ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 160/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
ते नो॑ गृणा॒ने म॑हिनी॒ महि॒ श्रव॑: क्ष॒त्रं द्या॑वापृथिवी धासथो बृ॒हत्। येना॒भि कृ॒ष्टीस्त॒तना॑म वि॒श्वहा॑ प॒नाय्य॒मोजो॑ अ॒स्मे समि॑न्वतम् ॥
स्वर सहित पद पाठते । नः॒ । गृ॒णा॒ने इति॑ । म॒हि॒नी॒ इति॑ । महि॑ । श्रवः॑ । क्ष॒त्रम् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । धा॒स॒थः॒ । बृ॒हत् । येन॑ । अ॒भि । कृ॒ष्टीः । त॒तना॑म । वि॒श्वहा॑ । प॒नाय्य॑म् । ओजः॑ । अ॒स्मे इति॑ । सम् । इ॒न्व॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते नो गृणाने महिनी महि श्रव: क्षत्रं द्यावापृथिवी धासथो बृहत्। येनाभि कृष्टीस्ततनाम विश्वहा पनाय्यमोजो अस्मे समिन्वतम् ॥
स्वर रहित पद पाठते। नः। गृणाने इति। महिनी इति। महि। श्रवः। क्षत्रम्। द्यावापृथिवी इति। धासथः। बृहत्। येन। अभि। कृष्टीः। ततनाम। विश्वहा। पनाय्यम्। ओजः। अस्मे इति। सम्। इन्वतम् ॥ १.१६०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 160; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये गृणाने महिनी द्यावापृथिवी स्तस्ते नो बृहन् महि श्रवः क्षत्रं धासथः येन वयं विश्वहा कृष्टीरभिततनाम तत् पनाय्यमोजश्चास्मे समिन्वतम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(ते) उभे (नः) अस्मभ्यम् (गृणाने) स्तूयमाने। अत्र कृतो बहुलमिति कर्मणि शानच्। (महिनी) महत्यौ (महि) पूज्यम् (श्रवः) अन्नम् (क्षत्रम्) राज्यम् (द्यावापृथिवी) भूमिसवितारौ (धासथः) दध्याताम्। अत्र व्यत्ययः। (बृहत्) महत् (येन) (अभि) (कृष्टीः) मनुष्यान् (ततनाम) विस्तारयेम (विश्वहा) सर्वाणि दिनानि (पनाय्यम्) स्तोतुमर्हम् (ओजः) पराक्रमम् (अस्मे) अस्मासु (सम्) (इन्वतम्) वर्द्धयतम् ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये भूमिगुणविद्विद्यां विदित्वा तयोपयोक्तुं जानन्ति ते महद्बलं प्राप्य सार्वभौमं राज्यं कर्त्तुं शक्नुवन्तीति ॥ ५ ॥अत्र द्यावापृथिवीदृष्टान्तेन मनुष्याणामेतदुपकारग्रहणमुक्तमतएतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोध्या ॥इति षष्ठ्युत्तरं शततमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (गृणाने) स्तुति किये जाते हुए (महिनी) बड़े (द्यावापृथिवी) भूमि और सूर्यलोक हैं (ते) वे (नः) हम लोगों के लिये (बृहत्) अत्यन्त (महि) प्रशंसनीय (श्रवः) अन्न और (क्षत्रम्) राज्य को (धासथः) धारण करें (येन) जिससे हम लोग (विश्वहा) सब दिनों (कृष्टीः) मनुष्यों का (अभि, ततनाम) सब ओर से विस्तार करें और उस (पनाय्यम्) प्रशंसा करने योग्य (ओजः) पराक्रम को (अस्मे) हम लोगों के लिये (समिन्वतम्) अच्छे प्रकार बढ़ावें ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जन भूमि के गुणों को जाननेवालों की विद्या को जानके उससे उपयोग करना जानते हैं, वे अत्यन्त बल को पाकर सब पृथिवी का राज्य कर सकते हैं ॥ ५ ॥इस सूक्त में द्यावापृथिवी के दृष्टान्त से मनुष्यों का यह उपकार ग्रहण करना कहा, इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह समझना चाहिये ॥यह एकसौ साठवाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
'महि श्रवः, बृहत् क्षत्रम्'
पदार्थ
