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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 160 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 160/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    उ॒रु॒व्यच॑सा म॒हिनी॑ अस॒श्चता॑ पि॒ता मा॒ता च॒ भुव॑नानि रक्षतः। सु॒धृष्ट॑मे वपु॒ष्ये॒३॒॑ न रोद॑सी पि॒ता यत्सी॑म॒भि रू॒पैरवा॑सयत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒रु॒ऽव्यच॑सा । म॒हिनी॒ इति॑ । अ॒स॒श्चता॑ । पि॒ता । मा॒ता । च॒ । भुव॑नानि । र॒क्ष॒तः॒ । सु॒धृष्ट॑मे॒ इति॑ सु॒ऽधृष्ट॑मे । वपु॒ष्ये॒ इति॑ । न । रोद॑सी॒ इति॑ । पि॒ता । यत् । सी॒म् । अ॒भि । रू॒पैः । अवा॑सयत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उरुव्यचसा महिनी असश्चता पिता माता च भुवनानि रक्षतः। सुधृष्टमे वपुष्ये३ न रोदसी पिता यत्सीमभि रूपैरवासयत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उरुऽव्यचसा। महिनी इति। असश्चता। पिता। माता। च। भुवनानि। रक्षतः। सुधृष्टमे इति सुऽधृष्टमे। वपुष्ये३ इति। न। रोदसी इति। पिता। यत्। सीम्। अभि। रूपैः। अवासयत् ॥ १.१६०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 160; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या पिता यद्ये रोदसी रूपैः सीमभ्यवासयत्तेऽसश्चता महिनी उरुव्यचसा सुधृष्टमे वपुष्ये नेव माता पिता च भुवनानि रक्षतः ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (उरुव्यचसा) बहुव्यापिनौ (महिनी) महत्यौ (असश्चता) विलक्षणस्वरूपे (पिता) (माता) (च) (भुवनानि) भवन्ति भूतानि येषु तानि (रक्षतः) (सुधृष्टमे) सुष्ठु अतिशयेन प्रसोढ्यौ (वपुष्ये) वपुषि रूपे भवे (न) इव (रोदसी) द्यावापृथिवी (पिता) पालकोऽग्निर्विद्युद्वा (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (अभि) आभिमुख्ये (रूपैः) शुक्लादिभिः (अवासयत्) आच्छादयति ॥ २ ॥

    भावार्थः

    यथा सर्वाणि भूतानि भूमिसूर्यौ रक्षतो धरतश्च तथा मातापितरौ सन्तानान् पालयतो रक्षतश्च यदप्सु पृथिव्यामेतद्विकारेषु च रूपं दृश्यते तद्व्याप्तस्याऽग्नेरेवास्तीति वेदितव्यम् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (पिता) पालन करनेवाला विद्युदग्नि (यत्) जिन (रोदसी) सूर्य और भूमिमण्डल को (रूपैः) शुक्ल, कृष्ण, हरित, पीतादि रूपों से (सीम्) सब ओर से (अभ्यवासयत्) ढाँपता है उन (असश्चता) विलक्षण रूपवाले (महिनी) बड़े (उरुव्यचसा) बहुत व्याप्त होनेवाले (सुधृष्टमे) सुन्दर अत्यन्त उत्कर्षता से सहनेवाले (वपुष्ये) रूप में प्रसिद्ध हुए सूर्यमण्डल और भूमिमण्डलों के (न) समान (माता) मान्य करनेवाली स्त्री (पिता, च) और पालना करनेवाला जन (भुवनानि) जिनमें प्राणी होते हैं उन लोकों की (रक्षतः) रक्षा करते हैं ॥ २ ॥

    भावार्थ

    जैसे समस्त प्राणियों को भूमि और सूर्यमण्डल पालते और धारण करते हैं, वैसे माता-पिता सन्तानों की पालना और रक्षा करते हैं। जो जलों और पृथिवी वा इनके विकारों में रूप दिखाई देता है, वह व्याप्त अग्नि ही का है, यह समझना चाहिये ॥ २ ॥

