ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 180/ मन्त्र 2
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यु॒वमत्य॒स्याव॑ नक्षथो॒ यद्विप॑त्मनो॒ नर्य॑स्य॒ प्रय॑ज्योः। स्वसा॒ यद्वां॑ विश्वगूर्ती॒ भरा॑ति॒ वाजा॒येट्टे॑ मधुपावि॒षे च॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । अत्य॑स्य । अव॑ । न॒क्ष॒थः॒ । यत् । विऽप॑त्मनः । नर्य॑स्य । प्रऽय॑ज्योः । स्वसा॑ । यत् । वा॒म् । वि॒श्व॒गू॒र्ती॒ इति॑ विश्वऽगूर्ती । भरा॑ति । वाजा॑य । ईट्टे॑ । म॒धु॒ऽपौ॒ । इ॒षे । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवमत्यस्याव नक्षथो यद्विपत्मनो नर्यस्य प्रयज्योः। स्वसा यद्वां विश्वगूर्ती भराति वाजायेट्टे मधुपाविषे च ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। अत्यस्य। अव। नक्षथः। यत्। विऽपत्मनः। नर्यस्य। प्रऽयज्योः। स्वसा। यत्। वाम्। विश्वगूर्ती इति विश्वऽगूर्ती। भराति। वाजाय। ईट्टे। मधुऽपौ। इषे। च ॥ १.१८०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 180; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे स्त्रीपुरुषौ यद्यो युवं युवां प्रयज्योर्नर्य्यस्य विपत्मनोऽत्यस्यावनक्षथः। यद्यौ विश्वगूर्त्ती वां स्वसा भराति वाजाय चेट्टे तौ मधुपौ युवामिषे प्रयतेथाम् ॥ २ ॥
पदार्थः
(युवम्) युवाम् (अत्यस्य) अत्यस्याश्वस्य (अव) (नक्षथः) प्राप्नुथः (यत्) यौ (विपत्मनः) विशेषेण गमनशीलस्य (नर्य्यस्य) नृषु साधोः (प्रयज्योः) प्रयोक्तुं योग्यस्य (स्वसा) भगिनी (यत्) या (वाम्) युवाम् (विश्वगूर्त्ती) समग्रोद्यमौ (भराति) भरेत् (वाजाय) विज्ञानाय (ईट्टे) स्तौति (मधुपौ) मधुरं पिबन्तौ (इषे) अन्नाय (च) ॥ २ ॥
भावार्थः
यदि स्त्रीपुरुषावग्न्याद्यश्वविद्यां जनीयातां तर्हि यथेष्टं गन्तुं शक्नुयात्। यस्य भगिनी विदुषी स्यात् तस्य प्रशंसा कुतो न स्यात् ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे स्त्रीपुरुषौ ! (यत्) जो (युवम्) तुम दोनों (प्रयज्योः) प्रयोग करने योग्य अर्थात् कार्य्य संचार में वर्त्तने योग्य (नर्यस्य) मनुष्यों में उत्तम (विपत्मनः) विशेष चलनेवाले (अत्यस्य) घोड़े को (अव, नक्षथः) प्राप्त होते हो (यत्) जिस (विश्वगूर्त्ती) समस्त उद्यम के करनेवालो (वाम्) तुम दोनों को (स्वसा) बहिन तुम्हारी (भराति) पाले-पोषे (वाजाय, च) और विज्ञान होने के लिये (ईट्टे) तुम दोनों की स्तुति करती अर्थात् प्रशंसा करती वे (मधुपौ) मधुर मीठे को पीते हुए तुम दोनों (इषे) अन्नादि पदार्थों के होने के लिए उत्तम यत्न करो ॥ २ ॥
भावार्थ
जो स्त्री-पुरुष अग्नि आदि पदार्थों को शीघ्रगामी करने की विद्या को जानें तो यथेष्ट स्थान को जा सकते हैं, जिसकी बहिन पण्डिता हो उसकी प्रशंसा क्यों न हो ? ॥ २ ॥
विषय
अत्य, विपत्मा, नर्य, प्रयज्यु
पदार्थ
१. हे अश्विनीदेवो! प्राणापानो ! (यत्) = जब (युवम्) = आप दोनों (अत्यस्य) = सतत गमनशील, सदा क्रिया में लगनेवाले, (विपत्मनः) = विशिष्ट मार्गवाले (नर्यस्य) = नरहित में प्रवृत्त (प्रयज्यो:) = प्रकृष्ट यज्ञशील पुरुष के इस शरीररूप रथ को (अवनक्षथः) = प्राप्त होते हो तो (यत्) = जो (वाम्) = आपकी यह (विश्वगूर्ती) = सम्पूर्ण ज्ञानों का उद्यमन करनेवाली सब सत्य विद्याओं की प्रतिपादिका (स्वसा) = [स्व+सृ] आत्मतत्त्व की ओर ले चलनेवाली वेदवाणी है, वह (भराति) = हमारा भरण करती है, यह हमारी कमियों को दूर करनेवाली होती है । २. वस्तुतः प्राणसाधना के द्वारा ही मनुष्य 'अत्य, विपत्मा, नर्य व प्रयज्यु' बनता है। इस प्राणसाधक को ही वेदज्ञान प्राप्त होता है, जो वेदज्ञान उसे सब सत्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कराता