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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 160 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 160/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒यं दे॒वाना॑म॒पसा॑म॒पस्त॑मो॒ यो ज॒जान॒ रोद॑सी वि॒श्वश॑म्भुवा। वि यो म॒मे रज॑सी सुक्रतू॒यया॒जरे॑भि॒: स्कम्भ॑नेभि॒: समा॑नृचे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । दे॒वाना॑म् । अ॒पसा॑म् । अ॒पःऽत॑मः । यः । ज॒जान॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । वि॒श्वऽश॑म्भुवा । वि । यः । म॒मे । रज॑सी॒ इति॑ । सु॒क्र॒तु॒ऽयया॑ । अ॒जरे॑भिः । स्कम्भ॑नेभिः । सम् । आ॒नृचे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं देवानामपसामपस्तमो यो जजान रोदसी विश्वशम्भुवा। वि यो ममे रजसी सुक्रतूययाजरेभि: स्कम्भनेभि: समानृचे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। देवानाम्। अपसाम्। अपःऽतमः। यः। जजान। रोदसी इति। विश्वऽशम्भुवा। वि। यः। ममे। रजसी इति। सुक्रतुऽयया। अजरेभिः। स्कम्भनेभिः। सम्। आनृचे ॥ १.१६०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 160; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    योऽयं देवानामपसामपस्तमो यो विश्वशम्भुवा रोदसी जजान यः सुक्रतूयया स्कम्भनेभिरजरेभी रजसी विममे तमहं समानृचे ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (अयम्) (देवानाम्) पृथिव्यादीनाम् (अपसाम्) कर्मणाम् (अपस्तमः) अतिशयेन क्रियावान् (यः) (जजान) प्रकटयति (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (विश्वशम्भुवा) विश्वस्मिन् शं सुखं भावुकेन (वि) (यः) (ममे) मापयति (रजसी) लोकौ (सुक्रतूयया) सुष्ठु प्रज्ञया कर्मणा वा (अजरेभिः) अजरैर्हानिरहितैः प्रबन्धैः (स्कम्भनेभिः) स्तम्भनैः (सम्) (आनृचे) स्तौमि ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    सृष्ट्युत्पत्तिस्थितिप्रलयकरणादीनि कर्माणि यस्य जगदीश्वरस्य भवन्ति यो हि कारणादखिलविविधं कार्यं रचयित्वाऽनन्तबलेन धरति तमेव सर्वे सदा प्रशंसन्तु ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (अयम्) यह (देवानाम्) पृथिवी आदि लोकों के (अपसाम्) कर्मों के बीच (अपस्तमः) अतीव क्रियावान् है वा (यः) जो (विश्वशम्भुवा) सब में सुख की भावना करानेवाले कर्म से (रोदसी) सूर्यलोक और भूमिलोक को (जजान) प्रकट करता है वा (यः) जो (सुक्रतूयया) उत्तम बुद्धि, कर्म और (स्कम्भनेभिः) रुकावटों से और (अजरेभिः) हानिरहित प्रबन्धों के साथ (रजसी) भूमिलोक और सूर्यलोक का (वि, ममे) विविध प्रकार से मान करता उसकी मैं (समानृचे) अच्छे प्रकार स्तुति करता हूँ ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने आदि काम जिस जगदीश्वर के होते हैं, जो निश्चय के साथ कारण से समस्त नाना प्रकार के कार्य को रचकर अनन्त बल से धारण करता है, उसीको सब लोग सदैव प्रशंसित करें ॥ ४ ॥

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    विषय

    सृष्टि की उत्पत्ति क्यों [सुक्रतूयया]

