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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 135/ मन्त्र 8
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः

    अत्राह॒ तद्व॑हेथे॒ मध्व॒ आहु॑तिं॒ यम॑श्व॒त्थमु॑प॒तिष्ठ॑न्त जा॒यवो॒ऽस्मे ते स॑न्तु जा॒यव॑:। सा॒कं गाव॒: सुव॑ते॒ पच्य॑ते॒ यवो॒ न ते॑ वाय॒ उप॑ दस्यन्ति धे॒नवो॒ नाप॑ दस्यन्ति धे॒नव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्र॑ । अह॑ । तत् । व॒हे॒थे॒ इति॑ । मध्वः॑ । आऽहु॑तिम् । यम् । अ॒श्व॒त्थम् । उ॒प॒ऽतिष्ठ॑न्त । जा॒यवः॑ । अ॒स्मे इति॑ । ते । स॒न्तु॒ । जा॒यवः॑ । सा॒कम् । गावः॑ । सुव॑ते । पच्य॑ते । यवः॑ । न । ते॒ । वा॒यो॒ इति॑ । उप॑ । द॒स्य॒न्ति॒ । धे॒नवः॑ । न । अप॑ । द॒स्य॒न्ति॒ । धे॒नवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्राह तद्वहेथे मध्व आहुतिं यमश्वत्थमुपतिष्ठन्त जायवोऽस्मे ते सन्तु जायव:। साकं गाव: सुवते पच्यते यवो न ते वाय उप दस्यन्ति धेनवो नाप दस्यन्ति धेनव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र। अह। तत्। वहेथे इति। मध्वः। आऽहुतिम्। यम्। अश्वत्थम्। उपऽतिष्ठन्त। जायवः। अस्मे इति। ते। सन्तु। जायवः। साकम्। गावः। सुवते। पच्यते। यवः। न। ते। वायो इति। उप। दस्यन्ति। धेनवः। न। अप। दस्यन्ति। धेनवः ॥ १.१३५.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 135; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे वायो विद्वन् यावध्यापकोपदेशकावत्राऽह तद्वहेथे अश्वत्थं पक्षिण इव जायवो यं त्वामुपतिष्ठन्त मध्व आहुतिं चोपतिष्ठन्त तेऽस्मे जायवः सन्तु। एवं समाचरतस्ते गावः साकं सुवते यवः साकं पच्यते धेनवो नापदस्यन्ति धेनवो नोपदस्यन्ति ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (अत्र) (अह) किल (तत्) (वहेथे) प्रापयतः (मध्वः) मधुरस्य विज्ञानस्य (आहुतिम्) समन्ताद्ग्रहणम् (यम्) (अश्वत्थम्) पिप्पलमिव (उपतिष्ठन्त) उपतिष्ठन्तु (जायवः) जयशीलाः (अस्मे) अस्माकम् (ते) (सन्तु) (जायवः) जेतारः शूराः (साकम्) सह (गावः) धेनवः (सुवते) गर्भान् विमुञ्चन्ति (पच्यते) परिपक्वो भवति (यवः) मिश्रामिश्रव्यवहारः (न) इव (ते) तव (वायो) वायुवद्बलयुक्त (उप) (दस्यन्ति) क्षयन्ति (धेनवः) (न) निषेधे (अप) (दस्यन्ति) (धेनवः) वाण्यः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदि सर्वैर्मनुष्यैः श्रेष्ठमनुष्याणां संगस्थकामना परस्परस्मिन्प्रीतिः क्रियेत तर्हि तेषां विद्याबलह्रासो भेदबुद्धिश्च नोपजायेत ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वायो) पवन के समान विद्वान् ! जो पढ़ाने और उपदेश करनेवाले (अत्राह) यहीं निश्चय से (तत्) उस विषय को (वहेथे) प्राप्त कराते वा (अश्वत्थम्) जैसे पीपलवृक्ष को पखेरू वैसे (जायवः) जीतनेहारे (यम्) जिन आपके (उपतिष्ठन्त) समीप स्थित हों और (मध्वः) मधुर विज्ञान के (आहुतिम्) सब प्रकार ग्रहण करने को उपस्थित हों (ते) वे (अस्मे) हम लोगों के बीच (जायवः) जीतनेहारे शूर (सन्त) हों, ऐसे अच्छे प्रकार आचरण करते हुए (ते) आपकी (गावः) गौयें (साकम्) साथ (सुवते) विआती (यवः) मिला वा पृथक्-पृथक् व्यवहार साथ (पच्यते) सिद्ध होता तथा (धेनवः) गौयें जैसे (अप, दस्यन्ति) नष्ट नहीं होतीं (न) वैसे (धेनवः) वाणी (न, उप, दस्यन्ति) नहीं नष्ट होतीं ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सब मनुष्यों से श्रेष्ठ मनुष्यों के सङ्ग की कामना और आपस में प्रीति की जाय तो उनकी विद्या बल की हानि और भेदबुद्धि न उत्पन्न हो ॥ ८ ॥

