ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 158/ मन्त्र 2
को वां॑ दाशत्सुम॒तये॑ चिद॒स्यै वसू॒ यद्धेथे॒ नम॑सा प॒दे गोः। जि॒गृ॒तम॒स्मे रे॒वती॒: पुरं॑धीः काम॒प्रेणे॑व॒ मन॑सा॒ चर॑न्ता ॥
स्वर सहित पद पाठकः । वा॒म् । दा॒श॒त् । सु॒ऽम॒तये॑ । चि॒त् । अ॒स्यै । वसू॒ इति॑ । यत् । धेथे॒ इति॑ । नम॑सा । प॒दे । गोः । जि॒गृ॒तम् । अ॒स्मे इति॑ । रे॒वतीः॑ । पुर॑म्ऽधीः । का॒म॒ऽप्रेण॑ऽइव । मन॑सा । चर॑न्ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
को वां दाशत्सुमतये चिदस्यै वसू यद्धेथे नमसा पदे गोः। जिगृतमस्मे रेवती: पुरंधीः कामप्रेणेव मनसा चरन्ता ॥
स्वर रहित पद पाठकः। वाम्। दाशत्। सुऽमतये। चित्। अस्यै। वसू इति। यत्। धेथे इति। नमसा। पदे। गोः। जिगृतम्। अस्मे इति। रेवतीः। पुरम्ऽधीः। कामऽप्रेणऽइव। मनसा। चरन्ता ॥ १.१५८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 158; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यद्यौ वसू युवामस्यै सुमतये नमसा गोः पदे पुरन्धीरेवतीर्धेथे कामप्रेणेव मनसा चरन्ताऽस्मे जिगृतं ताभ्यां वामिमां मतिं चित्को दाशत् ॥ २ ॥
पदार्थः
(कः) (वाम्) युवाभ्याम् (दाशत्) दद्यात् (सुमतये) सुष्ठुप्रज्ञायै (चित्) अपि (अस्यै) प्रत्यक्षायै (वसू) सुखेषु वासयितारौ (यत्) यौ (धेथे) धरथः (नमसा) अन्नाद्येन (पदे) प्राप्तव्ये (गोः) पृथिव्याः (जिगृतम्) जागृतौ भवतम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (रेवतीः) प्रशस्तश्रीयुक्ता (पुरन्धीः) पुरन्दधति यास्ताः (कामप्रेणेव) यत्कामं प्राति पिपर्त्ति तेनेव (मनसा) विज्ञानवताऽन्तःकरणेन (चरन्ता) प्राप्नुवन्तौ गच्छन्तौ वा ॥ २ ॥
भावार्थः
ये पूर्णविद्याकामा मनुष्यान् सुधियः कर्त्तुं प्रयतन्ते ते पृथिव्यां पूजिता भवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जो (वसू) सुखों में निवास करानेहारे सभाशालाधीशो तुम (अस्यै) प्रत्यक्ष (सुमतये) सुन्दर बुद्धि के लिये (नमसा) अन्न आदि से (गोः) पृथिवी के (पदे) प्राप्त होने योग्य स्थान में (पुरन्धीः) पुरग्राम को धारण करती हुई (रेवतीः) प्रशंसित धनयुक्त नगरियों को (धेथे) धारण करते हो और (कामप्रेणेव) कामना पूरण करनेवाले (मनसा) विज्ञानवान् अन्तःकरण से (चरन्ता) प्राप्त होते हुए तुम दोनों (अस्मे) हम लोगों के लिये (जिगृतम्) जागृत हो उन (वाम्) आपके लिये इस मति को (चित्) भी (कः) कौन (दाशत्) देवे ॥ २ ॥
भावार्थ
जो पूर्णविद्या और कामनावाले पुरुष मनुष्यों को सुन्दर बुद्धिवाले करने को प्रयत्न करते हैं, वे पृथिवी में सत्कारयुक्त होते हैं ॥ २ ॥
विषय
सुमति- पुरन्धी
पदार्थ
१. (कः) = वह व्यक्ति सचमुच आनन्दमय होता है जो कि (अस्यै) = इस (सुमतये चित्) = सुमति के लिए (वां दाशत्) = हे प्राणापानो! आपके प्रति अपना अर्पण करता है। प्राणसाधना से बुद्धि- तीव्र होती है। जो भी व्यक्ति इस प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है, वह तीव्रबुद्धि बनकर जीवन के वास्तविक आनन्द को अनुभव करता है। यह व्यक्ति इसलिए आपके प्रति अपना अर्पण करता है (यत्) = कि (वसू) = निवास को उत्तम बनानेवाले आप (नमसा) = नमन के साथ (गोः पदे) = ज्ञान की वाणियों के स्थान में (धेथे) = इसका धारण करते हो । जो भी प्राणसाधक बनता है [क] उसका शरीर में निवास उत्तम होता है, अर्थात् वह नीरोग होता है, [ख] उसके हृदय में नम्रता का भाव होता है, [ग] वह मस्तिष्क में ज्ञान की वाणियों को धारण करता है। २. हे प्राणापानो ! (कामप्रेण इव