    पदार्थ

    १. (अयम्) = ये प्रभु (अपसाम्) = कर्मशील (देवानाम्) = देवों में (अपस्तमः) = सर्वाधिक कर्मशील हैं। सूर्यादि सब देव गतिमय हैं, परन्तु इनको गति देनेवाले तो वे प्रभु ही हैं। ज्ञानी पुरुष भी क्रियाशील होते हैं, उन्हें भी क्रियाशक्ति प्रभु से ही प्राप्त होती है। क्रिया प्रभु का स्वभाव ही है–'स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च' । २. प्रभु वे हैं (यः रोदसी) = जो इस द्युलोक व पृथिवी- लोक को (विश्वशम्भुवा) = सबके लिए शान्ति उत्पन्न करनेवाला जजान बनाते हैं। द्युलोक व पृथिवीलोक वस्तुतः हमारा कल्याण करनेवाले हैं। इनके अनुचित प्रयोग से हम कष्ट उठाते हैं । ३. प्रभु वे हैं (यः) = जिन्होंने (रजसी) = इन द्यावापृथिवी को- अध्यात्म में मस्तिष्क व शरीर को (सुक्रतूयया) = उत्तम कर्मों की इच्छा से (विममे) = विशेष मानपूर्वक बनाया है। सृष्टि का निर्माण इसलिए हुआ है कि इसमें जीव उत्तम कर्मों को करते हुए अन्ततः मोक्ष को सिद्ध कर सकें। ४. इन द्यावापृथिवी को वे प्रभु (अजरेभिः स्कम्भनेभिः) = जीर्ण न होनेवाले स्तम्भों से (समानृचे) = सम्यक् आदृत करते हैं। इन लोकों के स्कम्भन की उन्होंने सुन्दरतम व्यवस्था की है।

    भावार्थ

    भावार्थ – क्रिया करना प्रभु का स्वभाव ही है। प्रभु ने द्युलोक व पृथिवीलोक को शान्ति देनेवाला बनाया है। सृष्टि रचना का उद्देश्य यह है कि इसमें जीव उत्तम कर्म करते हुए मोक्ष के लिए अग्रसर हो सकें।

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    विषय

    उत्तम पुत्र के लक्षण और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    पुत्र के कर्तव्य । ( अयं ) यह (अपसाम्) उत्तम ज्ञानी और कर्मण्य ( देवानाम् ) विद्वानों के बीच ( अपस्तमः ) सब से अधिक ज्ञानी, कर्मनिष्ठ, आप्त होवे । ( यः ) जो पुत्र ( रोदसी ) अपने को उत्तम ज्ञान देने वाले माता पिताओं तथा गुरुजनों को ( विश्वशम्भुवा ) सब प्रकार के कल्याणों के उत्पादक रूप से ( जजान ) जानता है और ( यः ) जो ( रजसी ) चित्त को मनोरंजन करने वाले माता पिताओं को ( सुक्रतुया ) उत्तम कर्म युक्त कीर्त्ति से ( वि ममे ) विशेष कीर्त्तिमान् बनाता है और वह उन दोनों को ( अजरेभिः ) कभी नाश को प्राप्त न होने वाले ( स्कम्भनेभिः ) स्तम्भों के समान आश्रयप्रद उपायों से ( सम् आनृचे ) अच्छी प्रकार से सेवा करता है, उनको प्रसन्न करता है । परमेश्वर पक्ष में—क्रियावान् सब देवों में सर्वशक्तिमान् है जो शान्तिदायक द्यौ पृथिवी को बनाता और रचता है । जगत् को अजर अविनाशी थामने के साधनों से धारे हुए है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः– १ विराड् जगती । २, ३, ४, ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1175
    ओ३म्  अ॒यं दे॒वाना॑म॒पसा॑म॒पस्त॑मो॒ यो ज॒जान॒ रोद॑सी वि॒श्वश॑म्भुवा ।
    वि यो म॒मे रज॑सी सुक्रतू॒यया॒जरे॑भि॒: स्कम्भ॑नेभि॒: समा॑नृचे ॥
    ऋग्वेद 1/160/4

    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते
    नियम हैं अटल, 
    ना कभी वो बदलते
    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते

    कहीं पर नदी नाले 
    कहीं जल का सागर
    कहीं पर है पर्वत 
    कहीं बालू सागर
    जो प्रभु की ही चतुराई 
    दर्शाते रहते
    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते

    नदी वायु सागर 
    उमंगों में बहते
    अग्नि सूर्य चन्द्र 
    तो दान ही करते
    सभी देव प्रभु के 
    क्रियावान् रहते
    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते