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    विषय

    माधुर्य की आहुति

    पदार्थ

    १. (अत्र) = यहाँ (अह) = निश्चय से (तत्) = उस (मध्वः) = माधुर्य की (आहुतिम्) = आहुति को (वहेथे) = आप प्राप्त कराते हो, (यम्) = जिस (अश्वत्थम्) = [अश्वेषु इन्द्रियेषु तिष्ठति] जितेन्द्रिय पुरुष को (जायवः) = रोगों को जीतनेवाले ये सोमकण (उपतिष्ठन्त) = प्राप्त होते हैं, हम चाहते हैं कि ते (जायवः) = वे रोगों को जीतनेवाले सोमकण अस्मे सन्तु हमारे लिए हों। इन सोमकणों के हममें सुरक्षित होने पर इन्द्र और वायु हमारे जीवन में भी माधुर्य प्राप्त कराएँ । २. इस सोम के हममें स्थित होने पर (गावः) = सब ज्ञानेन्द्रियाँ (साकम्) = साथ-साथ मिलकर (सुवते) = ज्ञान उत्पन्न करती हैं। तथा (यवः पच्यते) = (यु मिश्रणामिश्रणयोः) बुराइयों के दूर करने तथा अच्छाइयों को प्राप्त करने का भाव परिपक्व होता है। ३. हे (वायो) = गतिशील जीव! (ते धेनवः) = तेरी ये ज्ञानदुग्ध देनेवाली ज्ञानवाणियाँ (न उपदस्यन्ति) = क्षीण नहीं होतीं और (धेनवः) = ये ज्ञान की वाणियाँ (न अपदस्यन्ति) = तुझसे कभी दूर नहीं होतीं। इनका सदा तेरे समीप वास होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - जहाँ सोमकणों का रक्षण है, वहाँ जीवन में माधुर्य है। इन सोम-रक्षकों को ज्ञान प्राप्त होता है, इनकी बुराइयाँ नष्ट होती हैं और ज्ञान की वाणियाँ कभी इनका साथ नहीं छोड़तीं।

