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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 158 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 158/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यु॒क्तो ह॒ यद्वां॑ तौ॒ग्र्याय॑ पे॒रुर्वि मध्ये॒ अर्ण॑सो॒ धायि॑ प॒ज्रः। उप॑ वा॒मव॑: शर॒णं ग॑मेयं॒ शूरो॒ नाज्म॑ प॒तय॑द्भि॒रेवै॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒क्तः । ह॒ । यत् । वा॒म् । तौ॒ग्र्याय॑ । पे॒रुः । वि । मध्ये॑ । अर्ण॑सः । धायि॑ । प॒ज्रः । उप॑ । वा॒म् । अवः॑ । श॒र॒णम् । ग॒मे॒य॒म् । शूरः॑ । न । अज्म॑ । प॒तय॑त्ऽभिः । एवैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युक्तो ह यद्वां तौग्र्याय पेरुर्वि मध्ये अर्णसो धायि पज्रः। उप वामव: शरणं गमेयं शूरो नाज्म पतयद्भिरेवै: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युक्तः। ह। यत्। वाम्। तौग्र्याय। पेरुः। वि। मध्ये। अर्णसः। धायि। पज्रः। उप। वाम्। अवः। शरणम्। गमेयम्। शूरः। न। अज्म। पतयत्ऽभिः। एवैः ॥ १.१५८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 158; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सभाशालेशौ वां यद्यस्तौग्र्याय युक्तः पेरुः पज्रोऽहमर्णसो मध्ये वि धायि। अज्म शूरो न पतयद्भिरेवैः सह वामवः शरणमुपगमेयं तं मां ह युवां वर्द्धयतम् ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (युक्तः) (ह) खलु (यत्) यः (वाम्) युवयोः (तौग्र्याय) बलेषु साधवे (पेरुः) पाता (वि) (मध्ये) (अर्णसः) उदकस्य (धायि) ध्रियते (पज्रः) बलिष्ठः (उप) (वाम्) युवयोः (अवः) रक्षणादिकम् (शरणम्) आश्रयम् (गमेयम्) प्राप्नुयाम् (शूरः) विक्रान्तः (न) इव (अज्म) बलम् (पतयद्भिः) इतस्ततो धावयद्भिः (एवैः) प्रापकैः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    ये जिज्ञासवः साधनोपसाधनैः सहाध्यापकानामाप्तानां विदुषामाश्रयमुपव्रजेयुस्ते विद्वांसो जायन्ते ये च संप्रीत्या विद्या सुशिक्षा वर्द्धयन्ति तेऽत्र पूज्या भवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सभाशालाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों का (यत्) जो (तौग्र्याय) बलों में उत्तम बल उसके लिये (युक्तः) युक्त (पेरुः) सबों की पालना करनेवाला (पज्रः) बलवान् मैं (अर्णसः) जल के (मध्ये) बीच (वि, धायि) विधान किया जाता हूँ अर्थात् जल सम्बन्धी काम के लिये युक्त किया जाता हूँ तथा (अज्म) बल को (शूरः) शूर जैसे (न) वैसे (पतयद्भिः) इधर-उधर दौड़ते हुए (एवैः) पदार्थों की प्राप्ति करानेवालों के साथ (वाम्) तुम्हारे (अवः) रक्षा आदि काम को और (शरणम्) आश्रय को (उप, गमेयम्) निकट प्राप्त होऊँ, उस मुझको (ह) ही तुम वृद्धि देओ ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो जिज्ञासु पुरुष साधन और उपसाधनों से अध्यापक आप्त विद्वानों के आश्रय को प्राप्त हों, वे विद्वान् होते हैं और जो अच्छे प्रकार प्रीति के साथ विद्या और अच्छी शिक्षा को बढ़ाते हैं, वे इस संसार में पूज्य होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    विषय-समुद्र के पार

