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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 135/ मन्त्र 6
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः

    इ॒मे वां॒ सोमा॑ अ॒प्स्वा सु॒ता इ॒हाध्व॒र्युभि॒र्भर॑माणा अयंसत॒ वायो॑ शु॒क्रा अ॑यंसत। ए॒ते वा॑म॒भ्य॑सृक्षत ति॒रः प॒वित्र॑मा॒शव॑:। यु॒वा॒यवोऽति॒ रोमा॑ण्य॒व्यया॒ सोमा॑सो॒ अत्य॒व्यया॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । वा॒म् । सोमाः॑ । अ॒प्ऽसु । आ । सु॒ताः । इ॒ह । अ॒ध्व॒र्युऽभिः॑ । भर॑माणाः । अ॒यं॒स॒त॒ । वायो॒ इति॑ । शु॒क्राः । अ॒यं॒स॒त॒ । ए॒ते । वा॒म् । अ॒भि । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ । ति॒रः । प॒वित्र॑म् । आ॒शवः॑ । यु॒वा॒ऽयवः॑ । अति॑ । रोमा॑णि । अ॒व्यया॑ । सोमा॑सः । अति॑ । अ॒व्यया॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे वां सोमा अप्स्वा सुता इहाध्वर्युभिर्भरमाणा अयंसत वायो शुक्रा अयंसत। एते वामभ्यसृक्षत तिरः पवित्रमाशव:। युवायवोऽति रोमाण्यव्यया सोमासो अत्यव्यया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे। वाम्। सोमाः। अप्ऽसु। आ। सुताः। इह। अध्वर्युऽभिः। भरमाणाः। अयंसत। वायो इति। शुक्राः। अयंसत। एते। वाम्। अभि। असृक्षत। तिरः। पवित्रम्। आशवः। युवाऽयवः। अति। रोमाणि। अव्यया। सोमासः। अति। अव्यया ॥ १.१३५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 135; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र वायो य इम इहाध्वर्युभिरप्सु सुताः सोमा भरमाणा वामयंसत शुक्रा अयंसत य एते आशवो युवायवः सोमासोऽव्ययाऽतिरोमाण्यत्यव्ययेव तिरः पवित्रं वामभ्यसृक्षत तान् युवां पिबतं संगच्छेतां च ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (इमे) (वाम्) (सोमाः) महौषधयः (अप्सु) जलेषु (आ) (सुताः) (इह) अस्मिँल्लोके (अध्वर्युभिः) अध्वरं यज्ञमिच्छद्भिः (भरमाणाः) (अयंसत) यच्छेयुः (वायो) वायुवद्बलिष्ठ (शुक्राः) शुद्धाः (अयंसत) गृह्णीयुः (एते) (वाम्) युवाम् (अभि) आभिमुख्ये (असृक्षत) सृजेयुः (तिरः) तिरश्चीनम् (पवित्रम्) शुद्धिकरम् (आशवः) ये अश्नुवन्ति ते (युवायवः) युवामिच्छवः (अति) (रोमाणि) लोमानि (अव्यया) व्ययरहितानि (सोमासः) ऐश्वर्य्ययुक्ताः (अति) (अव्यया) नाशरहितानि सुखानि ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या येषां सेवनेन दृढाऽरोग्ययुक्ता देहात्मानो भवन्ति येऽन्तःकरणं शोधयन्ति तान् यूयं नित्यं सेवध्वम् ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे परमऐश्वर्य्ययुक्त और (वायो) पवन के समान बलवान् ! जो (इमे) ये (इह) इस संसार में (अध्वर्युभिः) यज्ञ की चाहना करनेवालों ने (अप्सु) जलों में (सुताः) उत्पन्न की (सोमाः) बड़ी-बड़ी ओषधि (भरमाणाः) पुष्टि करती हुई तुम दोनों को (अयंसत) देवें और (शुक्राः) शुद्ध वे (अयंसत) लेवें वा जो (एते) ये (आशवः) इकट्ठे होते और (युवायवः) तुम दोनों की इच्छा करते हुए (सोमासः) ऐश्वर्य्ययुक्त (अव्यया) नाशरहित (अति, रोमाणि) अतीव रोमा अर्थात् नारियल की जटाओं के आकार (अति, अव्यया) सनातन सुखों के समान (तिरः) औरों से तिरछे (पवित्रम्) शुद्धि करनेवाले पदार्थों और (वाम्) तुम दोनों को (अभि, असृक्षत) चारों ओर से सिद्ध करें उनको तुम पीओ और अच्छे प्रकार प्राप्त होओ ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिनके सेवन से दृढ़ और आरोग्ययुक्त देह और आत्मा होते हैं तथा जो अन्तःकरण को शुद्ध करते, उनका तुम नित्य सेवन करो ॥ ६ ॥