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    विषय

    पक्षियों के आश्रय-वृक्षवत् शासक प्रधान पुरुष की स्थिति । और राष्ट्र की समृद्धि का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( मध्वः आहुतिम् अश्वत्थम् ) मधुर फल के देने वाले अश्वत्थ अर्थात् पीपल को जिस प्रकार फल खाने की इच्छा से पक्षि गण ( उप तिष्ठन्ति ) प्राप्त होते और उसका आश्रय लेते हैं। और जिस प्रकार ( जायवः अश्वत्थम् उपतिष्ठन्ति ) अर्थात् अपत्य की कामना करने वाले स्त्री पुरुष अश्वत्थ या पीपल को प्राप्त करते हैं, उसको औषधि रूप से सेवन करते हैं । उसी प्रकार हे ( इन्द्र वायू ) ऐश्वर्यवन् और बलवन् राजन् और सेनापते ! ( जायवः ) विजयशील विजेता वीर पुरुष ( यम् ) जिस ( मध्वः ) शत्रुदल को कंपा देने वाले सामर्थ्य को (आहुतिम्) धारण करने और प्रकट करने वाले और (मध्वः आहुतिम्) अधीन भृत्यों को अन्न, भृति देने वाले ( अश्वत्थम् ) आश्रय वृक्ष के समान दृढ़ एवं ( अश्वत्थं ) अश्व सैन्य के बल पर संग्राम में स्थित होने वाले ( यम् ) जिस नायक और कोशवान् सुदृढ़ पुरुष का ( उपतिष्ठन्त ) आश्रय लेते हैं, हे ( इन्द्र वायू ) राजन् और सेनापते ! आप दोनों ( अत्र अह ) इस राष्ट्र में अवश्य ही ( तत् वहेथे ) उस वीर नायक को धारण करो। और (ते) वे (अस्मे) हमारे वीर पुरुष (जायवः सन्तु) संग्राम में विजयी होवें । राज्य में (गावः) गौएं ( साकम् ) एक साथ ही (सुवते) वियावें । अर्थात् दूध घी एक साथ बहुत अधिक मात्रा से हो । ( यवः पच्यते) जौ आदि अन्न भी एक साथ ही पके । हे ( वायो ) विद्वन् ! ( ते धेनवः ) तेरी गौएं ( न उप दस्यन्ति ) क्षीण न हों और (धेनवः) दुधार गौएं ( न अप दस्यन्ति ) चोर आदि द्वारा चुराई जाकर नष्ट न हों।

    टिप्पणी

    अथर्ववेद में शमीपर स्थित पीपल को पुत्रोत्पादक कहा है। “शमीमश्वत्थ आरूस्तत्र पुंसवनं कृतम्॥” यहां मधु के साथ अश्वत्थ के सेवन से पुत्र प्राप्ति होती है ऐसी व्यंजना है। पीपल, वट, और ढाक तीनों की फुनगी का सेवन समान रूप से पुत्रजनक है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ वायुर्देवता॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः। २, ४ विराडत्यष्टिः । ५, ९ भुरिगष्टिः । ६, ८ निचृदष्टिः । ७ अष्टिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे सर्व माणसांमध्ये श्रेष्ठ असलेल्या माणसांमध्ये राहण्याची कामना करतात व आपापसात प्रेम करतात. त्यांच्या विद्या व बलाची हानी होत नाही व भेदबुद्धीही उत्पन्न होत नाही. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O noble Vayu and Indra, breath and powers of omniscience and omnipotence, scholar and commander, bring us here that holy fragrance of knowledge and power to our social yajna by which the rising youth aspiring for victory, sitting round you like nestlings in the sacred peepal tree, may benefit and reach the goal of their ambition. Our cows, our lands, our voices bear fruit. Our grains ripen, our individual and collective endeavours mature and prosper. O Vayu, your gifts of creation never decrease, your words never go waste, nor are they ever stolen away.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further in the eighth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person mighty like the wind, those teachers and preachers who carry on or spread this sweet knowledge stand by thee, as the birds have their nests on the Pippal tree. Let those victorious persons who approach thee and accept the sweet knowledge given by teachers and preachers take shelter in thee. When you behave righteously, the cows give birth to good progeny, all dealing whether united or separate (individual or collective) is matured well, the cows will not grow meagre and your noble speech will not fail to create good effect.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( मध्व:) मधुरस्य विज्ञानस्व = Of sweet knowledge. ( यव:) मिश्रामिश्रव्यवहारः = Individual or Collective dealing. (धेनवः ) वाण्यः speeches.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If all men always desire to have the association with righteous persons and have mutual love, their knowledge and strength will not diminish and they will not be made antagonistic to one another.

    Translator's Notes

    यवः is from यु-मिश्रणामिश्रणयोः ( धातुपाठे ) धेनव इति वाङ्नाम (निघ० १.११ ) The word मधु is derived from मन्-अवगमे-बोधे फलि पाटि नामिमनि जनाम् ( उणादिकोषे १.१८ ) इति ध: अनुवृत्या उश्च ॥

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