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    विषय

    वपुष्मत्ता

    पदार्थ

    १. 'द्यौष्पिता पृथिवी माता' के अनुसार द्युलोक पिता, पृथिवी माता है। अध्यात्म में ये मस्तिष्क व शरीर हैं। ये (उरुव्यचसा) = अत्यन्त विस्तारवाले- बढ़ी हुई शक्तियोंवाले तथा (महिनी) = प्रभु की पूजा की वृत्तिवाले और इस प्रकार (असश्चता) = विषयों में आसक्त न होते हुए [असज्यमाने] (पिता माता च) = मस्तिष्क और शरीर (भुवनानि रक्षतः) = सब प्राणियों का रक्षण करते हैं । मस्तिष्क व शरीर के ठीक होने पर ही मनुष्य का जीवन ठीक चलता है। मस्तिष्क के ठीक होने से 'ब्रह्म' का तथा शरीर के ठीक होने से 'क्षत्र' का विकास समुचित रूप में होता है। ‘इदं मे ब्रह्म च क्षत्रं च उभे श्रियमश्नुताम् ' - ब्रह्म व क्षत्र का समुचित विकास होकर जीवन श्रीसम्पन्न हो जाता है। २. (सुधृष्टमे) = इस प्रकार [धर्षति = t 1 = to come together] परस्पर मिलते हुए ये (रोदसी) = द्यावापृथिवी- मस्तिष्क और शरीर (वपुष्ये न) = शरीर को बड़ा उत्तम बनानेवाले होते हैं। जब मस्तिष्क के ज्ञान और शरीर के बल का मेल होता है तब यह मनुष्य 'वपुष्मान्' प्रतीत होता है। ३. (पिता) = मस्तिष्करूप द्युलोक (यत्) = जब (सीम्) = निश्चय से (रूपैः) = ज्ञान के प्रकाश से, सब पदार्थों के ठीक निरूपण से (अभि अवासयत्) = उत्तम निवास कराता है तब ये शरीर व मस्तिष्क वपुष्मत्ता के लिए साधन बनते हैं। शरीर का सौन्दर्य मुख्यरूप से इस बात पर निर्भर करता है कि हम सब वस्तुओं को ठीक रूप में देखें और उनका ठीक ही प्रयोग करें।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर व मस्तिष्क दोनों के ठीक होने पर हम उत्तम विकासवाले व वपुष्मान् बनते हैं ।

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    विषय

    सूर्य पृथिवी के दृष्टान्त से पति-पत्नियों के कर्त्तव्यों का वर्णन

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( रोदसी न ) सूर्य और पृथिवी दोनों ( उरु व्यचसा ) अति विस्तृत और बहुत विविध कान्तियों और कमनीय पदार्थों युक्त होती है । वे दानों ( महिनी ) महान् होकर ( भुवनानि रक्षतः) समस्त भुवनों को पालते हैं। वे ( सुधृष्टमे ) उत्तम राति से दृढ़ होकर रहते हैं उसी प्रकार माता और पिता ( उरुव्यचसा ) अति विशाल हृदय वाले, विविध कामनीय गुणों को धारण करने वाले, ( महिनी ) पूजनीय, गुणों में महान् ( असश्चता ) अयुक्त कार्यों, कामादि विलासों में असक्त, जितेन्द्रिय और निःस्वार्थ होकर ( माता च ) माता और ( पिता च ) पिता दोनों ( भुवनानि ) गृह में उत्पन्न सन्तानों की रक्षा करें । वे दोनों (सुधृष्टमे) अच्छी प्रकार हृष्ट पुष्ट, सहनशील, और ( वपुष्ये ) उत्तम शरीर के डील डौल वाले, सुन्दर हों । और (यत्) उन दोनों में जो ( पिता ) सन्तानों का पालक पिता है वह ( रूपैः ) नाना रुचिकर पदार्थों और वस्त्रों से ( सीम् ) सब प्रकार से ( अभि अवासयत् ) सब पुत्रादि सन्तानों को आच्छादित करे और पाले ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः– १ विराड् जगती । २, ३, ४, ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे भूमी व सूर्यमंडल संपूर्ण प्राण्यांचे पालन व धारण करतात तसे माता-पिता संतानांचे पालन व रक्षण करतात. जल व पृथ्वी यांच्या विकारांमध्ये जे रूप दिसून येते ते त्यात व्याप्त असलेल्या अग्नीचे आहे, हे समजले पाहिजे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The two, of mighty expanse, great and grand, each separate with its own distinct identity, the sun as father and the earth as mother, protect and sustain the worlds and people around. Very strong and forbearing, the heaven and earth are like two wondrous icons of Beauty itself, which the father sun has fully vested with form and colour.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of fire is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the heaven and earth are widely spread vast and different in their form and nature. The father fire or energy has invested visible forms in them. They are resolute for the good of all embodied beings and preserve the worlds like the father and the mother.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun and the earth preserve and uphold all beings, likewise, the father and mother preserve and uphold their children. All should know that whatever form is visible in the water, in the earth and all in its modifications, is of the pervasive fire.

    Foot Notes

    ( उरुव्यचसा) बहुव्यापिनौ = Wide-spreading (असश्चता) विलक्षण स्वरूपे = Different in form and nature. (पिता) पालकः अग्निवियुद् वा == Preserver fire or electricity.

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