन्नों के (वीतये) = भक्षण के लिए (अभि) = उन अन्नों की ओर (आवश्वत) = ले चले। हे (वायो) = गतिशील जीव । ! (हव्यानि वीतये) = हव्य पदार्थों को ही खाने के लिए तुझे ले चले। २. हे इन्द्र और वायो! आप दोनों (मध्वः अन्धसः) = जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाले इस सोमरूप अन्न का (पिबतम्) = पान करो। यह सोम (वाम्) = आप दोनों का (हि) = निश्चय से (पूर्वपेयम्) = प्रथमाश्रम-ब्रह्मचर्याश्रम में पान करने योग्य है, (हितम्) = यह आपके लिए अत्यन्त हितकर है। हे (वायो) = गतिशील जीव (च) = और (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता शक्तिशाली जीव (चन्द्रेण राधसा) = आह्लाद देनेवाली सफलता के साथ और राधसा सफलता के साथ ही (आगतम्) = तुम मुझे प्राप्त होओ। जब मनुष्य इस संसार-यात्रा को सफलता से पूर्ण कर लेता है तभी वह परमात्मा को प्राप्त करनेवाला बनता है। सफलता-प्राप्ति के लिए सोमरक्षण आवश्यक होता है। इस सोमरक्षण के लिए गतिशीलता (वायु) व जितेन्द्रियता (इन्द्र) साधन हैं। इसी को इस भाषा में कहते हैं कि 'वायु और इन्द्र' सोमपान करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञिय सात्त्विक पदार्थों का सेवन करते हुए हम सोम का रक्षण करें और आह्लाद व सफलता को प्राप्त करके प्रभु के समीप पहुँचें।

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    विषय

    सेनापति, सभापति आदि का रथों से गमन, उत्तम ऐश्वर्यों में प्रथमाधिकार ।

    भावार्थ

    हे ( वायो ) बलवन् सेनापते ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( सुधितानि ) अच्छी प्रकार नियत, अथवा उत्तम पुष्टिकारक ( प्रयांसि ) प्रिय भोज्य अन्न और प्रीतिकारक ( हव्यानि ) उत्तम उत्तम ऐश्वर्यों को ( वीतये ) भोगने और ( वीतये ) उनके रक्षण ( अवसे ) पालन और प्राप्त करने के लिये ( नियुत्वान् रथः ) उत्तम अश्वों से युक्त रथ ( वां आवक्षत् ) तुम दोनों को वहन करे, दूर दूर देशों तक ले जावे । आप दोनों ( मध्वः ) मधुर ( अन्धसः ) अन्न का ( पिबतम् ) उपभोग करें । ( वां ) आप दोनों के लिये ( हि ) निश्चय से सदा, ( पूर्वपेयम् ) सब से पूर्व आदर से पान करने योग्य पदार्थ के समान उपभोग्य ऐश्वर्य आदि भी ( हितम् ) स्थित है । आप दोनों उसका उपभोग करें । आप दोनों ( चन्द्रेण ) सबको सुखी करनेवाले सुवर्ण आदि ऐश्वर्य सहित और (राधसा) सब कार्यों को भली प्रकार साधने वाले उपाय सामग्री सहित ( आ गतम् ) आवें, ( राधसा ) धनैश्वर्य सहित ( आगतम् ) हमें प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ वायुर्देवता॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः। २, ४ विराडत्यष्टिः । ५, ९ भुरिगष्टिः । ६, ८ निचृदष्टिः । ७ अष्टिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू व विद्युत सर्वांमध्ये अभिव्याप्त असून सर्व वस्तूंचे ग्रहण करतात. तसे सज्जनांनी ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी सर्व साधनांचा स्वीकार करावा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Vayu, may the chariot equipped with horses fast as winds bring both of you, Vayu and Indra, like ruler and commander, for our protection and for our choicest offerings prepared in faith with love, yes for your gracious acceptance of our gifts. Come and drink of the honey sweets of soma reserved as special drink for you first and exclusively. Vayu, come with the golden gift of wealth and power, and may Indra also come with the wealth of universal value and success.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should learned men do is told further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Council of Ministers and Commander in-chief of the army, with your quick-going chariot come to us like the electricity and the air, for the attainment of joy and for victory, to partake of the sweet food and other lovely articles prepared by us for you, cone with joy-bestowing wealth and gold with which many purposes are accomplished. Drink of the sweet beverage, for the first draught is your joint due.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    इन्द्रः - ईन्दा रयितेतिनिरुक्ते दृ-विदारणे -विदारणे वेधा इति मेधाविनाम ( निघ० ३.१५ ) मन्म मन -अवगमे-बोधे

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the air and electricity pervade all and serve all objects usefully, in the same manner, good men should use all legitimate means for the acquisition of wealth and prosperity

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