ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - ब्रह्मणस्पतिसोमेन्द्रदक्षिणाः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वं तं ब्र॑ह्मणस्पते॒ सोम॒ इन्द्र॑श्च॒ मर्त्य॑म्। दक्षि॑णा पा॒त्वंह॑सः॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । तम् । ब्र॒ह्म॒णः॒ । प॒ते॒ । सोमः॑ । इन्द्रः॑ । च॒ । मर्त्य॑म् । दक्षि॑णा । पा॒तु॒ । अंह॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम्। दक्षिणा पात्वंहसः॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। तम्। ब्रह्मणः। पते। सोमः। इन्द्रः। च। मर्त्यम्। दक्षिणा। पातु। अंहसः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कथं ते रक्षका भवन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे ब्रह्मणस्पते ! त्वमंहसो यं पासि तं मर्त्यं सोम इन्द्रो दक्षिणा च पातु पाति॥१५॥
पदार्थः
(त्वम्) जगदीश्वरः (तम्) यज्ञानुष्ठातारम् (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य (पते) पालकेश्वर ! (सोमः) सोमलताद्योषधिसमूहः (इन्द्रः) वायुः (च) समुच्चये (मर्त्यम्) विद्वांसं मनुष्यम् (दक्षिणा) दक्षन्ते वर्धन्ते यया सा। अत्र द्रुदक्षिभ्यामिनन्। (उणा०२.४९) इतीनन्प्रत्ययः। (पातु) पाति। अत्र लडर्थे लोट्। (अंहसः) पापात्। अत्र अम रोगे इत्यस्मात् अमेर्हुक् च। (उणा०४.२१३) अनेनासुन्प्रत्ययो हुगागमश्च॥५॥
भावार्थः
ये मनुष्या अधर्माद् दूरे स्थित्वा स्वेषां सुखवृद्धिमिच्छन्ति ते परमेश्वरमुपास्य सोममिन्द्रं दक्षिणां च युक्त्या सेवयन्तु॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
कैसे वे रक्षा करनेवाले होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
हे (ब्रह्मणस्पते) ब्रह्माण्ड के पालन करनेवाले जगदीश्वर ! (त्वम्) आप (अहंसः) पापों से जिसकी (पातु) रक्षा करते हैं, (तम्) उस धर्मात्मा यज्ञ करनेवाले (मर्त्यम्) विद्वान् मनुष्य की (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों के रस (इन्द्रः) वायु और (दक्षिणा) जिससे वृद्धि को प्राप्त होते हैं, ये सब (पातु) रक्षा करते हैं॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य अधर्म से दूर रहकर अपने सुखों के बढ़ाने की इच्छा करते हैं, वे ही परमेश्वर के सेवक और उक्त सोम, इन्द्र और दक्षिणा इन पदार्थों को युक्ति के साथ सेवन कर सकते हैं॥५॥
विषय
कैसे वे रक्षा करने वाले होते हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे ब्रह्मण: ते! त्वम् अंहसः यं पासि तं मर्त्यं सोम इन्द्रः दक्षिणा च पातु (पाति) ॥५॥
पदार्थ
हे (ब्रह्मण:) ब्रह्माण्डस्य=ब्रह्माण्ड के, (ते) त्वम्=आप, (अंहसः) पापात्=पाप से, (यम्)=जिसकी, (पासि)=रक्षा करते हो, (तम्)=उस, (मर्त्यम्)=मनुष्य को, (सोमः) सोमलताद्योषधिसमूहः=सोमलता आदि ओषधियों के रस, (इन्द्रः)=वायु, (दक्षिणा) दक्षन्ते वर्धन्तेयया सा=जिससे दक्षता और वृद्घि को प्राप्त करते हैं, (च)=और, (पातु) पाति=रक्षा करता है ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो मनुष्य अधर्म से दूर रहकर अपने सुखों के बढ़ाने की इच्छा करते हैं, वे ही परमेश्वर के सेवक और उक्त सोम, इन्द्र और दक्षिणा इन पदार्थों को युक्ति के साथ सेवन कर सकते हैं॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर! (ते) आप (अंहसः) पाप से (यम्) जिसकी (पासि) रक्षक करते हो, (तम्) उस (मर्त्यम्) मनुष्य को (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों के रस और (इन्द्रः) वायु (दक्षिणा) दक्षता और वृद्घि को प्राप्त कराते हैं (च) और (पातु) वे रक्षा भी करते हैं। ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) जगदीश्वरः (तम्) यज्ञानुष्ठातारम् (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य (पते) पालकेश्वर ! (सोमः) सोमलताद्योषधिसमूहः (इन्द्रः) वायुः (च) समुच्चये (मर्त्यम्) विद्वांसं मनुष्यम् (दक्षिणा) दक्षन्ते वर्धन्ते यया सा। अत्र द्रुदक्षिभ्यामिनन्। (उणा०२.४९) इतीनन्प्रत्ययः। (पातु) पाति। अत्र लडर्थे लोट्। (अंहसः) पापात्। अत्र अम रोगे इत्यस्मात् अमेर्हुक् च। (उणा०४.२१३) अनेनासुन्प्रत्ययो हुगागमश्च॥५॥
विषयः- कथं ते रक्षका भवन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे ब्रह्मणस्पते! त्वमंहसो यं पासि तं मर्त्यं सोम इन्द्रो दक्षिणा च पातु पाति ॥महर्षिकृत:॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये मनुष्या अधर्माद् दूरे स्थित्वा स्वेषां सुखवृद्धिमिच्छन्ति ते परमेश्वरमुपास्य सोममिन्द्रं दक्षिणां च युक्त्या सेवयन्तु॥५॥
विषय
ज्ञान , सौम्यता , जितेन्द्रियता व दान
पदार्थ
१. हे (ब्रह्मणस्पते) - ज्ञान के स्वामिन्! आचार्य! (त्वम्) - आप तो (तम , मर्त्यम्) - उस कोमल स्वभाव , अतएव किसी भी प्रभाव से आक्रान्त हो जानेवाले इस मरणधर्मा अबोध बालक को (अंहसः) - पाप से (पातु) - रक्षित करो । (सोमः) - सोम रक्षित करे (च) - और (इन्द्रः) - इन्द्र रक्षित करे , अर्थात् सौम्यता और जितेन्द्रियता इसे पापों से बचानेवाली हों । ब्रह्मचर्यकाल में आचार्य इसे ज्ञान तो देता ही है , साथ ही जितेन्द्रिय व सौम्य बनाने का प्रयत्न करता है । ये सब बातें उसे पाप से बचाने में सहायक हो जाती हैं ।