    घटा ना आकाश 
    घटा ना प्रकाश
    यह सूर्य उठाता है 
    सागर से भाप
    यह सागर भी अपनी 
    परिधि में ही रहते
    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते

    यह सृष्टि है कितनी 
    विशेष विभिन्न
    सूरज तो प्रकाशित 
    पृथ्वी ज्योतिहीन
    यह प्रज्ञा क्रिया 
    प्रभु की शोभा को वरते
    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते

    सभी जीव-संख्या 
    तो निशदिन है बढ़ती
    यह पृथ्वी तो सबका ही 
    पालन है करती
    सभी जीव माता की 
    गोद में पलते
    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते

    कभी भी थका देह 
    क्रिया छोड़ देता
    प्रलय भी जगत् को 
    निकलता ही रहता
    प्रभु तो सदा ही 
    क्रियावान् रहते
    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते

    अकर्मण्यता ना है 
    ईश को प्यारी
    क्रियावान् ही बनते 
    जग-हितकारी
    क्रियावान् साधक ही 
    ईश्वर को वरते
    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते
    नियम हैं अटल, 
    ना कभी वो बदलते
    क्रियावान् ईश्वर 
    सुकृत कर्म करते
     
    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :--     

    राग :- चारुकेशी
    दक्षिण भारतीय राग, गायन समय प्रातःतृतीय प्रहर, ताल दादरा 6 मात्रा

    शीर्षक :- भगवान् अतिशय क्रियावान है  वैदिक भजन ७५३वां

    *तर्ज :- *
    751-00152

    सुकृत = अच्छे कार्य
    क्रियावान = कर्मनिष्ठ
    परिधि = दायरा
    प्रज्ञा = यथार्थ ज्ञान धारक बुद्धि
    अकर्मण्यता = आलस्य
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
    भगवान अतिशय क्रियावान है

