ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 180/ मन्त्र 10
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तं वां॒ रथं॑ व॒यम॒द्या हु॑वेम॒ स्तोमै॑रश्विना सुवि॒ताय॒ नव्य॑म्। अरि॑ष्टनेमिं॒ परि॒ द्यामि॑या॒नं वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वा॒म् । रथ॑म् । व॒यम् । अ॒द्य । हु॒वे॒म॒ । स्तोमैः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । सु॒वि॒ताय॑ । नव्य॑म् । अरि॑ष्टऽनेमिम् । परि॑ । द्याम् । इ॒या॒नम् । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वां रथं वयमद्या हुवेम स्तोमैरश्विना सुविताय नव्यम्। अरिष्टनेमिं परि द्यामियानं विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। वाम्। रथम्। वयम्। अद्य। हुवेम। स्तोमैः। अश्विना। सुविताय। नव्यम्। अरिष्टऽनेमिम्। परि। द्याम्। इयानम्। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१८०.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 180; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विना वयमद्य सुविताय स्तोमैररिष्टनेमिं नव्यं द्यां परीयानं तं वां रथं हुवेमेषं वृजनं जीरदानुञ्च विद्याम ॥ १० ॥
पदार्थः
(तम्) पूर्वमन्त्रप्रतिपादितम् (वाम्) युवयोः (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (वयम्) (अद्य) अस्मिन् दिने। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (हुवेम) स्वीकुर्याम (स्तोमैः) प्रशंसाभिः (अश्विना) हे सर्वगुणव्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ (सुविताय) ऐश्वर्य्याय (नव्यम्) नवीनम् (अरिष्टनेमिम्) दुःखनिवारकम् (परि) सर्वतः (द्याम्) आकाशम् (इयानम्) गच्छन्तम् (विद्याम) विजानीयाम (इषम्) प्राप्तव्यं सुखम् (वृजनम्) गमनम् (जीरदानुम्) जीवम् ॥ १० ॥
भावार्थः
मनुष्यैः सदैव नवीनानि नवीनानि विद्याकार्याणि साधनीयानि। येनाऽत्र प्रशंसा स्यादाकाशादिषु गमनेनेच्छासिद्धिश्च प्राप्येत् ॥ १० ॥अत्र स्त्रीपुरुषगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥इत्यशीत्युत्तरं शततमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) सर्वगुणव्यापी पुरुषो ! (वयम्) हम लोग (अद्य) आज (सुविताय) ऐश्वर्य्य के लिये (स्तोमैः) प्रशंसाओं से (अरिष्टनेमिम्) दुःखनिवारक (नव्यम्) नवीन (द्याम्) आकाश को (परि, इयानम्) सब ओर से जाते हुए (तम्) उस पूर्व मन्त्रोक्त (वाम्) तुम दोनों के (रथम्) रथ को (हुवेम्) स्वीकार करें तथा (इषम्) प्राप्तव्य सुख (वृजनम्) गमन और (जीरदानुम्) जीव को (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ १० ॥
भावार्थ
मनुष्यों को सदैव नवीन-नवीन विद्या के कार्य सिद्ध करने चाहियें जिससे इस संसार में प्रशंसा हो और आकाशादिकों में जाने से इच्छासिद्धि पाई जावे ॥ १० ॥इस सूक्त में स्त्री-पुरुषों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह १८० एकसौ अस्सीवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
'अरिष्टनेमि' रथ
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (अद्य) = आज (वाम्) = आपके (तं रथम्) = उस रथ को (वयम्) = हम (स्तोमैः) = स्तुतियों के द्वारा (हुवेम) = पुकारते हैं, प्रार्थित करते हैं जोकि (सुविताय) = [सु+इताय] उत्तम कर्मों के लिए (नव्यम्) = अत्यन्त प्रशंसनीय है। इस शरीर-रथ से हम सतत उत्तम कर्मों को करनेवाले होते हैं । २. जो रथ (अरिष्टनेमिम्) = अहिंसित चक्रवलयवाला है, जिसके अङ्ग सुदृढ़ हैं तथा (द्यां परि इयानम्) = जो रथ प्रकाश की ओर गति कर रहा है, जिस रथ में स्थित होकर हम प्रकाशमय लोक की ओर बढ़ रहे हैं । 'अरिष्टनेमिं' शब्द रथ की दृढ़ता व शक्ति की सूचना देता है तथा 'द्यां परि इयानम्' शब्द प्रकाशमयता का संकेत कर रहे हैं। इस शरीर-रथ को प्राप्त करके हमें शक्ति व प्रकाश का ही आराधन करना है। यही क्षेत्र + ब्रह्म का पोषण है। ३. इस शरीर-रथ को प्राप्त करके हम इषम् - प्रेरणा को, वृजनम् = पाप के वर्जन को व जीरदानुम्-दीर्घजीवन को विद्याम प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ - इस शरीर - रथ को प्राप्त करके हम सुवितवाले हों, न कि दुरितवाले। यह शरीर शक्ति व ज्ञान से सम्पन्न हो ।