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो ! (यत्) = जब (वाम्) = आप दोनों का यह रथ (ह) = निश्चय से (युक्तः) = इन्द्रियाश्वों से युक्त होता है तब (तौग्र्याय) = ( तुज हिंसायाम्) वासनाओं का संहार करनेवाले के लिए (पेरुः) = यह पार लगानेवाला होता है। (अर्णसः मध्ये) = विषय-समुद्र के मध्य में (पत्र:) = [पाजसा तीर्ण:] बल के द्वारा तरा हुआ यह (विधायि) = स्थापित होता है। प्राणसाधना से वह शक्ति प्राप्त होती है जिससे यह विषय-समुद्र में डूबता नहीं और जीवनयात्रा को सफलता से पूर्ण कर पाता है। २. हे प्राणापानो! मैं (वाम्) = आपकी (शरणम्) = शरण को (उपगमेयम्) = समीपता से प्राप्त होता हूँ और (अवः) = रक्षण को प्राप्त होता हूँ (न) जैसे कि (शूरः) = एक शूरवीर (पतयद्भिः एवैः) = गमनशील घोड़ों के द्वारा (अज्म) = संग्राम को प्राप्त होता है। प्राणापान की साधना भी हमें अध्यात्म-संग्राम में वासनाओं पर विजय पाने के योग्य बना देती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान की साधना हमें विषय- समुद्र में नहीं डूबने देती ।

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    विषय

    उत्तम गृहस्थ स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् अध्यक्ष एवं शिल्पिजनो ! (यत्) जिस प्रकार (तौग्र्याय) शत्रुओं की हिंसा, प्रजाओं का पालन और सैन्य सञ्चालन के कार्य में कुशल पुरुष के कार्य के लिए ( वां ) आप दोनों से ( युक्तः ) संयुक्त (पेरुः) सर्व पालक, राष्ट्रपति, जल और अग्नि से युक्त महानौका के समान पार कराने वाला (पज्रः) स्वयं विद्वान् और बलवान् होकर (मध्ये अर्णसः) बीच सागर के (धायि) स्थापित किया जाता है । (शूरः न) जिस प्रकार शूरवीर सेनापति (पतयद्भिः एवैः) वेग से जाने वाले वेगवान् अश्वों सहित (अज्मन्) महासमर को जाता है उसी प्रकार मैं भी (पतयद्भिः) वेगवान् साधनों से युक्त होकर (वाम् शरणं गमेयम्) आप दोनों की शरण को प्राप्त होता हूं । अध्यात्म में—प्राण और उदान दोनों के आश्रय ‘तौग्र्य’ अर्थात् आत्मरक्षा और द्युस्थानों के साधना और कर्मलोक के लिए पालक आत्मा ‘पेरु’ है । वह ज्ञानवान् चेतन होने से ‘पज्र’ है । वह भवसागर में फंसा है । वह प्राण-उदान के शरण जाकर गमनशील प्राणों के साथ उत्क्रमण करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पङ्क्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे जिज्ञासू पुरुष साधन व उपसाधनांनी अध्यापक, आप्त विद्वानांचा आश्रय घेतात ते विद्वान होतात व जे चांगल्या प्रकारे प्रेमाने विद्या व शिक्षणाची वृद्धी करतात ते या जगात पूज्य ठरतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of light, power and protection, that stout, protective and irresistible chariot of yours propelled by flying oars stationed in the midst of the sea in full harness is ready for the valiant warrior to take us across the waters. May I, a powerful navigator in the battle of the sea, come and join the force under your protective cover?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The Ashvinau are praised.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Heads of the State and educational institutions (Gurukuls)! when I seek your protection, I am appointed in the middle of the water (i.e. in Naval force) after completing a stupendous training. I possess strength and preserve it of the people also. Please augment my power, I come to you like a victorious hero who returned home upon swiftly running steeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those seekers after truth, who approach absolutely truthful scholars and teachers with proper resources become highly learned men. Those who multiply or spread knowledge and good education with great affection, deserve respect everywhere.

    Foot Notes

    (तौग्रयाय ) बलेषु साघवे कार्याय = For a forceful work. (अज्म) बलम् = Strength. (अर्णषः) उदकस्य = Of the water.

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