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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 180 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 180/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वां चि॒द्धि ष्मा॑श्विना॒वनु॒ द्यून्विरु॑द्रस्य प्र॒स्रव॑णस्य सा॒तौ। अ॒गस्त्यो॑ न॒रां नृषु॒ प्रश॑स्त॒: कारा॑धुनीव चितयत्स॒हस्रै॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वाम् । चि॒त् । हि । स्म॒ । अ॒श्वि॒नौ॒ । अनु॑ । द्यून् । विऽरु॑द्रस्य । प्र॒ऽस्रव॑णस्य । सा॒तौ । अ॒गस्त्यः॑ । न॒राम् । नृषु॑ । प्रऽश॑स्तः । कारा॑धुनीऽइव । चि॒त॒य॒त् । स॒हस्रैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवां चिद्धि ष्माश्विनावनु द्यून्विरुद्रस्य प्रस्रवणस्य सातौ। अगस्त्यो नरां नृषु प्रशस्त: काराधुनीव चितयत्सहस्रै: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवाम्। चित्। हि। स्म। अश्विनौ। अनु। द्यून्। विऽरुद्रस्य। प्रऽस्रवणस्य। सातौ। अगस्त्यः। नराम्। नृषु। प्रऽशस्तः। काराधुनीऽइव। चितयत्। सहस्रैः ॥ १.१८०.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 180; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अश्विनौ यथा युवां चिद्धि स्म विरुद्रस्य प्रस्रवणस्य सातवनुद्यून्निजापत्यानुपदिशेतं तथा नरां नृषु प्रशस्तोऽगस्त्यः सहस्रैः काराधुनीव सर्वाश्चितयत्संज्ञापयेत् ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (युवाम्) (चित्) (हि) यतः (स्म) (अश्विनौ) सूर्य्याचन्द्रमसाविव स्त्रीपुरुषौ (अनुद्यून्) प्रतिदिनम् (विरुद्रस्य) विविधा रुद्राः प्राणा यस्मिन् तस्य (प्रस्रवणस्य) प्रकर्षेण गतस्य (सातौ) संविभक्तौ (अगस्त्यः) अगमपराधमस्यन्ति प्रक्षिपन्ति तेषु साधुः (नराम्) मनुष्याणाम् (नृषु) मनुष्येषु (प्रशस्तः) उत्तमः (काराधुनीव) कारान् शब्दान् धूनयतीव (चितयत्) संज्ञापयेत् (सहस्रैः) ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। येऽनिशं सूर्याचन्द्रवत्सन्तानान् विद्योपदेशाभ्यां प्रकाशयन्ति ते प्रशंसिता भवन्ति ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विनौ) सूर्य और चन्द्रमा के तुल्य गुणवाले स्त्री-पुरुषो ! जैसे (युवां, चित्) तुम ही (हि, स्म) जिस कारण (विरुद्रस्य) विविध प्रकार से प्राण विद्यमान उस (प्रस्रवणस्य) उत्तमता से जानेवाले शरीर की (सातौ) संभक्ति में (अनु, द्यून्) प्रतिदिन अपने सन्तानों को उपदेश देओ वैसे उसी कारण (नराम्) मनुष्यों के बीच (नृषु) श्रेष्ठ मनुष्यों में (प्रशस्तः) उत्तम (अगस्त्यः) अपराध को दूर करनेवाला जन (सहस्रैः) हजारों प्रकार से (काराधुनीव) शब्दों को कंपाते हुए वादित्र आदि के समान सबको (चितयत्) उत्तम चितावे ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो स्त्रीपुरुष निरन्तर सूर्य और चन्द्रमा के समान सन्तानों की विद्या और उत्तम उपदेशों से प्रकाशित करते हैं, वे प्रशंसावान् होते हैं ॥ ८ ॥