१. (ते) = वे (गृणाने) = स्तुति किये जाते हुए (महिनी) = महान् महिमावाले (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (नः) = हममें (महि श्रवः) = महनीय ज्ञान को, पूजन की वृत्ति से युक्त ज्ञान को तथा (बृहत् क्षत्रम्) = वृद्धि के कारणभूत बल को (धासथः) = धारण करें। 'द्यावा' का सम्बन्ध 'महि श्रवः ' से है तथा 'पृथिवी' का सम्बन्ध 'बृहत् क्षत्र' से है। हमारा मस्तिष्क महनीय द्रव्य से पूर्ण हो तो शरीर वृद्धि के कारणभूत बल से सम्पन्न हो । २. हमें वह ज्ञान और बल दीजिए (येन) = जिससे हम (विश्वहा) = सदा (कृष्टी:) = [कृष्टि=ploughing the soil] कृषि आदि श्रमसाध्य कर्मों को (अभिततनाम) = विस्तृत करनेवाले हों। इन कार्यों के द्वारा (अस्मे) = हममें पनाय्यम् (ओजः) = स्तुत्य बल को (समिन्वतम्) = पूरित करें - हममें स्तुत्य बल को बढ़ाएँ । कर्म से ही बल बढ़ता है। स्तुत्य बल वही है जो निर्माणात्मक कार्यों में लगता है। भावार्थ – द्यावापृथिवी के ठीक विकास से हमारा ज्ञान महनीय हो, बल वृद्धि का कारण बने । ज्ञान और बल के द्वारा हम कृषि आदि उत्तम कर्मों को करते हुए स्तुत्य ओज को प्राप्त करें। '
भावार्थ
विशेष - इस सूक्त में द्यावापृथिवी का विषय समाप्त होता है। अब अगला सूक्त 'ऋभवःदेवता का आरम्भ होता है -
विषय
उत्तम पुत्र के लक्षण और कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( द्यावापृथिवी ) सूर्य और पृथिवी के समान ज्ञान और आश्रय के देने वाले ( ते ) वे आप दोनों ( गृणाने ) स्तुति योग्य एवं पुत्रों को उत्तम ज्ञान का उपदेश करने वाले, ( महिनी ) अति पूज्य और ज्ञान ऐश्वर्य के देने वाले होकर ( महिश्रवः ) बड़ी अन्न समृद्धि के समान ज्ञान और कीर्त्ति और ( बृहत् क्षत्रं ) बड़े भारी बल वीर्य को भी ( धासथः ) धारण कराओ । ( येन ) जिसके बल से हम (विश्वहा) सदा ही ( कृष्टीः ) प्रजाओं को ( ततनाम ) विस्तृत करें । आप दोनों उत्तम स्त्री-पुरुष युगल मिल कर ( पनाय्यं ) स्तुति योग्य ( ओजः ) बल पराक्रम की ( अस्मे ) हम में ( सम् इन्वतम् ) प्राप्त कराओ । इति तृतीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः– १ विराड् जगती । २, ३, ४, ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक भूमीच्या गुणांना जाणणारी विद्या जाणून त्याचा उपयोग करणे जाणतात, ते अत्यंत बल प्राप्त करून सर्व पृथ्वीवर राज्य करतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May they, the great heaven and earth, thus sung and celebrated, bear and bring us abundant food and energy and create a grand social order for us, and may they infuse in us every day an admirable sense of honour and valour so that we may build a great nation of humanity across the globe.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Earth are underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Glorified by us the great earth and sun give us abundant good food and vast kingdom (State). We may multiply or increase the strength of mankind daily. Give us more with it that commendable vigor in us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who know the attributes of the earth and its methods to utilize, draw much strength. They can administer a righteous empire or wealth of nations.
Foot Notes
(श्रवः) अन्नम् = Food (पनाय्यम्) स्तोतुमर्हम् = Commendable or admirable.
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