ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 154/ मन्त्र 2
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विष्णुः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र तद्विष्णु॑: स्तवते वी॒र्ये॑ण मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः। यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेष्वधिक्षि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तत् । विष्णुः॑ । स्त॒व॒ते॒ । वी॒र्ये॑ण । मृ॒गः । न । भी॒मः । कु॒च॒रः । गि॒रि॒ऽस्थाः । यस्य॑ । उ॒रुषु॑ । त्रि॒षु । वि॒ऽक्रम॑णेषु । अ॒धि॒ऽक्षि॒यन्ति॑ । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तद्विष्णु: स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। तत्। विष्णुः। स्तवते। वीर्येण। मृगः। न। भीमः। कुचरः। गिरिऽस्थाः। यस्य। उरुषु। त्रिषु। विऽक्रमणेषु। अधिऽक्षियन्ति। भुवनानि। विश्वा ॥ १.१५४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 154; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यस्य निर्मितेषूरुषु त्रिषु विक्रमणेषु विश्वा भुवनान्यधिक्षियन्ति तत् स विष्णुः स्ववीर्येण कुचरो गिरिष्ठा मृगो भीमो नेव विश्वाँल्लोकान् प्रस्तवते ॥ २ ॥
पदार्थः
(प्र) (तत्) सः (विष्णुः) सर्वव्यापीश्वरः (स्तवते) स्तौति (वीर्येण) स्वपराक्रमेण (मृगः) (न) इव (भीमः) भयङ्करः (कुचरः) यः कुत्सितं चरति सः (गिरिष्ठाः) यो गिरौ तिष्ठति (यस्य) (उरुषु) विस्तीर्णेषु (त्रिषु) नामस्थानजन्मसु (विक्रमणेषु) विविधेषु सृष्टिक्रमेषु (अधिक्षियन्ति) आधाररूपेण निवसन्ति (भुवनानि) भवन्ति भूतानि येषु तानि लोकजातानि (विश्वा) सर्वाणि ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। नहि कश्चिदपि पदार्थ ईश्वरसृष्टिनियमक्रममुल्लङ्घितुं शक्नोति यो धार्मिकाणां मित्रइवाह्लादप्रदो दुष्टानां सिंह इव भयप्रदो न्यायादिगुणधर्त्ता परमात्माऽस्ति स एव सर्वोषामधिष्ठाता न्यायाधीशोऽस्तीति वेदितव्यम् ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यस्य) जिस जगदीश्वर के निर्माण किये हुए (उरुषु) विस्तीर्ण (त्रिषु) जन्म, नाम और स्थान इन तीन (विक्रमणेषु) विविध प्रकार के सृष्टि-क्रमों में (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (अधिक्षियन्ति) आधाररूप से निवास करते हैं (तत्) वह (विष्णुः) सर्वव्यापी परमात्मा अपने (वीर्येण) पराक्रम से (कुचरः) कुटिलगामी अर्थात् ऊँचे-नीचे नाना प्रकार विषम स्थलों में चलने और (गिरिष्ठाः) पर्वत कन्दराओ में स्थिर होनेवाले (मृगः) हरिण के (न) समान (भीमः) भयङ्कर है और समस्त लोक-लोकान्तरों को (प्रस्तवते) प्रशंसित करता है ॥ २ ॥
भावार्थ
कोई भी पदार्थ ईश्वर और सृष्टि के नियम को उल्लङ्घ नहीं सकता है, जो धार्मिक जनों को मित्र के समान आनन्द देने, दुष्टों को सिंह के समान भय देने और न्यायादि गुणों का धारण करनेवाला परमात्मा है, वही सबका अधिष्ठाता और न्यायाधीश है, यह जानना चाहिये ॥ २ ॥
विषय
त्रि विक्रम विष्णु
पदार्थ
१. (तत् विष्णुः) = वे विष्णु (वीर्येण) = अपने शक्तिशाली कर्मों से (प्र स्तवते) = प्रकर्षेण स्तुति किये जाते हैं। प्रभु की शक्ति का सब कोई स्तवन करता है। वे प्रभु (मृगः) = स्तोताओं के जीवन का शोधन करनेवाले हैं [मृजू शुद्धौ] (भीमः न) = उपासकों के लिए वे भयंकर नहीं हैं। उपासकों को प्रभु से भय नहीं होता। उपासक का जीवन शुद्ध और परिणामतः निर्भय बना रहता है। २. (कुचर:) = [क्वायं न चरति] वे प्रभु कहाँ नहीं हैं, अर्थात् वे सर्वव्यापक हैं, (गिरिष्ठः) = वेदवाणियों में स्थित हैं, ज्ञान की सब वाणियों के वे ही अधिष्ठाता हैं। इन्हीं के द्वारा हमें प्रभु का प्रकाश मिलता है। ३. ये विष्णु वे हैं (यस्य) = जिनके (उरुषु त्रिषु विक्रमणेषु) = तीन विशिष्ट चरणों में उत्पत्ति, स्थिति, संहाररूप कार्यों में अथवा ज्ञान, कर्म, उपासना के उपदेशों में विश्वा भुवनानि = सब लोक अधिक्षियन्ति निवास करते हैं। सब प्राणियों का आधार प्रभु के ये तीन कदम ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के तीन कदमों में ही सब प्राणियों व लोकों का निवास है।
