ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
यो रे॒वान्यो अ॑मीव॒हा व॑सु॒वित्पु॑ष्टि॒वर्ध॑नः। स नः॑ सिषक्तु॒ यस्तु॒रः॥
स्वर सहित पद पाठयः । रे॒वान् । यः । अ॒मी॒व॒ऽहा । व॒सु॒ऽवित् । पु॒ष्टि॒ऽवर्ध॑नः । सः । नः॒ । सि॒स॒क्तु॒ । यः । तु॒रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः। स नः सिषक्तु यस्तुरः॥
स्वर रहित पद पाठयः। रेवान्। यः। अमीवऽहा। वसुऽवित्। पुष्टिऽवर्धनः। सः। नः। सिसक्तु। यः। तुरः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
यो रेवान् यः पुष्टिवर्धनो यो वसुविदमीवहा यस्तुरो ब्रह्मणस्पतिर्जगदीश्वरोऽस्ति, स नोऽस्मान् विद्यादिधनैः सह सिषक्तु अतिशयेन संयोजयतु॥२॥
पदार्थः
(यः) जगदीश्वरः (रेवान्) विद्याद्यनन्तधनवान्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। रयेर्मतौ बहुलं सम्प्रसारणम्। (अष्टा०६.१.३७) इति वार्त्तिकेन सम्प्रसारणम्। छन्दसीरः। (अष्टा०८.२.१५) इति मकारस्य वकारः। (यः) सर्वरोगरहितः (अमीवहा) अविद्यादिरोगाणां हन्ता (वसुवित्) यो वसूनि सर्वाणि वस्तूनि वेत्ति (पुष्टिवर्धनः) यः शरीरात्मनोः पुष्टिं वर्धयतीति (सः) ईश्वरः (नः) अस्मान् (सिषक्तु) अतिशयेन सचयतु। अत्र ‘सच’धातोः बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। (यः) शीघ्रं सुखकारी (तुरः) तुरतीति। तुर त्वरणे इत्यस्मादृगुपधत्वात्कः॥२॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सत्यभाषणादिलक्षणामीश्वराज्ञामनुतिष्ठन्ति तेऽविद्यादिरोगरहिताः शरीरात्मपुष्टिमन्तः सन्तश्चक्रवर्त्तिराज्यादिधनानि सर्वरोगहराण्यौषधानि च प्राप्नुवन्तीति॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
(यः) जो जगदीश्वर (रेवान्) विद्या आदि अनन्त धनवाला, (यः) जो (पुष्टिवर्धनः) शरीर और आत्मा की पुष्टि बढ़ाने तथा (वसुवित्) सब पदार्थों का जानने (अमीवहा) अविद्या आदि रोगों का नाश करने तथा (यः) जो (तुरः) शीघ्र सुख करनेवाला वेद का स्वामी जगदीश्वर है, (सः) सो (नः) हम लोगों को विद्या आदि धनों के साथ (सिषक्तु) अच्छी प्रकार संयुक्त करे॥२॥
भावार्थ
जो मनुष्य सत्यभाषण आदि नियमों से संयुक्त ईश्वर की आज्ञा का अनुष्ठान करते हैं, वे अविद्या आदि रोगों से रहित और शरीर वा आत्मा की पुष्टिवाले होकर चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन तथा सब रोगों की हरनेवाली ओषधियों को प्राप्त होते हैं॥२॥
विषय
फिर वह ईश्वर कैसा है, इस मन्त्र में इस विषय का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यः रेवान् यः पुष्टिवर्धनः यः वसुवित् अमीवहा यः तुरः (ब्रह्मणः पति जगदीश्वरःअस्ति), स नः(अस्मान्) विद्यादि धनैः सह सिषवतु (अतिशयेन संयोजयतु)॥२॥
पदार्थ
(यः)=जो, (रेवान्) विद्याद्यनन्तधनवान्= विद्यादि अनन्त धनवाला, (यः)=जो, (पुष्टिवर्धनः) यः शरीरात्मनोः पुष्टि वर्धयतीति=शरीर और आत्मा की पुष्टि बढाने वाला, (यः)=जो, (वसुवित्) यो वसूनि सर्वाणि वस्तूनि वेत्ति=जो संसार के सब पदार्थों को जानता है, (अमीवहा) अविद्यादि रोगाणां हन्ता=अविद्यादि रोगों का नाश करने वाला, (यः)=जो, (तुरः) ब्रह्मणः पति जगदीश्वरःअस्ति=वेद का स्वामी जगदीश्वर है, (सः)=वह, (नः) अस्मान्=हमारे लिए, (विद्यादि)=विद्यादि, (धनैः)=धनों के, (सह)=साथ, (सिषवतु) अतिशयेन संयोजयतु=अतिशय रूप से संयुक्त करता है॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो मनुष्य सत्यभाषण आदि नियमों से संयुक्त ईश्वर की आज्ञा का अनुष्ठान करते हैं, वे अविद्या आदि रोगों से रहित हैं और शरीर वा आत्मा की पुष्टिवाले होकर चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन तथा सब रोगों की हरनेवाली ओषधियों को प्राप्त होते हैं॥२॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यः) जो (रेवान्) विद्यादि अनन्त धनवाला है, (यः) जो (पुष्टिवर्धनः) शरीर और आत्मा की पुष्टि बढाने वाला है, (यः) जो (वसुवित्) जो संसार के सब पदार्थों को जानता है , (अमीवहा) अविद्यादि रोगों का नाश करने वाला है, (यः) और जो (तुरः) वेद का स्वामी जगदीश्वर है। (सः) वह (नः) हमारे लिए (विद्यादि) विद्यादि (धनैः) धनों के (सह) साथ (सिषवतु) अतिशय रूप से संयुक्त करता है॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यः) जगदीश्वरः (रेवान्) विद्याद्यनन्तधनवान्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। रयेर्मतौ बहुलं सम्प्रसारणम्। (अष्टा०६.१.३७) इति वार्त्तिकेन सम्प्रसारणम्। छन्दसीरः। (अष्टा०८.२.१५) इति मकारस्य वकारः। (यः) सर्वरोगरहितः (अमीवहा) अविद्यादिरोगाणां हन्ता (वसुवित्) यो वसूनि सर्वाणि वस्तूनि वेत्ति (पुष्टिवर्धनः) यः शरीरात्मनोः पुष्टिं वर्धयतीति (सः) ईश्वरः (नः) अस्मान् (सिषक्तु) अतिशयेन सचयतु। अत्र 'सच'धातोः बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। (यः) शीघ्रं सुखकारी (तुरः) तुरतीति। तुर त्वरणे इत्यस्मादृगुपधत्वात्कः॥२॥
विषयः- पुनः स कीदृशे इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- यो रेवान् यः पुष्टिवर्धनो यो वसुविदमीवहा यस्तुरो ब्रह्मणस्पतिर्जगदीश्वरोऽस्ति, स नोऽस्मान् विद्यादिधनैः सह सिषक्तु अतिशयेन संयोजयतु॥२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये मनुष्याः सत्यभाषणादिलक्षणामीश्वराज्ञामनुतिष्ठन्ति तेऽविद्यादिरोगरहिताः शरीरात्मपुष्टिमन्तः सन्तश्चक्रवर्त्तिराज्यादिधनानि सर्वरोगहराण्यौषधानि च प्राप्नुवन्तीति॥२॥
विषय
रेवान् , अमीवहा , वसुविन् - पुष्टिवर्धन व तुर [आचार्य]
पदार्थ
१. गतमन्त्र के ब्रह्मणस्पति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि - (यः) - जो (रेवान्) - धनवाला है , अर्थात् निर्धनता के कष्ट से पीड़ित नहीं , जिसके सामने सदा आर्थिक समस्या उपस्थित नहीं रहती , क्योंकि उस अवस्था में उसका ध्यान आर्थिक समस्या को सुलझाने में ही रहेगा , न कि पढ़ाने की ओर ।
२. (यः) - जो (अमीवहा) - रोगों को नष्ट करनेवाला है , अर्थात् जिसका शरीर रोगों से आक्रान्त नहीं । रोगों से आक्रान्त शरीरवाला आचार्य न तो नियमित रूप से ज्ञान ही दे सकता है और न विद्यार्थियों के स्वास्थ्य को ठीक रख सकता है ।
३. (वसुवित्) - निवास के लिए आवश्यक सब तत्वों को जिसने प्राप्त किया हुआ है , अतएव (पुष्टिवर्धनः) - शरीर , मन व मस्तिष्क के पोषण को बढ़ानेवाला है ।
४. (सः) - ऐसा आचार्य (नः) - हमें (सिषक्त) - प्राप्त हो , (यः) - जोकि (तुरः) - हमारी सब कमियों को दूर करनेवाला है [तुवि हिंसायाम्] अथवा जो [तुर त्वरणे] शीघ्रता से सब कार्यों को करनेवाला है ।
भावार्थ
भावार्थ - आचार्य वही उत्तम है जोकि निर्धनता से पीड़ित नहीं , स्वस्थ है , निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुओं को प्राप्त किये हुए है , शरीर , मन व मस्तिष्क की पुष्टि करनेवाला तथा आलस्यशून्य है ।
विषय
आचार्य, परमेश्वर ।
भावार्थ
(यः) जो (रेवान्) विद्या और धनैश्वर्य से सम्पन्न, (अमीवहा) वैद्य के समान समस्त दुःखदायी रोगकारणों का नाश करने वाला, ( वसुवित् ) समस्त लोकों को जानने वाला, ( पुष्टि-वर्धनः ) अन्न और ज्ञान से शरीर और आत्मा को पुष्ट करने वाला है । और ( यः ) जो ( तुरः ) अति वेगवान्, शीघ्र सुख फल देने वाला है (सः) वह (नः) हमें (सिषक्तु) प्राप्त हो । राजा के पक्ष में—जो ऐश्वर्यवान्, रोगों के समान शत्रुओं का नाशक, गौ आदि सम्पत्ति का बढ़ानेवाला, राष्ट्र का पोषक, ऐश्वर्य को युद्धादि द्वारा प्राप्त करने और प्रजा को देने वाला, ( ब्रह्मणस्पतिः ) वेदज्ञ विद्वानों का पालक ( यः तुरः ) और जो शत्रु पर वेग से आक्रमणकारी है वह ( नः सिषक्नु ) हमें संगठित करे, हम में संघ बनाकर बलवान् करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि मेधातिथिः काण्वः । देवता—१-३ ब्रह्मणस्पतिः । ४ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च सोमश्च । ५ बृहस्पतिदक्षिणे । ६—८ सदसस्पतिः । ९ सदस्स पतिर्नाराशंसोवा गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सत्यभाषण इत्यादी नियमांनी ईश्वराचे अनुष्ठान करतात ती अविद्या इत्यादी रोगांनी रहित होऊन शरीर आणि आत्मा यांची पुष्टी करून चक्रवर्ती राज्य इत्यादी धन तसेच सर्व रोगांना नष्ट करणारी औषधी प्राप्त करतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The Lord Supreme that is lord of universal wealth and knowledge, destroyer of evil and disease, absolute master of the Vasus, prime cause of creation and evolution, power of instant action and beneficence, may He, we pray, bless us with the knowledge and wealth of the world.
Subject of the mantra
Then, how is that God, this topic is preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ)=That, (revān)=is having knowledge etc. eternal wealth, (yaḥ)=that, (puṣṭivardhanaḥ)=strengthens body and soul, (yaḥ)=that, (vasuvit)=one who knows the things of the world, (amīvahā)=is destroyer of nescience etc. diseases, (yaḥ) =and that, (turaḥ)=is the lord of the Vedas, God, (saḥ)=That, (naḥ)=for us, (vidyādi) =knowledge etc. (dhanaiḥ)=wealth, (saha)=with, (siṣavatu)= combines extremely.
English Translation (K.K.V.)
The one, who is rich in knowledge et cetera; who increases the strength of body and soul; who knows the things of the world; who destroys the diseases of nescience and who is the master of Vedas, God. He unites for us with great wealth.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The men who perform the rituals of the command of God combined with the rules of truthful speech etc., they are devoid of diseases like nescience and are nourished as having body or soul, they attain the Chakravarti kingdom and wealth and medicines that cure all diseases.
TRANSLATOR’S NOTES-
The Chakravarti state is explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is that God is taught in the next Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May God Who is the Lord of infinite wealth of knowledge etc. Who is the Destroyer of all diseases like ignorance and physical maladies, who increases the power of body and soul, Who knoweth all things. Who promptly giveth happiness, endow us with the wealth of wisdom and of other kinds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अमीवहा) अविद्यादिरोगाणां हन्ता = Destroyer of the ignorance and other diseases. (वसुवित्) यो वसूनि सर्वाणि वस्तूनि वेत्तिसः = knower of all things. (सिषक्तु) सचयतु (पच -समवायें इति धातोः) अतिशयेन) संयोजयतु । = May unite well. ( वसूनि ) सर्वाणि वसूनि वस- निवासे इति धातोः अथवा वस आच्छादने शृ स्व स्निहि तप्यसि वसिहनि क्लिदि वन्धि मनिभ्यश्च ( उणादि १.१० ) इति उ प्रत्ययः वस्ते-आच्छादयति दुःखं येन तद्वसु धनं वा ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who obey the command of God consisting of truth and other virtues, getting rid of ignorance and other diseases, possessing physical and spiritual strength, achieve wealth in the form of vast empire etc. and medicines that ward off all diseases.
Translator's Notes
According to the above etymology of the word वसु all things which remove misery may be called वसूनि as interpreted by Rishi Dayananda.
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