ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 154/ मन्त्र 4
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विष्णुः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यस्य॒ त्री पू॒र्णा मधु॑ना प॒दान्यक्षी॑यमाणा स्व॒धया॒ मद॑न्ति। य उ॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वीमु॒त द्यामेको॑ दा॒धार॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । त्री । पू॒र्णा । मधु॑ना । प॒दानि॑ । अक्षी॑यमाणा । स्व॒धया॑ । मद॑न्ति । यः । ऊँ॒ इति॑ । त्रि॒ऽधातु॑ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । एकः॑ । दा॒धार॑ । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमाणा स्वधया मदन्ति। य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। त्री। पूर्णा। मधुना। पदानि। अक्षीयमाणा। स्वधया। मदन्ति। यः। ऊँ इति। त्रिऽधातु। पृथिवीम्। उत। द्याम्। एकः। दाधार। भुवनानि। विश्वा ॥ १.१५४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 154; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यस्य रचनायां मधुना पूर्णाऽक्षीयमाणा त्री पदानि स्वधया मदन्ति य एक उ पृथिवीमुत द्यां त्रिधातु विश्वा भुवनानि दाधार स एव परमात्मा सर्वैर्वेदितव्यः ॥ ४ ॥
पदार्थः
(यस्य) जगदीश्वरस्य मध्ये (त्री) त्रीणि (पूर्णा) पूर्णानि (मधुना) मधुराद्येन गुणेन (पदानि) प्राप्तुमर्हाणि (अक्षीयमाणा) क्षयरहितानि (स्वधया) स्वस्वरूपधारणया क्रियया (मदन्ति) (यः) (उ) (त्रिधातु) त्रयः सत्वरजस्तमआदिधातवो येषु तानि (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) अपि (द्याम्) सूर्य्यम् (एकः) अद्वैतः (दाधार) धरति पोषयति वा (भुवनानि) (विश्वा) सर्वाणि ॥ ४ ॥
भावार्थः
योऽनादिकारणात् सूर्यादिप्रकाशवत् क्षितीरुत्पाद्य सर्वैर्भोग्यैः पदार्थैः सह संयोज्याऽऽनन्दयति तद्गुणकर्मोपासनेनानन्दो हि सर्वैर्वर्द्धनीयः ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यस्य) जिस ईश्वर के बीच (मधुना) मधुरादि गुण से (पूर्णा) पूर्ण (अक्षीयमाणा) विनाशरहित (त्री) तीन (पदानि) प्राप्त होने योग्य पद अर्थात् लोक (स्वधया) अपने-अपने रूप के धारण करने रूप क्रिया से (मदन्ति) आनन्द को प्राप्त होते हैं (यः) और जो (एकः) (उ) एक अर्थात् अद्वैत परमात्मा (पृथिवीम्) पृथिवीमण्डल (उत) और (द्याम्) सूर्यमण्डल तथा (त्रिधातु) जिनमें सत्त्व, रजस्, तमस् ये तीनों धातु विद्यमान उन (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक-लोकान्तरों को (दाधार) धारण करता है, वही परमात्मा सबको मानने योग्य है ॥ ४ ॥
भावार्थ
जो अनादि कारण से सूर्य आदि के तुल्य प्रकाशमान पृथिवियों को उत्पन्न कर समस्त भोग्य पदार्थों के साथ उनका संयोग करा सबको आनन्दित करता है, उसके गुण कर्म की उपासना से आनन्द ही सबको बढ़ाना चाहिये ॥ ४ ॥
विषय
तीन मधुर चरण
पदार्थ
१. (यस्य) = जिस प्रभु के (त्री) = तीनों (पदानि) = चरण (मधुना पूर्णा) = मधु से पूर्ण हैं । प्रभु के उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय सभी कर्म माधुर्यवाले हैं। प्रलय भी रात्रि की भाँति (विश्रान्ति) = का कारण होती हुई मधुर ही है। ये उत्पत्ति आदि तीनों ही कार्य (अक्षीयमाणा) = कभी नष्ट न होते हुए (स्वधया) = आत्मधारण-शक्ति से (मदन्ति) = [मादयन्ति] सब लोकों को आनन्दित करते हैं। प्रभु की सब क्रियाएँ जीवहित के लिए हैं। इन क्रियाओं को हम समझें और इन उत्पन्न वस्तुओं का ठीक प्रयोग करें तो आनन्द - ही - आनन्द है । २. प्रभु वे हैं यः = जो उ निश्चय से एकः = अकेले ही (पृथिवीम्) = पृथिवी को (उत =) और (द्याम्) = द्युलोक को (विश्वा भुवनानि) = इसमें स्थित सब लोकों को (त्रिधातु) = [त्रयाणां धातूनां समाहारेण यथा स्यात्तथा] सत्त्व, रजस्, तमस् रूप तीनों धातुओं के द्वारा (दाधार) = धारण कर रहे हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के तीनों चरण माधुर्य से पूर्ण हैं। उत्पत्ति, स्थिति व प्रलयरूप तीनों कार्य जीव के जीवन को मधुर बनाने के लिए हैं ।