२. गृहस्थ में प्रवेश करने पर दक्षिणा - यह देने की वृत्ति उसे पाप से बचानेवाली हो । यह दान देने की वृत्ति सदा मनुष्य की उन्नति का कारण बनती है । दान के साथ पाप का सम्बन्ध नहीं । दान का अर्थ ही देना तथा पाप का काटना [दाप लवणे] है । यह दान की वृत्ति हमारे जीवन को शुद्ध बना देती है [दैप् शोधने] ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान , सौम्यता , जितेन्द्रियता व दान की वृत्ति मनुष्य का पापों से रक्षण करती है ।
विषय
राजा
भावार्थ
हे (ब्रह्मणः पते) महान् ब्रह्माण्ड के स्वामिन् ! वेदज्ञ विद्वन् ! बृहत् राष्ट्र के पालक राजन् ! ( त्वं ) तू ( सोमः ) ओषधि रस विद्वान् जन, और वीर्यादि सामर्थ्य, (इन्द्रः च ) सेनापति, प्राण, वायु और ( दक्षिणा ) बढ़ने की उत्तम धर्म नीति ये सब (तं) उस ( मर्त्त्यम् ) पुरुष को (अहंसः) पाप से ( पातु ) पालन करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि मेधातिथिः काण्वः । देवता—१-३ ब्रह्मणस्पतिः । ४ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च सोमश्च । ५ बृहस्पतिदक्षिणे । ६—८ सदसस्पतिः । ९ सदस्स पतिर्नाराशंसोवा गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे अधर्मापासून दूर राहून आपले सुख वाढविण्याची इच्छा बाळगतात तीच माणसे परमेश्वराचे सेवक व वरील सोम, इन्द्र व दक्षिणा (वृद्धी करणाऱ्या) या पदार्थांना युक्तीने सेवन करू शकतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Brahmanaspati, lord omniscient of the universe, you, Soma, lord of herbs and health, Indra, lord of wind and energy, and Dakshina, yajnic generosity, save and protect that heroic man from sin who is on way to action and piety on call of the divine.
Subject of the mantra
How they are protectors, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (brahmaṇaḥ)=God, Lord of universe! (te)=You, (aṃhasaḥ)=sins, (yam)=whom, (pāsi)=protect, (tam)=that, (martyam)=man, (somaḥ)=saps of the creeper Soma etc. herbs, (indraḥ)=air, (dakṣiṇā)=get obtained dexterity and growth, (ca)=and, (pātu)=they protect also.
English Translation (K.K.V.)
O God, Lord of universe! Whom You protect from sins, that man gets obtained dexterity and growth by saps of the creeper Soma etc. herbs and air and they protect as well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Those people, who wish to increase their happiness by staying away from unrighteousness, only those servants of the God and the said Soma, Indra and Dakṣiṇā (offering) can use these substances with prudence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How do they protect is taught in the next Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Lord of the world, the performer of the Yajnas or noble deeds, whom thou protectest from sin is also protected or saved by the medicines or drugs like the Soma etc. and the virtues that lead a man to progress such as charity, gift to the learned priests etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दक्षिणा) दक्षते वर्धन्ते गया सा = sacrificial gift.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who keeping themselves away from sin, desire to increase their happiness, should meditate upon God and properly use air, the medicinal juice and noble virtues that lead to progress.
Translator's Notes
(दक्षिणा) Yaskacharya explains the word in Nirukta 1.7 as दक्षिणा दक्षतेः समर्द्धयति कर्मणोव्यृद्धम् समर्द्धयतीति वा That which increases or encourages that is why the present or gift to the priests is called Dakshina. In the Dhatu Path we find दक्ष-वृद्धौ (भ्वा ) = To prosper and increase. So Yaskacharya's meaning tallies with the meaning in Dhatu Path. Yaskacharya's etymology of Dakshina seems to be based upon the following and other passages from the Brahmanas- तं यज्ञं देवा दक्षिणाभिरदक्षयन् तद्द्यदेनं दक्षिणाभिरक्षयन् तस्माद् दक्षिणानाम (शत० २.२.२.२.) In Kaushikaki Brahmana 15.1. also we find a similar passage. तद् यद् दक्षिणाभिर्यज्ञं दक्षयति तस्माद् दक्षिणानाम (कौषीतकी ब्रा० १५ - १ ) Ey giving Dakshina or gift to the priests, the performer of the Yajna discharges his duty by showing respect to the priests in a practical form and encourages them to help in the performance of these Yajnas.
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