मनसा चरन्ता) = हमारी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले मन से ही मानो गति करते हुए आप (अस्मे) = हमारे लिए (रेवती:) = ऐश्वर्यों से सम्पन्न (पुरन्धीः) = पालक बुद्धियों को (जिगृतम्) = [दत्तम् – सा०] दीजिए। प्राणापान मानो हमारी सब कामनाओं को पूर्ण करते हैं। ये हमें पालन और पूरण करनेवाली बुद्धि को प्राप्त कराएँ। इस बुद्धि से हम सब अभीष्टों को सिद्ध कर पाएँगे ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान की साधना से सुमति प्राप्त होती है। हम पुरन्धी को प्राप्त करके ऐश्वर्यसम्पन्न बनते हैं।
विषय
उत्तम गृहस्थ स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
राजा रानी पुरुषो ! आप दोनों ( कामप्रेण इव ) एक दूसरे के मन की अभिलाषा को पूर्ण करने वाले ( मनसा ) मन से ( चरन्ता ) परस्पर आचरण करते हुए ( यत् ) जब ( गोः पदे ) पृथिवी के ऊपर रहने के स्थान में ( नमसा ) परस्पर आदर पूर्वक या अन्न द्वारा ( रेवतीः ) ऐश्वर्य से सम्पन्न ( पुरन्धीः ) नगरवासिनी प्रजाओं को पुष्ट करो तब ( वसू ) प्रजाओं के बीच उनको बसाने वाले उनके प्राणों के समान होकर तुम दोनों ( अस्मे ) हमारे हित के लिये ( जिगृतम् ) जागते रहो, सदा सावधान होकर रहो । ( अस्यै चित् सुमतये ) इस शुभ मति के लिये ( वां ) तुमको ( कः ) कौन ( दाशत् ) ज्ञान प्रदान करे । अथवा ( कः ) प्रजापति परमेश्वर ही उत्तम मति का उपदेश करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पङ्क्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे पूर्णविद्या व कामनायुक्त पुरुष माणसांना सुबुद्ध करण्याचा प्रयत्न करतात त्यांचा पृथ्वीवर सत्कार होतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, lords of light and leadership, shelter, support and protection for all, ever on the move with a mind keen to fulfil the desire and ambition of all, who hold and rule the human habitations in villages, towns and rich cities with food and power on the face of the earth and relentlessly keep awake, vigilant for us all and for our protection. Who can give, and what, in appreciation and return for this love and generosity of your mind and consideration for us — what except thanks and gratitude in homage?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Here, the teacher-preacher combine is addressed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! who is it that gives this wisdom to you? We uphold this earth endowed with much wealth of various kinds and which preserves the cities. It is you and you only who make us enjoy happiness and go about everywhere with intelligent mind. Such people accomplish noble desires with mundane material for creating good intellect. Always entertain our favorable intentions and thus we ever wakeful, would discharge your duties.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
On this earth, wise and knowledgeable peoples who try to make all people noble and wise, are revered everywhere.
Foot Notes
(वसू) सुखेषु वासयितारौ = Enabling to dwell in happiness. ( दाशत् ) दद्यात् = May give. ( नमसा ) अन्नाद्येन - With food material and other things.
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