हुआ प्रभुप्रवण करता है (स्वसा) । हे (मधुपौ) = मेरे ओषधियों के सारभूत सोम [वीर्यशक्ति] को मेरे शरीर में ही रक्षित करनेवाले प्राणापानो! यह आपका उपासक (वाजाय) = शक्ति के लिए (ईट्टे) = उपासना करता है (च) = और (इषे) = प्रेरणा की प्राप्ति के लिए आपकी आराधना करता है। प्राणायाम करनेवाला व्यक्ति इस प्राणसाधना के द्वारा शरीर में सोम का पान करता हुआ शरीर को शक्तिसम्पन्न बनाता है और अपने निर्मल हृदय में प्रभु-प्रेरणा को सुन पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से मनुष्य गतिशील, विशिष्ट मार्ग पर चलनेवाला, नर- हितकारी व यज्ञशील बनता है। इस साधक को वेदज्ञान प्राप्त होता है। यह शरीर में शक्तिशाली व निर्मल हृदय में प्रभु-प्रेरणा को सुननेवाला होता है ।
विषय
गृहस्थ स्त्री पुरुषों को उपदेश ।
भावार्थ
( युवम् ) तुम दोनों ( विपत्मनः ) विविध विद्या विज्ञानों से युक्त, (नर्यस्य) सब मनुष्यों के हितकारी, उनमें सबसे श्रेष्ठ और कुशल ( प्रयज्योः ) उत्तम विद्यादि देने वाले, सत्संगति करने योग्य ( अत्यस्य ) अश्व के समान भ्रमणशील, विद्वान्, परिव्राजक के समीप ( अव नक्षथः ) बड़े विनय से जाया करो। और हे ( विश्वगूर्ती ) सब प्रकार के उद्यम करने में लगे हुए स्त्री पुरुषो ! और हे ( मधुपौ ) भौंरा भौंरी के समान मधुवत् मधुर ज्ञान अन्न, जलादि पदार्थों का उपयोग और संग्रह करनेहारे स्त्री पुरुषो ! ( यत् ) जो भी विद्वान् (वां स्वसा) तुम्हारे पास स्वयं प्रेम से आकर भाई या बहिन के समान ( वां ) तुम दोनों को ( वाजाय ) ज्ञान, बल और ऐश्वर्य के सम्पादन करने के लिये (भराति) तुम्हें अधिक पुष्ट, शक्तिशाली बनाता और उत्तम मार्ग पर अग्रणी अश्व के समान ले जाता है ( इषे च ) और उत्तम अन्न के उपयोग के लिये ( ईट्टे ) तुम्हें उपदेश करता है तुम उसको ( अव नक्षथः ) विनय से प्राप्त होवो, उसका सदा आदर सत्कार करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ ३, ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे स्त्री-पुरुष अग्नी इत्यादी पदार्थांना शीघ्रगामी करण्याची विद्या जाणतात ते इच्छित स्थानी जाऊ शकतात. ज्याची बहीण पंडिता असेल त्याची प्रशंसा कशी होणार नाही? ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, men and women, universally admirable, enjoying the honey sweets of life and nature, when you take on to your horse flying over oceans of earth and space, so useful for humanity, then the sister community applauds you and the world adores you for energy, victory and success at the fastest speed.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men and women swift moving your car moves direct downwards on the course and goes zigzag paths. It is friendly to the man, and is to be utilized properly. Your sister, O industrious person! serves and praises you to seek your knowledge. O drinkers of sweet juice ! you always try to acquire good food.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If men and women know the science of energy, they can go to distant places at their will. Who may not admire the persons, whose sister is also highly learned.
Foot Notes
(विश्वमूर्ती) समग्रोद्यमौ = Industrious or active. (वाजाय) विज्ञानाय = For knowledge. वाज is from यज — गतौ । गतेस्त्रयो अर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । अत्र ज्ञानार्थग्रहणम्.
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