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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 158 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 158/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उप॑स्तुतिरौच॒थ्यमु॑रुष्ये॒न्मा मामि॒मे प॑त॒त्रिणी॒ वि दु॑ग्धाम्। मा मामेधो॒ दश॑तयश्चि॒तो धा॒क्प्र यद्वां॑ ब॒द्धस्त्मनि॒ खाद॑ति॒ क्षाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ऽस्तुतिः । औ॒च॒थ्यम् । उ॒रु॒ष्ये॒त् । मा । माम् । इ॒मे इति॑ । प॒त॒त्रिणी॒ इति॑ । वि । दु॒ग्धा॒म् । मा । माम् । एधः॑ । दश॑ऽतयः । चि॒तः । धा॒क् । प्र । यत् । वा॒म् । ब॒द्धः । त्मनि॑ । खाद॑ति । क्षाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपस्तुतिरौचथ्यमुरुष्येन्मा मामिमे पतत्रिणी वि दुग्धाम्। मा मामेधो दशतयश्चितो धाक्प्र यद्वां बद्धस्त्मनि खादति क्षाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽस्तुतिः। औचथ्यम्। उरुष्येत्। मा। माम्। इमे इति। पतत्रिणी इति। वि। दुग्धाम्। मा। माम्। एधः। दशऽतयः। चितः। धाक्। प्र। यत्। वाम्। बद्धः। त्मनि। खादति। क्षाम् ॥ १.१५८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 158; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सभाशालेशौ वां यद्यो दशतय एधो बद्धश्चितोऽग्निः क्षां प्रधाक् तथा त्मनि मां मा खादति। इमे पतत्रिणी औचथ्यं मां मा विदुग्धामुपस्तुतिश्चोरुष्येत् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (उपस्तुतिः) उपगता चासौ स्तुतिः (औचथ्यम्) उचितेषूचितेषु कर्मसु साधुम् (उरुष्येत्) सेवेत (मा) निषेधे (माम्) (इमे) विद्याप्रशंसे (पतत्रिणी) पतितुं विनाशयितुं कुशिक्षे (वि) (दुग्धाम्) प्रपिपूर्त्तम् (मा) (माम्) (एधः) इन्धनम् (दशतयः) दशगुणितः (चितः) संचितः (धाक्) दहेत्। अत्र मन्त्रे घसेत्यादिना लेर्लुग् बहुलं छन्दसीत्यडभावः। (प्र) (यत्) यः (वाम्) युवयोः (बद्धः) नियुक्तः (त्मनि) आत्मनि (खादति) खादेत् (क्षाम्) भूमिम् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा इन्धनैर्निर्वातस्थाने प्रवृद्धोऽग्निः पृथिवीं काष्ठादीनि वा दहति तथा मां शोकाग्निर्मा दहतु। अज्ञानकुशीले मा प्राप्नुतां किन्तु शान्तिर्विद्या च सततं वर्द्धताम् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सभा शालाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों का (यत्) जो (दशतयः) दशगुणा (एधः) इन्धन (बद्धः) निरन्तर युक्त किया और (चितः) संचित किया हुआ अग्नि (क्षाम्) भूमि को (प्र, धाक्) जलावे वैसे (त्मनि) अपने में (माम्) मुझको (मा) मत (खादति) खावे (इमे) ये (पतत्रिणी) नष्ट कराने के लिये कुशिक्षा (औचथ्यम्) उचित उचित कामों में उत्तम (माम्) मुझे (मा) मत (वि, दुग्धाम्) अपूर्ण करें, मेरी परिपूर्णता को मत नष्ट करें और (उपस्तुतिः) समीप प्राप्त हुई स्तुति भी (उरुष्येत्) सेवें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इन्धनों से निर्वात स्थान में अच्छे प्रकार बढ़ा हुआ अग्नि, पृथिवी और काष्ठ आदि पदार्थों को जलाता है, वैसे मुझे शोकरूप अग्नि मत जलावे और अज्ञान वा कुशील मत प्राप्त हों किन्तु शान्ति और विद्या निरन्तर बढ़े ॥ ४ ॥