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    विषय

    सर्वोत्तम जीवन-औषध

    पदार्थ

    १. (वाम्) = इन्द्र और वायु-आप दोनों के (अप्सु) = कर्मों के निमित्त (इमे) = ये (सोमाः) = सोमकण (आसुताः) = उत्पन्न किये गये हैं। इन सोमकणों के रक्षण से ही इन्द्र 'इन्द्र' बनता है, शक्तिशाली होता है और वायु 'वायु' बनता है, गतिशील हो पाता है। सोमपान के अभाव में इन्द्रत्व व वायुत्व समाप्त हो जाते हैं। ये सोम (इह) = इस शरीर में (अध्वर्युभिः) = यज्ञशील पुरुषों से (भरमाणा:) = धारण किये जाते हुए (अयंसत) = संयत किये जाते हैं। अध्वर्यु ही इन्हें शरीर में निरुद्ध कर पाते हैं। यज्ञादि कर्मों में लगे रहना ही वह उपाय है जिससे कि सोम का रक्षण होता है। हे (वायो) = गतिशील जीव! इस प्रकार ये (शुक्राः) = दीप्ति के साधनभूत सोमकण (अयंसत) = संयत होते हैं। २. (एते) = ये (वाम् अभि) = आपका लक्ष्य करके ही (असृक्षत) = रचे गये हैं। ये सोमकण ही (इन्द्रत्व) = जितेन्द्रियता व (वायुत्व) = क्रियाशीलता के प्राप्त करानेवाले हैं। जब ये (तिरः) = रुधिर में व्याप्त हुए हुए (तिरोहित) = [छिपे] से रहते हैं तो ये (पवित्रम्) = जीवन को पवित्र करनेवाले होते हैं, (आशवः) = हमें शीघ्रता से कर्मों में व्याप्त करनेवाले बनते हैं। इनसे जीवन में स्फूर्ति आती है। (युवायवः) = इन्द्र और वायु की कामना करनेवाले ये सोम-उनमें सुरक्षित रहनेवाले ये सोम (अति रोमाणि) = (रोम = water) सब जलों से बढ़कर होते हैं। जल 'जीवन' है। ये सोमकण सर्वाधिक जीवनशक्ति देनेवाले हैं। (अव्यया) = ये शक्ति को नष्ट न होने देनेवाले अङ्ग-प्रत्यङ्ग में कहीं भी न्यूनता नहीं आने देते। (सोमासः) = ये सोमकण (अति अव्यया) = अतिशयेन शक्ति को क्षीण न होने देनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोमकण हमें क्रियाशील बनाते हैं, दीप्त करते हैं, जीवन को पवित्र बनाते हैं और शक्ति को क्षीण नहीं होने देते।

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    विषय

    प्रधान पुरुष की राष्ट्र में, देह में आत्मा के समान स्थिति, देह में वीर्यों के समान राष्ट्र में बलवान् शासकों की स्थिति ।

    भावार्थ

    ( सोमाः अप्सु आसुताः ) जिस प्रकार औषधि रस नाना रसों में डाले जाकर ( शुक्राः ) देह को शुद्ध करने वाले होते हैं और ( अध्वर्युभिः ) शरीर को नाश न होने देने वाले प्राणों से ( भरमाणाः ) धारण किये जा कर ( शुक्राः ) विशुद्ध वीर्यरूप से क्रियाजनक होकर ( अयंसत ) शरीर में बल प्रदान करते, शरीर को व्यवस्थित करते हैं उसी प्रकार हे इन्द्र ! और वायु ! या सूर्य और वायु के समान ज्ञान प्रकाश, ऐश्वर्य और राज्य शासन के क्रियाकौशल और ज्ञानकौशल को धारण करने वाले प्रधान पुरुषो ! राजन् और सेनापते ! ( वां ) आप दोनों के सहायतार्थ ही ( इमे सोमाः ) ये प्रजाओं को सन्मार्ग में चलाने में समर्थ शक्तिशाली पुरुष ( अप्सु ) प्रजाओं में ( आसुताः ) सबके सन्मुख अभिषेक किये जावें । और वे ( अध्वर्युभिः ) राष्ट्र यज्ञ को नाश होने से बचाने वाले प्रबल नायकों और वीर, विद्वान् पुरुषों द्वारा (भरमाणाः) प्रजा को धारण और पोषण करते हुए ( शुक्राः ) आशु, कार्यकुशल और शुद्ध धर्माचरण वाले होकर ( अयंसत ) राष्ट्र का प्रबन्ध करते रहें। जिस प्रकार ( आशवः तिरः पवित्रम् अभि असृक्षत) वेग से फैलने वाले औषधि रस तिरछे लगे दशापवित्र नामक छनने पर गति करते हैं और ( अव्यया रोमाणि अति ) भेड़ के बालों को पार कर जाते हैं उसी प्रकार ( एते ) ये ( आशवः ) तीव्र वेग से जाने हारे पुरुष भी ( तिरः ) अति उत्तम, ( पवित्रम् ) पवित्र, राष्ट्र और प्रजा जन को पवित्र करने वाले आदेश को ( अभि ) लक्ष्य करके ( असृक्षत ) चलें, हरेक कार्य में प्रजाओं के पीड़क दुष्ट पुरुषों से जन समाज को स्वच्छ रखने का उद्देश्य ही सामने रख कर कार्य करें । और वे सब ( युवायवः ) राजा और सेनापति तुम दोनों को हृदय से चाहते हुए ( सोमासः ) सौम्य स्वभाव के शिष्यवत् अनुगामी शासक होकर ( अव्यया ) अव्यय, कभी समाप्त न होने वाले, अनन्त अनेक ( रोमाणि ) उच्छेदन या काट गिराने योग्य शत्रुओं को भी (अति) पार कर जाने में समर्थ हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ वायुर्देवता॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः। २, ४ विराडत्यष्टिः । ५, ९ भुरिगष्टिः । ६, ८ निचृदष्टिः । ७ अष्टिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्यांचे सेवन केल्याने देह व आत्मा दृढ आणि आरोग्यवान होतात व जे अंतःकरण शुद्ध करतात त्यांचे तुम्ही नित्य सेवन करा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vayu, these soma juices extracted and distilled here in yajnas, perfected by the priests, pure and exciting, may reach you, must reach you both, Vayu and Indra. These, flowing to you both in cross currents as if eager for you are created for you and flow to you.$These are of imperishable strength and vitality and have been filtered through woollen filters of permanent value. The inspiration is even more than permanent, beyond imperishment.

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