ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 154/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विष्णुः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र विष्ण॑वे शू॒षमे॑तु॒ मन्म॑ गिरि॒क्षित॑ उरुगा॒याय॒ वृष्णे॑। य इ॒दं दी॒र्घं प्रय॑तं स॒धस्थ॒मेको॑ विम॒मे त्रि॒भिरित्प॒देभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । विष्ण॑वे । शू॒षम् । ए॒तु॒ । मन्म॑ । गि॒रि॒ऽक्षिते॑ । उ॒रु॒ऽगा॒याय॑ । वृष्णे॑ । यः । इ॒दम् । दी॒र्घम् । प्रऽय॑तम् । स॒धऽस्थ॑म् । एकः॑ । वि॒ऽम॒मे । त्रि॒ऽभिः । इत् । प॒देऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित उरुगायाय वृष्णे। य इदं दीर्घं प्रयतं सधस्थमेको विममे त्रिभिरित्पदेभि: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। विष्णवे। शूषम्। एतु। मन्म। गिरिऽक्षिते। उरुऽगायाय। वृष्णे। यः। इदम्। दीर्घम्। प्रऽयतम्। सधऽस्थम्। एकः। विऽममे। त्रिऽभिः। इत्। पदेऽभिः ॥ १.१५४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 154; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या य एक इत् त्रिभिः पदेभिरिदं दीर्घं प्रयतं सधस्थं प्रविममे तस्मै वृष्णे गिरिक्षित उरुगायाय विष्णवे मन्म शूषमेतु ॥ ३ ॥
पदार्थः
(प्र) (विष्णवे) व्यापकाय (शूषम्) बलम् (एतु) प्राप्नोतु (मन्म) विज्ञानम् (गिरिक्षिते) गिरयो मेघा शैला वा क्षिता व्युष्टा यस्मिँस्तस्मै (उरुगायाय) बहुभिः प्रशंसिताय (वृष्णे) अनन्तवीर्याय (यः) (इदम्) (दीर्घम्) बृहत् (प्रयतम्) प्रयत्नसाध्यम् (सधस्थम्) तत्त्वावयवैः सह स्थानम् (एकः) असहायोऽद्वितीयः (विममे) विशेषेण रचयति (त्रिभिः) स्थूलसूक्ष्मातिसूक्ष्मैरवयवैः (इत्) एव (पदेभिः) ज्ञातुमर्हैः ॥ ३ ॥
भावार्थः
न खलु कश्चिदप्यनन्तबलं जगदीश्वरमन्तरेदं विचित्रं जगत्स्रष्टुं धर्त्तुं प्रलाययितुं च शक्नोति तस्मादेतं विहायान्यस्योपासनं केनचिदपि नैव कार्य्यम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (एकः) एक (इत्) ही परमात्मा (त्रिभिः) तीन अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म (पदेभिः) जानने योग्य अंशों से (इदम्) इस (दीर्घम्) बढ़े हुए (प्रयतम्) उत्तम यत्नसाध्य (सधस्थम्) सिद्धान्तावयवों से एक साथ के स्थान को (प्रविममे) विशेषता से रचता है उस (वृष्णे) अनन्त पराक्रमी (गिरिक्षिते) मेघ वा पर्वतों को अपने अपने में स्थिर रखनेवाले (उरुगायाय) बहुत प्राणियों से वा बहुत प्रकारों से प्रशंसित (विष्णवे) व्यापक परमात्मा के लिये (मन्म) विज्ञान (शूषम्) और बल (एतु) प्राप्त होवे ॥ ३ ॥
भावार्थ
कोई भी अनन्त पराक्रमी जगदीश्वर के विना इस विचित्र जगत् के रचने, धारण करने और प्रलय करने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे इसको छोड़ और की उपासना किसी को न करनी चाहिये ॥ ३ ॥
विषय
गिरिक्षित् विष्णु
पदार्थ
१. (विष्णवे) = उस सर्वव्यापक प्रभु के लिए (शूषम्) = सब शत्रुओं का शोषण करनेवाला (मन्म) = मननीय स्तोत्र (प्र एतु) = प्रकर्षेण प्राप्त हो । जब हम प्रभु का स्तवन करते हैं तब उस स्तवन का परिणाम हमारे जीवनों में यह होता है कि काम-क्रोधादि शत्रु नष्ट हो जाते हैं । २. उस विष्णु के लिए मेरा स्तोत्र हो जो गिरिक्षिते वेदवाणी में निवास करनेवाले हैं, वेदवाणी से जिनका प्रकाश प्राप्त होता है, उरुगायाय- वे प्रभु खूब ही गायन के योग्य हैं और वृष्णे- सुखों का वर्षण करनेवाले व शक्तिशाली हैं। ३. विष्णु वे हैं यः = जो एकः = अद्वितीय अकेले ही इदम्-इस दीर्घम् = विशाल प्रयतम् = (प्रकर्षेण यतम्) पूर्णरूप से नियन्त्रित सधस्थम् - सब लोकों के एकत्र स्थित होने के स्थान अन्तरिक्ष को त्रिभिः इत् पदेभिः = उत्पत्ति, स्थिति व प्रलयात्मक कर्मों से विममे विशेषरूप से निर्माण करते हैं। इस विशाल अन्तरिक्ष को प्रभु ने सब लोकों का आधार बनाया है। इसका वे धारण कर रहे हैं और अन्त में इसका वे अपने में लय कर लेंगे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का स्तवन वासनाओं का शोषण करता है। वेदवाणियों द्वारा प्रभु का है। स्तवन होता है।
विषय
अद्वितीय परमेश्वर जगत् कर्त्ता।
भावार्थ