    वेद परमेश्वर को क्रियाशील बताता है, क्रियाशीलता के प्रमाण भी देता है।
    यदि भगवान है और कुछ नहीं करता तो उसका होना ना होना एक समान। कुछ न करने वाले भगवान की सत्ता का प्रमाण? यदि वह कुछ नहीं करता तो उसके मानने से लाभ? यदि कहा जाए की उपासना के लिए उसका मानना आवश्यक है, तो भी ठीक नहीं, क्योंकि उपासना का फल है उपास्य से से कुछ लेना। उपास्य तो निष्क्रिय है, वह तो कुछ नहीं करता। निष्क्रिय कुछ देगा कैसे? देने के लिए भी क्रिया करनी पड़ती है। वेद कहता है कि भगवान तो क्रियाशील देवों में सबसे अधिक क्रियाशील है। सूर्य, चंद्र, विद्युत, अग्नि, हवा, पानी सभी देव क्रियावान हैं।
    सूर्य क्रिया छोड़ दे, तो आप भी गिर पड़े और संसार के संहार का कारण बने। हवा क्रिया बंद कर दें, तो प्राणियों के प्राण प्रयाण कर जाएं। पानी में क्रिया ना रहे तो यह पीने योग्य ही ना रहे, किन्तु इन सब में क्रिया भगवान की देन है, वहीं सबसे अधिक क्रियावान है। यह सभी क्रियावान क्रिया के कारण थककर क्रिया छोड़ देते हैं। जीव प्रतिदिन थककर क्रिया छोड़ देता है। उसका शरीर भी एक दिन संग छोड़ देता है। जगत भी एक दिन समाप्त हो जाता है, किन्तु भगवान सतत क्रियावान है। भगवान का ज्ञान, बल तथा क्रिया स्वाभाविक हैं।
    अन्यों की क्रिया नैमित्तिक है, भगवान की क्रिया नैसर्गिक है, उसकी क्रिया का एक आध उदाहरण लीजिए--'वि यो ममे रजसी
    सुक्रतूया'=जो दोनों लोकों को उत्तम बुद्धि तथा श्रेष्ठ क्रिया से विभिन्न प्रकार का 
    रचता है।
    वह प्रकृति से सारी सृष्टि बनाता है किन्तु कितनी विशेषता और विभिन्नता है उसकी रचना में! सूर्य स्वत: प्रकाश होने के साथ कितना उग्र है, पृथ्वी प्रकाशहीन है। कहीं नदी नाले हैं, कहीं जल का सागर है, कहीं बालू का सागर है। इस वैविध्य में उसकी सुक्रतूत्या=उत्तम प्रज्ञा तथा उत्तम क्रिया दोनों कार्य कर रही हैं। जैसी आवश्यकता समझता है, वैसी सृष्टि रच देता है। संसार- रचना मैं उसका अपना कोई भी प्रयोजन नहीं, ना ही क्रीडा करने के लिए उसने संसार बनाया है, क्योंकि इससे वह अज्ञानी सिद्ध होगा। क्रीडा अज्ञानियों का बच्चों का कार्य है, बालक खेला करते हैं,अत: संसार- रचना का कोई अन्य प्रयोजन है। वेद कहता है-- 'यो जजान रोदसी विश्वशम्भुवा'=जिसने दोनों लोकों को सबका कल्याणकारी बनाया है अर्थात् संपूर्ण जीवों के कल्याण के लिए भगवान ने इस जगत का निर्माण किया है। किसी एक के लिए सुखकारी नहीं, वरन विश्व के लिए, यह सृष्टि शम्भू=कल्याणकारी है। विश्वशम्भु ने यह संसार विश्वशम्भु बनाया है। अपनी मूर्खता से हम इसे दु:खभू: बना रहे हैं।
    उसकी चतुराई देखो। संसार के विशाल पिंडों को वह--'अजरेभि:स्खम्भनेभि:समानृचे'= जीर्ण न होनेवाले स्कंभों से एकरस रचता है अर्थात् उसकी स्कम्भन शक्ति जीर्ण नहीं होती। अतः आज भी वह वैसी बनी है। देखिए न, जब से सृष्टि बनी है, सूर्य निरन्तर ताप और प्रकाश दे रहा है, उसके ताप प्रकाश में कोई न्यूनता नहीं दिखाई देती। सागर से सूर्य प्रतिदिन जल सुखा कर भाप बना रहा है, किन्तु सागर की परिधि=बेला घटी नहीं, सरकी नहीं; सभी जीव-जन्तु पृथ्वी से सदा से आहार पा रहे हैं। कोई भूखा मरता है तो अपनी मूर्खता से। वायु सदा प्राण वह साधन दे रहा है। कहां तक गिनाएं! थककर कहना पड़ता है कि उसकी धारक, रोधक शक्तियां अजर अमर ही हैं। अकर्मण्यता भगवान को इष्ट नहीं है। सदा कर्म में लगे रहने वाले को अकर्मण्यता कैसे पसन्द आ सकती है।

    🕉🧎‍♂️ईश भक्ति भजन
    भगवान् ग्रुप द्वारा🌹 🙏
    🕉वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🙏
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टीची उत्पत्ती, स्थिती व प्रलय इत्यादी काम ज्या जगदीश्वराचे असते व जो निश्चयपूर्वक कारणापासून विविध प्रकारची कार्य निर्मिती करून अनन्त बलाने धारण करतो, त्याचीच सर्व माणसांनी प्रशंसा करावी. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Of all the lights of divinity and of all the acts of divinities, the Lord Supreme is the prime efficient cause of the acts of creation. Lord of bliss for the whole universe in existence, He creates the heaven and earth. With His divine omnipotence, He pervades and transcends the spaces and, with His imperishable powers of sustenance, stabilises the suns and the stars and the worlds that move. Homage in prayer and celebration to the Lord!

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Glorify only one God.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I glorify that Supreme Being (God) who most actively performs the deeds of the other divine elements. In fact, He generates the earth and heaven with His all delighting power. With His wonderful wisdom or actions, He measures out the earth and the sky and props them up with constant support powers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All should always glorify or praise that one God only, who is the all powerful cause of the creation, sustenance and dissolution of the Universe. He upholds this world and all objects, having made them with His infinite power from the eternal cause Primordial Matter or Prakriti.

    Foot Notes

    (देवानाम्) पृथिव्यादीनाम् = Of the divine earth and other worlds. (अपस्तम:) अतिशयेन क्रियावान् = The most active doer.

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