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    विषय

    प्रभु के अधिकाधिक समीप

    पदार्थ

    १. हे (अश्विनौ) = प्राणापानो ! (युवाम्) = आप (चित् हि) = निश्चय से (प्रस्त्रवणस्य) = जल-प्रवाह की भाँति स्वभाविकी क्रियावाले (रुद्रस्य) = [रुत् र] सृष्टि के प्रारम्भ में वेद द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि का ज्ञान देनेवाले प्रभु की विसातौ विशिष्ट प्राप्ति के निमित्त (अनुद्यून्) = दिनप्रतिदिन स्म होते हो । प्राणसाधना के द्वारा मनुष्य प्रभु के अधिकाधिक समीप होता जाता है। प्राणसाधना मलों को नष्ट करती है, ज्ञान को दीप्त करती है और विवेकख्याति का कारण बनती है। २. यह साधक (नरां अगस्त्यः) = मनुष्यों में कुटिलता को नष्ट करनेवाला होता है। कुटिलता को नष्ट करके (नृषु प्रशस्तः) = मनुष्यों में प्रशस्त जीवनवाला होता है। यह काराधुनी (इव) = [कारा शब्दः । तस्य धूनितोत्पादयिता इव] शंख द्वारा शब्द उत्पन्न करनेवाले के समान (सहस्त्रैः) = अपरिमित स्तोत्रों से (चितयत्) = चेतानेवाला होता है। जैसे शंख बजानेवाला प्रातः शंख की ध्वनि द्वारा सबको प्रबुद्ध करता है, उसी प्रकार यह स्तोत्रों के द्वारा सभी को प्रबुद्ध करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से हम निर्मल जीवनवाले होते हुए प्रभु के अधिकाधिक समीप होते चलें ।

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    विषय

    गृहस्थ स्त्री पुरुषों को उपदेश ।

    भावार्थ

    हे (अश्विनौ) सूर्य चन्द्र, या वायु और सूर्य के समान, व्यापक सामर्थ्य वाले स्त्री पुरुषो ? जिस प्रकार (विरुद्रस्य प्रस्त्रवणस्य सातौ) विशेष गर्जनशील मेघ और जल से पूर्ण नद या झरने के बहा देने के लिये (अगस्त्यः सहस्रैः) वृक्षों को उखाड़ फेंकने वाला वायु सहस्रों गर्जनों से (काराधुनीव) नक्कारे के समान सब स्त्री पुरुषों को सचेत करता है उसी प्रकार ( विरुद्रस्य प्रस्रवणस्य सातौ ) विविध उपदेशों से युक्त, उत्तम श्रवण योग्य ज्ञान प्राप्त कराने के लिये (अगस्त्यः) अज्ञान और पाप अपराधों को उखाड़ फेंकने दाला, (नरां) नायक पुरुषों में से (नृषु) उत्तम नेताओं में (प्रशस्तः) प्रशंसा को प्राप्त सर्वश्रेष्ठ पुरुष (कारधुनि इव) शब्द ध्वनि करने वाले मेघ या नक्कारे के समान (सहस्रः) हज़ारों उपदेशों या बलवान् उपायों से (युवां चितयत्) तुम दोनों को सचेत, प्रबुद्ध और ज्ञानवान् करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ ३, ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे स्त्री-पुरुष सतत सूर्यचंद्राप्रमाणे आपल्या संतानांना विद्या व उत्तम उपदेश देतात, ते प्रशंसनीय ठरतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Ashvins, men and women brilliant as sun and moon, Agastya, excellent man on the path of virtue, highest of the best among people and leaders, every day celebrates you exclusively, in matters of the attainment of dynamic pranic energies of life in a hundred ways in resounding words of universal significance.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The parents should impart good teachings to their children.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men and women ! you are like the sun and the moon, and Agastya -eminent among the leaders of groups. Such a person is the best among throwers of evils and gives teachings to all like his own son, in ways comparable of an instrument of sound.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons become admirable, when they make their progeny illuminated with wisdom and sermons, day and night.

    Foot Notes

    (अगस्त्य:) अगम् अपराधम् अस्यन्ति प्रक्षिपन्ति तेषु साधु: = Best among the throwers of all evils of faults. ( अश्विनौ ) सूर्याचन्द्रमसाविव स्त्रीपुरुषौ । = Husbands and wives who are like the sun and the moon.

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