विषय
विष्णु के तीन विक्रमणों का रहस्य ।
भावार्थ
( यस्य ) जिस जगदीश्वर के ( त्रिषु उरुषु विक्रमणेषु ) तीनों, महान् विक्रमणों, तीनों प्रकार के जगत्सर्गों में, सत्व, रजस, तमस् इन तीनों से बने सर्गों में या सृष्टि, स्थिति, प्रलय इन तीन क्रियाओं में ( विश्वा भुवना ) समस्त भुवन ( अधि क्षियन्ति ) आश्रय पा रहे हैं । और जो ( वीर्येण ) बल, पराक्रम और शक्ति में (मृगः न) सिंह के समान ( भीमः ) पापकारियों को भय देने हारा ( कुचरः ) सम विषम आदि नाना स्थानों में भी विचरने हारा, सर्वत्र व्यापक ( गिरिष्ठाः ) पर्वतादि में स्थित सिंह के समान ( गिरिष्ठाः ) पर्वत वा मेघ के समान सर्वोच्च देश में विद्यमान, या स्तुतिकर्ता जनों की मन्त्रादि स्तुति, वाणी में स्थित है ( तत् ) वह ( विष्णुः ) व्यापक परमेश्वर ( प्र स्तवते ) अच्छी प्रकार स्तुति करने योग्य है । अथवा, वही सब लोकों को उपदेश देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- १, २ विराट् त्रिष्टुप । ३, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(तत्-विष्णु:-वीर्येण प्रस्तवते) वह “लिङ्ग्व्यत्ययः” व्यापक परमात्मा अपने वीर्य बल पराक्रम से स्तुत किया जाता है स्तुति करने योग्य है 'कर्मणि कर्तृ प्रत्ययश्छान्दसः' (स्म्रुगः-न भीमः) मृग-सिंह की भांति भयङ्कर (गिरिष्ठा:) पर्वत स्थायी-उत्पाद विनाश पर्व वाले जगत् में रहने वाला (कुचरः) कहां यह नहीं चरता है। अर्थात् व्यापक होने से सर्वत्र चरता है- उपलब्ध है (यस्य-उरुषु त्रिषु विक्रमणेषु) जिसके विस्तृत तीन विक्रमणों में विक्रमणशील पादों में (विश्वा भुवनानि-अधिक्षियन्ति) सारे लोक लोकान्तर निवास करते हैं रहते हैं ॥२॥
विशेष
ऋषिः- दीर्घतमाः दीर्घकाल से अज्ञानान्धकारयुक्त या दीर्घ अर्थात् यु को चहानेवाला "आयुर्वेदीर्घम् " (तां० १३।११।१२) “तमु आकांक्षायाम्" (दिवादि०) ततो-असुन् प्रत्यय:-औणादिकः देवता-विष्णुः (व्यापक परमात्मा)
मराठी (1)
भावार्थ
कोणताही पदार्थ ईश्वर व सृष्टीच्या नियमाचे उल्लंघन करू शकत नाही, जो धार्मिक लोकांना मित्राप्रमाणे आनंद देणारा, दुष्टांना सिंहाप्रमाणे भयभीत करविणारा न्याय इत्यादी गुणांना धारण करणारा परमेश्वर आहे, तोच सर्वांचा अधिष्ठाता, न्यायाधीश आहे हे जाणले पाहिजे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That Vishnu who is sung and celebrated by virtue of his might, is the lord who pervades the universe everywhere just as the awful lion, lord of the mountain cave, majestically moves around over the tortuous paths of the forest. In the vast three-fold acts of his mighty creation, i.e., the acts of projection, sustenance and withdrawal, reside the entire worlds of existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The mightiness of God is highlighted
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The Vishnu (Omnipresent God) is glorified on account of His Mightiness For the wicked, He is like a terrible lion that ranges in the difficult terrains and whose lair is on the mountain-tops. It is He in Whose three-dimensions creation, all the planets find their dwelling place.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is simile (Upama = resemblance ) used in the Mantra. No object in the world can transgress the laws of nature ordained by God. All must know, that God is giver of joy to the righteous persons like friend, while He is terrible to the wicked like a fierce lion. God is just the Lord and ordainer of the world and Dispensers of Justice.
Foot Notes
(विक्रमणेषु ) विविधेषु सृष्टिक्रमेषु = In the various movements of the Universe. (अघिक्षियन्ति) आधाररूपेण तिष्ठन्ति = Dwell as supported by God.
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