( यः ) जो परमेश्वर ( त्रिभिः इत् ) तीन ही ( पदेभिः ) ज्ञान करने योग्य मूल गुणरूप तत्वों से या पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौः तीन स्थानों से ही ( इदं ) इस ( दीर्घं ) बड़े भारी, लम्बे चौड़े ( प्रयतम् ) उत्तम यत्न द्वारा बनने वाले, एवं उत्तम कोटि के नियम में सुव्यवस्थित, ( सधस्थम् ) एक ही स्थान, महान् आकाश में स्थित जगत् को ( एकः ) अकेला, अद्वितीय होकर ( विममे ) बनाता है, उसे विशेष रूप से व्यापता है, उस ( विष्णवे ) सर्व व्यापक ( वृष्णे ) अनन्त बलशाली, सबको व्यवस्था में बांधने और थामने वाले (गिरिक्षिते) मेघ, शैल आदि के एक आश्रय अथवा मेघ के समान सबको सुख जल से वर्षण करने वाले, आनन्दधन और पर्वत के समान सर्वोच्च पद पर विराजने वाले और (गिरिक्षिते) वेद आदि वाणियों में ज्ञानरूप से विराजने वाले ( उरु गायाय ) महान् स्तुति युक्त, परमेश्वर का ( मन्म ) मनन करने योग्य ज्ञानमय स्वरूप और ( शूषम् ) महान् बल ( प्र एतु ) उत्तम रूप से हमें प्राप्त हो । उसी का ज्ञान और बल सर्वोच्च है। वह हमें प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- १, २ विराट् त्रिष्टुप । ३, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(गिरिक्षिते) उद्गीर्ण-व्यक्त जगत् में बसे हुए (उरुगायाय) बहुत प्रकार से गाने प्रशांसित करने योग्य | (विष्णवे) अनन्त चीर्यवान् वृषमरूप व्यापक परमात्मा के लिए (शुषं मन्म प्रपतु) बल-जगत् का रचनबल “शुषं बलनाम" (निघ० २१।९) तथा मन्म-सबको मनाने योग्य ज्ञान सर्व जड जङ्गम का ज्ञान प्राप्त हे "वर्तमानकालेऽत्र लोट" क्योंकि (यः-एकः) जो एक अकेला (इदं दीर्घ प्रयतं सधस्थम्) इस विस्तृत प्रयत्न साध्य तथा प्रकृष्टरूप से व्यवस्थित नियन्त्रित शृंखलित सहस्थान सम्मिश्रित जगत् को (त्रिभिः पदेभिः-इत्-विममे) तीन पदों अपने जागृत स्वप्न सुषुप्त नामक स्वरूपो से जो कि स्थूल सूक्ष्म अव्यक्त वर्तमान शक्ति पादों से ही विविध रूप से निर्माण करता है सम्भालता है ॥३॥
विशेष
ऋषिः- दीर्घतमाः दीर्घकाल से अज्ञानान्धकारयुक्त या दीर्घ अर्थात् यु को चहानेवाला "आयुर्वेदीर्घम् " (तां० १३।११।१२) “तमु आकांक्षायाम्" (दिवादि०) ततो-असुन् प्रत्यय:-औणादिकः देवता-विष्णुः (व्यापक परमात्मा)
मराठी (1)
भावार्थ
अनन्त पराक्रमी जगदीश्वराशिवाय कुणीही या विचित्र जगाची रचना, धारणा व प्रलय करण्यास समर्थ बनू शकत नाही, त्यामुळे त्याला सोडून इतराची उपासना कुणीही करू नये. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May this powerful song of celebration reach Vishnu, celebrated lord, great and generous, who holds in balance the heights of the universe of space and time and creates it just in three steps of sattva, rajas and tamas, i.e., mind, motion and matter, or the three regions of earth, sky and the heaven of light.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the glory of Vishnu the Mantra reads.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Let our strength and our knowledge be dedicated to Vishnu (the all-pervading God). He is glorified by many sages and seers. That Almighty, dwells on the mountains, clouds and all other objects everywhere. He all alone has created vast cumbersome and limitless Universe with the particles of three kinds-gross, subtle and very subtle. All should know and understand that distinction.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
None except the Omnipotent Lord can create, sustain and dissolve this world. Therefore none should worship anyone also, except him.
Foot Notes
( मन्म) विज्ञानम् = Knowledge. (गिरिक्षिते) गिरयो मेधाः शैला वाक्षितः कुष्टा यस्मिस्तस्मै = Pervading or dwelling in the clouds and mountains etc. ( प्रयतम् ) प्रयत्नसाध्यम् = Laborious, requiring great effort. (त्रिभिः) स्थूलसूक्ष्मातिसूक्ष्म अवयवैः = From gross, subtle and very subtle particles. ( पदेभिः) जातुमर्हे: = Worthy of being known.
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