विषय
विष्णु के तीन पद। उसके प्रियपद की आकांक्षा।
भावार्थ
( यस्य ) जिस परमेश्वर के ( त्री पदानि ) तीनों प्राप्त करने या ज्ञान किये जाने योग्य, जगत्सञ्चालक बल तीनों उक्त गुण या स्वरूप ( मधुना ) मधुर, आनन्ददायक, तृप्तिकारक गुण से ( पूर्णा ) पूर्ण हैं । और वे तीनों ( अक्षीयमाणा ) कभी भी नाश को न प्राप्त होते हुए ( स्वधया ) अन्न के समान देह और आत्मा या जीवन सर्ग को धारण करने वाली क्रिया से ( मदन्ति ) सब प्राणियों को तृप्त और आनन्दित करते हैं और ( यः ) जो परमेश्वर ( पृथिवीम् उत द्याम् ) पृथिवी और सूर्य, तेजस्वी और तेजोरहित पदार्थों को और ( त्रिधातु ) तीनों धारण करने वाले सत्व, रजस्, तमस् इन गुणों से बने समस्त संसार को धारण करता है वह ही ( विश्वा भुवनानि ) समस्त उत्पन्न होने वाले लोकों को ( एकः ) अकेला, बिना अन्य किसी के सहायता से स्वयं ( दाधार ) धारण करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- १, २ विराट् त्रिष्टुप । ३, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(यस्य त्री पदानि मधुना पूर्णा-अक्षीयमाणा) जिस विष्णुव्यापक परमात्मा के तीन पद मधु से प्राण स्वरूप रस से पूर्ण "प्राणो वै मधु" (शत० १४|१|३|३०) अक्षीयमाण हैं (स्वधया मदन्ति) अन्न रस दीप्ति से जड जङ्गम को आनन्दित करते हैं- जीवन देते हैं (यः-उ-एकः-त्रिधातु) जो ही अकेला परमात्मा तीन धातुओं को सत्व, रज, तम गुण विशिष्ट उपादान अव्यक्त प्रकृति को (पृथिवीम् उत द्यां विश्वा भुवनानि दाधार) एवं उस अभ्यक्त के कार्यरूप पृथिवी और द्युलोक सब लोक लोकान्तर को धारण करता है ॥४॥
विशेष
ऋषिः- दीर्घतमाः दीर्घकाल से अज्ञानान्धकारयुक्त या दीर्घ अर्थात् यु को चहानेवाला "आयुर्वेदीर्घम् " (तां० १३।११।१२) “तमु आकांक्षायाम्" (दिवादि०) ततो-असुन् प्रत्यय:-औणादिकः देवता-विष्णुः (व्यापक परमात्मा)
मराठी (1)
भावार्थ
जो अनादि कारणांपासून प्रकाशमान सूर्य, पृथ्वीला उत्पन्न करून संपूर्ण भोग्य पदार्थांबरोबर संयोग करून आनंदित करतो त्याच्या गुण, कर्म, उपासनेने सर्वांचा आनंद वाढविला पाहिजे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The threefold worlds of his, earth, heaven and the middle regions, full and perfect in their own ways and character, honey sweet and undecaying, rejoice in the lord’s presence with their inmates by their innate power of sustenance. He, the sole lord, by himself, holds the entire worlds of existence including heaven and earth created of the three modes of Prakrti, sattva, rajas and tamas.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
We should worship Him, the erator.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man ! that Vishnu (All-pervading God) is to be known by all. His three worthwhile attributes are full of unperishable gross sweetness. He is highly ecstatic because of ecstasy by the self-harmony of their nature. Yes, He being One, holds the earth which contains triple constituents of Satva, Raja and Tamas, earth and heaven, and even all the worlds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All should acquire more bliss by the contemplation of the attributes and actions of that God Vishnu. He creates the earth and other planets from the material cause-Prakriti (Primor dial Matter) and makes all happy by uniting them with all the nice things.
Foot Notes
( पदानि ) प्राप्तुमर्हाणि = Worthy of attainment. ( त्निधातु ) वय: सत्वरजस्तमादयो धातवो येषु तानि = Consisting of सत्व ( Knowledge) रज (Activity or passion) and तमः (Inertia).
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