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    विषय

    विषयों से दग्ध न होना

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो ! (उपस्तुतिः) = आपका स्तवन (औचथ्यम्) = [उचथ्यपुत्रम्] स्तुति में उत्तम इस औचथ्य को (उरुष्येत्) = वासनाओं का शिकार होने से बचाए, अर्थात् प्राणसाधना करता हुआ यह स्तोता वासनाओं से अभिभूत न हो। २. माम् मुझ स्तोता को (इमे) = ये (पतत्रिणी) = निरन्तर गति के स्वभाववाले रात्रि व दिन (मा विदुग्धाम्) = मत दोह लें- मुझे ये क्षीणशक्ति न कर दें । विषय-प्रवण व्यक्ति को ये दिन-रात जीर्ण करते चलते हैं और अगली उम्र में ये टूटे किनारे (broken reed) के समान हो जाते हैं। मैं विषयों से ऊपर उठकर स्थिर शक्तिवाला बना रहूँ। ३. (दशतयः) = दस प्रकार का (चितः) = सञ्चित हुआ (एधः) = वासनाग्नि को दीप्ति करनेवाला यह विषय-काष्ठ (माम्) = मुझे (मा धाक्) = जलानेवाला न हो । (यत्) = क्योंकि (वाम्) = आपका यह भक्त (त्मनि) = मन में (बद्धः) = बँधा हुआ (क्षाम्) = पृथिवी को ही-पार्थिव भोग-पदार्थों को ही प्रखादति खाता रहता है। आपकी साधना इसे बन्धन से ऊपर उठाती है और यह अपने को जीर्ण होने से बचा पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना इसलिए करनी कि वासनाओं का आक्रमण हमें विषय-प्रवण करके जीर्ण-शक्ति न कर दे। दस प्रकार के विषय-वासनाग्नि के काष्ठ बनते हैं और वे वासनाओं को दीप्त करते हैं। प्राणसाधना ही इस अग्नि को बुझाती है ।

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    विषय

    मामतेय दीर्घतमा का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विनौ ) दिन और रात्रि, सूर्य और चन्द्र के समान सदा प्रकाशमान् और समस्त विद्याओं और प्रजाओं का भोग करने वाले सभा और सेना के स्वामीजनो ! ( उपस्तुतिः ) समीप समीप बैठकर राष्ट्र तथा राज्य के हित के लिये यथार्थ बातों की चर्चा, ( औचथ्यम् ) उत्तम वचनों के पात्र प्रशंसनीय राजा की ( उरुष्येत् ) रक्षा करो । (इमे ये पतत्रिणी ) दोनों वेग से शत्रु पर आक्रमण करने वाली, दायें बायें रहने वाली और पक्ष प्रतिपक्ष से विवाद करने वाली सभा के सदस्यों की श्रेणिएं दोनों ही ( मां ) मुझ राजा या स्वामी को ( मा वि दुग्धाम् ) विपरीत रूप से दोहन न करें अर्थात् विपरीत हानिकारक दुष्फल प्राप्त न करावें । बल्कि, ( दशतयः ) दशगुणा ( चितः ) संचय किया हुआ ( एधः ) काष्ठ के समान प्रज्वलित होने वाला तेजस्वी सैन्यसमूह भी ( मां मा प्र धाक् ) मुझको न जलावे । ( यत् ) क्योंकि (वां) तुम दोनों सभा और सेना के स्वामियों के आश्रय पर ही राजा वा प्रजावर्ग (त्मनि) अपने राष्ट्र में (बद्धः) बंधकर (क्षाम् खादति) इस भूमि का भोग करता है । (२) अध्यात्म में—गुरु द्वारा प्रवचन या उपदेश पाने योग्य होने से औचथ्य ‘जीव’ है । जो प्राण और अपान के बल पर देह में बंधकर (क्षाम्) निवास योग्य भोग भूमि, नाना योनियों का भोग करता है। उसके देह में मिथ्या ज्ञान और अकर्म दो पत्री हैं वे उसे गिराते हैं । दशों इन्द्रियें दुष्कर्मों से दाहकारी होने से जलते काष्ट के समान हैं । वे मुझे न सतावें और ( उपस्तुतिः ) परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना ही मुझ जीव की रक्षा करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पङ्क्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा इंधनयुक्त अग्नी प्रज्वलित होऊन निर्वातस्थान भूमी किंवा काष्ठ इत्यादी पदार्थांना जाळतो तसे मला शोकरूपी अग्नीने जाळू नये. अज्ञान व वाईट आचरण यामुळे मी नष्ट होता कामा नये, तर शांती व विद्या सतत वाढावी. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, lords of light, power and holiness, may my celebrative invocation and prayer protect my self- confidence. May the day and night cycle never drain me out. May your tenfold fire, concentrated and blazing, never bum me off, which otherwise bound up in the soul as the fire of grief and despair eats up the very flesh of the body.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Heads of the State and of the educational institution or Acharya of the Gurukuls! let not the fire of grief consume me as highly devastating fire consumes the articles of the wood, grass etc. Let not bad education which defeats good knowledge try to excel in proper perspective. Let the sincere glorification of God save me.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the fire well kindled consumes the earth and fuel etc., let not the fire of grief consume or burn me. Let not ignorance and bad temper come to me at any time, but let peace and wisdom always grow more and more.

    Foot Notes

    (औचथ्यम् ) उचितेषु कर्मसु साधुम् = Expert in doing proper deeds. (इमे) विद्याप्रशंसे = Good education and good reputation. (पतत्निणी) पतितं विनाशयितुं कुशीलशिक्षे = Degrading tad character and education.

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