विषय
गृहस्थ स्त्री पुरुषों को उपदेश ।
भावार्थ
हे ( अश्विना) उत्तम गुणवान् पुरुषो ! (वयम्) आज हम ( वां ) आप दोनों के अधीन ( तं रथं ) उस रमण करने योग्य रथ के समान समस्त संकटों से पार ले जाने वाले, (नव्यं) नये से नये, अद्भुत ( अरिष्टनेमिम् ) दुःखों के निवारक, (द्याम् इयानम्) आकाश में जाते सूर्य के समान ‘द्यौः’ अर्थात् ज्ञान वाले विद्वानों की सभा को प्राप्त होने वाले साधन, या तुम में से ऐसे श्रेष्ठ पुरुष को (सुविताय) सुख से समस्त दुर्गम मार्गों को तय करने के लिये (स्तोमैः) उत्तम स्तुति वचनों और अधिकारसूचक, मानवर्धक पदों से (हुवेम) पुकारें । और हम प्रजाजन (इषं वृजनं जोरदानुम् विद्याम) अन्न, बल, और जीवन प्राप्त करें। इति चतुर्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ ३, ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी सदैव नवनवीन विद्या कार्य सिद्धीस नेले पाहिजे. ज्यामुळे जगात प्रशंसा व्हावी व आकाश इत्यादीमध्ये विहार करण्याची इच्छा पूर्ण व्हावी. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For the sake of peace and well-being and the beauty of life, O Ashvins, powers of progress and majesty, today we invoke and call for that latest chariot of yours which takes us far above the pain and suffering of the world and reaches the heights of heavenly light, and we pray we may attain food and energy, the right path of living and the light and peace of the soul.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O most virtuous learned men and women! we invoke you today with admiration, in order to get prosperity and your nice new beautiful aircraft of undamaged wheels. With it, we would remove our hardships and traverse the sky, so that we may know the real happiness, good movement and spirituality.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always accomplish new areas of knowledge so that they may earn admiration, and their desires may be fulfilled by travelling in the sky.
Foot Notes
(रथम् ) रमणीय विमाना दियानम् = Beautiful vehicles in the from of aircraft etc. ( सुविताय) ऐश्वर्याय = For aircraft ete. ( अरिष्टनेमिम् ) दुःख निवारकम् = Remover of misery. (इषम् ) प्राप्तव्यं सुखम् = Happiness which is worth achieving. रथो रहतेः गतिकर्मण: । रममाणोऽस्मिस्तिष्ठतीति निरुक्ते (NKT. 92-11 ) So the word रथin the Vedas denotes not only ordinary chariot or car, but any vehicle which gives delight and takes men to distant places. The adjective of the रथ is परिद्या मियानम्. Wilson has translated it as 'traversing the sky' and Griffith as your new chariot' that circles heaven with never injured fellies. It bears out Dayananda's interpretation that the word here and elsewhere stands for aircrafts etc.
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