ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 157/ मन्त्र 6
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒वं ह॑ स्थो भि॒षजा॑ भेष॒जेभि॒रथो॑ ह स्थो र॒थ्या॒३॒॑ राथ्ये॑भिः। अथो॑ ह क्ष॒त्रमधि॑ धत्थ उग्रा॒ यो वां॑ ह॒विष्मा॒न्मन॑सा द॒दाश॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । ह॒ । स्थः॒ । भि॒षजा॑ । भे॒ष॒जेभिः॑ । अथो॒ इति॑ । ह॒ । स्थः॒ । र॒थ्या॑ । रथ्ये॑भि॒रिति॒ रथ्ये॑भिः । अथो॒ इति॑ । ह॒ । क्ष॒त्रम् । अधि॑ । ध॒त्थ॒ । उ॒ग्रा॒ । यः । वा॒म् । ह॒विष्मा॑न् । मन॑सा । द॒दाश॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं ह स्थो भिषजा भेषजेभिरथो ह स्थो रथ्या३ राथ्येभिः। अथो ह क्षत्रमधि धत्थ उग्रा यो वां हविष्मान्मनसा ददाश ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। ह। स्थः। भिषजा। भेषजेभिः। अथो इति। ह। स्थः। रथ्या। रथ्येभिरिति रथ्येभिः। अथो इति। ह। क्षत्रम्। अधि। धत्थ। उग्रा। यः। वाम्। हविष्मान्। मनसा। ददाश ॥ १.१५७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 157; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अश्विनौ युवं ह भेषजेभिर्भिषजा स्थः। अथो ह राथ्येभी रथ्या स्थः। अथो हे उग्रा यो हविष्मान् वां मनसा ददाश तस्मै ह क्षत्रमधि धत्थः ॥ ६ ॥
पदार्थः
(युवम्) युवाम् (ह) प्रसिद्धम् (स्थः) (भिषजा) रोगनिवारकौ (भेषजेभिः) रोगापहन्तृभिर्वैद्यैः सह (अथो) अनन्तरम् (ह) खलु (स्थः) भवथः (रथ्या) रथे साधू (राथ्येभिः) रथवाहकैः सह। अत्रान्येषामपि दृश्यत इत्याद्यचो दीर्घः। (अथो) (ह) (क्षत्रम्) राष्ट्रम् (अधि) (धत्थः) (उग्रा) उग्रौ तीव्रस्वभावौ (यः) (वाम्) युष्मभ्यम् (हविष्मान्) बहुदानयुक्तः (मनसा) विज्ञानेन (ददाश) दाशति ॥ ६ ॥
भावार्थः
यदा मनुष्या विदुषां वैद्यानां सङ्गं कुर्वन्ति तदा वैद्यकविद्यामाप्नुवन्ति यदा शूरा दातारो जायन्ते तदा राज्यं धृत्वा प्रशंसिता भूत्वा सततं सुखिनो भवन्तीति ॥ ६ ॥ अस्मिन् सूक्तेऽश्विगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोध्या ॥ इति सप्तपञ्चाशदुत्तरं शततमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥।अस्मिन्नध्याये सोमादिपदार्थप्रतिपादनादेतद्दशमाध्यायोक्तार्थानां नवमाध्यायोक्तार्थैः सह सङ्गतिर्वेदितव्या ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्यादि सद्गुणों में व्याप्त सज्जनो ! (युवं, ह) तुम्हीं (भेषजेभिः) रोग दूर करनेवाले वैद्यों के साथ (भिषजा) रोग दूर करनेवाले (स्थः) हो, (अथो) इसके अनन्तर (ह) निश्चय से (राथ्येभिः) रथ पहुँचानेवाले अश्वादिकों के साथ (रथ्या) रथ में प्रवीण रथवाले (स्थः) हो, (अथो) इसके अनन्तर हे (उग्रा) तीव्र स्वभाववाले सज्जनो ! (यः) जो (हविष्मान्) बहुदानयुक्त जन (वाम्) तुम दोनों के लिये (मनसा) विज्ञान से (ददाश) देता है अर्थात् पदार्थों का अर्पण करता है (ह) उसी के लिये (क्षत्रम्) राज्य को (अधि, धत्थः) अधिकता से धारण करते हो ॥ ६ ॥
भावार्थ
जब मनुष्य विद्वान् वैद्यों का सङ्ग करते हैं तब वैद्यक विद्या को प्राप्त होते हैं। जब शूर दाता होते हैं तब राज्य धारण कर और प्रशंसित होकर निरन्तर सुखी होते हैं ॥ ६ ॥।इस सूक्त में अश्वियों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ सत्तावनवाँ सूक्त और सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥इस अध्याय में सोम आदि पदार्थों के प्रतिपादन से इस दशवें अध्याय के अर्थों की नवम अध्याय में कहे हुए अर्थों के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
उत्कृष्ट वैद्य
पदार्थ
१. हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (ह) = निश्चय से (भेषजेभिः) = ओषधियों से (भिषजः स्थः) = रोगों की चिकित्सा करनेवाले हो । प्राणापान शरीर में वीर्यरक्षण के द्वारा सब रोगों को नष्ट करनेवाले हैं। प्राणसाधना से शरीर के मलों का ही नहीं, मन के मलों का भी नाश होता है । २. (अथो) = और (राथ्येभिः) = शरीररूप रथ के लिए उत्तम इन्द्रियाश्वों से आप (ह) = निश्चयपूर्वक (रथ्या स्थः) = = उत्तम रथवाले हो । प्राणसाधना से सब इन्द्रियों के दोष भी दग्ध हो जाते हैं और ये इन्द्रियाश्व शरीररूप रथ को उत्तमता से आगे ले-चलते हैं । ३. (अथो) = और ह निश्चय से हे (उग्रा) = तेजस्वी प्राणापानो ! (यः) = जो (हविष्मान्) = त्यागपूर्वक अदन करनेवाला, मिताहारी (मनसा) = मन से (वां ददाश) = आपके प्रति अपने को दे डालता है, उसमें आप (क्षत्रम्) = बल को (अधिधत्थ:) = खूब धारण करते हो । जब एक व्यक्ति युक्ताहारवाला बनकर प्राणसाधना में दिल से प्रवृत्त होता है तब उसका बल निरन्तर बढ़ता चलता है ।
भावार्थ
भावार्थ – प्राणसाधना से नीरोगता प्राप्त होती है । इन्द्रियाँ निर्मल व सबल बनती हैं। उत्कृष्ट बल की प्राप्ति होती है। प्राणापान ही सर्वमहान् वैद्य हैं ।
विषय
स्त्री पुरुषों के गृहस्थसम्बन्धी कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अश्विना) विद्वान् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (भेषजेभिः ) रोगनाशक वैद्यों और औषधियों से ( भिषजा ) रोग निवारण करने वाले ( स्थः ह ) होकर रहो और रोग निवारण किया करो। आप दोनों ( राथ्येभिः ) रथ के योग्य उत्तम अश्वों और अन्यान्य ऊँट, बैल आदि पशुओं से ( रथ्या ) रथ संचालन के कार्य में कुशल होकर ( स्थः ) रहो । और ( वां ) तुम दोनों में से ( यः ) जो ( हविष्मान् ) अन्न और ऐश्वर्य आदि ग्रहण करने योग्य उत्तम पदार्थों से सम्पन्न होकर ( मन सा ) चित्त से, प्रेम से और ज्ञान ( ददाश ) प्रदान करता है उसको आप दोनों ( उग्रा ) तीव्र स्वभाव के अपमान और अधर्म को न सहने वाले होकर ( क्षत्रम् अधि ) क्षात्र बल और राष्ट्र के भी ऊपर ( धत्थः ) अध्यक्ष रूप से स्थापन करो । इति सप्तविंशो वर्गः । इति द्वितीयोऽध्यायः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमाः ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ जगती। ३ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा माणसे विद्वान वैद्यांचा संग करतात तेव्हा वैद्यक विद्या प्राप्त होते. जेव्हा शूर दाते असतात तेव्हा ते राज्य धारण करून प्रशंसित होतात व निरन्तर सुखी होतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, harbingers of light and life, teachers, scholars and healers of the nation of humanity, be the physicians for us all with curatives, tonics and sanatives, be leaders and drivers with superfast chariots and energies. Lords of blazing power, keep the social order of defence bright and high for the ruler who, with all his wealth and powers of yajnic action, offers you homage sincerely with his heart and soul.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the praise of Ashvinau.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned distinguished physicians and medical men! you wipe off all diseases and always keep company of the Vaidyas (doctors). They like you eradicate the diseases and are conversant with all medicaments. You ride in various comfortable vehicles. You are powerful and others join you. Those associates are liberal and give you the necessary knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Foot Notes
(भिषजा ) रोग निवारकौ = Destroyers of diseases. (भेषजेभिः) रोगापहन्तृभिः वैद्यैः = With other physicians who are also destroyers of diseases. (क्षत्रम्) राष्ट्रम्= State or Kingdom. ( हविष्मान् ) बहुदानयुक्तः Very liberal in giving much donation.
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