ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 180/ मन्त्र 3
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒वं पय॑ उ॒स्रिया॑यामधत्तं प॒क्वमा॒माया॒मव॒ पूर्व्यं॒ गोः। अ॒न्तर्यद्व॒निनो॑ वामृतप्सू ह्वा॒रो न शुचि॒र्यज॑ते ह॒विष्मा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । पयः॑ । उ॒स्रिया॑याम् । अ॒ध॒त्त॒म् । प॒क्वम् । आ॒माया॑म् । अव॑ । पूर्व्य॑म् । गोः । अ॒न्तः । यत् । व॒निनः॑ । वा॒म् । ऋ॒त॒प्सू॒ इत्यृ॑तऽप्सू । ह्वा॒रः । न । शुचिः॑ । यज॑ते । ह॒विष्मा॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं पय उस्रियायामधत्तं पक्वमामायामव पूर्व्यं गोः। अन्तर्यद्वनिनो वामृतप्सू ह्वारो न शुचिर्यजते हविष्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। पयः। उस्रियायाम्। अधत्तम्। पक्वम्। आमायाम्। अव। पूर्व्यम्। गोः। अन्तः। यत्। वनिनः। वाम्। ऋतप्सू इत्यृतऽप्सू। ह्वारः। न। शुचिः। यजते। हविष्मान् ॥ १.१८०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 180; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे ऋतप्सू युवं शुचिर्हविष्मान् ह्वारो न वामुस्रियायां पयो आमायां पक्वं गोः पूर्व्यं वनिनो यद्यजतेन्तरस्ति तदवाधत्तम् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(युवम्) युवाम् (पयः) दुग्धम् (उस्रियायाम्) गवि (अधत्तम्) दध्यातम् (पक्वम्) (आमायाम्) अप्रौढायाम् (अव) (पूर्व्यम्) पूर्वैः कृतम् (गोः) (अन्तः) (यत्) (वनिनः) रश्मिमतः (वाम्) युवयोः (ऋतप्सू) ऋतं जलं प्सातो भक्षयतस्तौ। ऋतमित्युदकना०। निघं० १। १२। (ह्वारः) ह्वरस्य क्रोधस्यायं निवारकः (न) इव (शुचिः) पवित्रः (यजते) सङ्गच्छते (हविष्मान्) शुद्धसामग्रीयुक्तः ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सूर्य्यो रसमाकर्षति चन्द्रो वर्षयति पृथिवीं पुष्णाति तथा अध्यापकोपदेशकौ वर्त्तेतां यथा क्रोधादिदोषरहिता जनाः शान्त्यादिभिः सुखानि लभन्ते तथा युवामपि भवेतम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (ऋतप्सू) जल खानेहारे स्त्रीपुरुषो ! (युवम्) तुम दोनों (शुचिः) पवित्र (हविष्मान्) शुद्ध सामग्रीयुक्त (ह्वारः) क्रोध के निवारण करनेवाले सज्जन के (न) समान (वाम्) तुम दोनों की (उस्रियायाम्) गौ में (यत्) जो (पयः) दुग्ध वा (आमायाम्) जो युवावस्था को नहीं प्राप्त हुई उस गौ में (पक्वम्) अवस्था से परिपक्व भाग (गोः) गौ का (पूर्व्यम्) पूर्वज लोगों ने प्रसिद्ध किया हुआ है वा (वनिनः) किरणोंवाले सूर्यमण्डल के (अन्तः) भीतर अर्थात् प्रकाश रूप (यजते) प्राप्त होता है उसको (अवाधत्तम्) अच्छे प्रकार धारण करो ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्यमण्डल रस को खींचता है और चन्द्रमा वर्षाता, पृथिवी की पुष्टि करता वैसे अध्यापक उपदेश करनेवाले वर्त्ताव रक्खें। जैसे क्रोधादि दोषरहित जन शान्ति आदि गुणों से सुखों को प्राप्त होते हैं, वैसे तुम भी होओ ॥ ३ ॥
विषय
१. हे प्राणापानो! आप ही (गो:) = इस वेदवाणी के (पूर्व्यम्) = सृष्टि के आरम्भ में दिये जानेवाले (पक्वम्) = पूर्ण परिपक्व (पयः) = ज्ञानदुग्ध को हमारी इस (आमायाम्) = अपरिपक्व बुद्धि में (उस्त्रियायाम्) = [brightness, light] प्रकाश के निमित्त (अवाधत्तम्) = स्थापित करते हो । वेदज्ञान सृष्टि के आरम्भ में दिये जाने से पूर्व्य' है, भ्रान्तिशून्य, पूर्ण होने से यह पक्व है। हमारी अपरिपक्व बुद्धि में इसकी स्थापना प्राणसाधना के द्वारा होती है। इसके स्थापित होने पर हमारी बुद्धि प्रकाशित हो उठती है। २. (यत्) = जब (वाम्) = आप दोनों (वनिन:) = उपासक के (अन्तः) = अन्दर (ऋतप्सू) = [One whose form is truth] सत्य स्वरूपवाले होते हो तो वह उपासक (न ह्वारः) = कुटिल नहीं होता–कुटिलता को छोड़कर सरलता को अपनाता है, (शुचिः) = पवित्र होता है, सुपथ से ही धनार्जन करता है 'योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारि शुचिः शुचिः । (यजते) = यह यज्ञशील होता है, यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहता है, (हविष्मान्) = उत्तम हविवाला बनता है, सदा त्यागपूर्वक अदनवाला होता है [हु दानादनयोः] । प्राण से जीवन दग्धदोष होकर पवित्र हो जाता है, इसीलिए प्राणापानों को यहाँ 'ऋतप्सु' कहा गया है। - सदा
पदार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हमारी बुद्धि में ज्ञान का प्रकाश होता है। हमारे दोषों का दहन होकर हम अकुटिल, पवित्र, यज्ञशील व दानपूर्वक अदन करनेवाले बनते हैं ।
विषय
गृहस्थ स्त्री पुरुषों को उपदेश ।
भावार्थ
जब ( वनिनः ह्वारः न ) सूर्य के ताप और प्रकाश के समान ( शुचिः ) शुद्ध अन्तः करण और आचारवान् ( हविष्मान् ) उत्तम ज्ञानवान् पुरुष ( ऋतप्सू वाम् ) सत्य ज्ञान को प्राप्त करने के अभिलाषी आप दोनों के ( अन्तः यजते ) भीतर ज्ञान का प्रदान करे, तब ( युवं ) तुम दोनो, हे स्त्री पुरुषो ! ( आमायाम् ) अपक्व, कच्ची, कम अनुभववाली ( उस्त्रियायाम् ) स्वयं उन्नति की तरफ जाने वाली बुद्धि में ( गोः ) वेदवाणी का ( पूर्व्यं ) पूर्व विद्वानों द्वारा साक्षात् किया, उत्तम रीति से विचारित, ( पक्वम् ) पक्व, सत्य, दृढ़, ( पयः ) सारभूत ज्ञान को ( अधत्तम् ) धारण करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ ३, ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे सूर्यमंडळ रस ओढून घेते व चंद्र वर्षाव करतो व पृथ्वीला पुष्ट करतो तसे अध्यापक व उपदेशकांनी वागावे. जसे क्रोध इत्यादी दोषरहित लोक शांती इत्यादी गुणांनी सुख प्राप्त करतात, तसे तुम्ही व्हा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, truth incarnate, feeding on rectitude and law of nature, you create the milk in the cow’s udders, you create the milk potential in the maturing cow. The sylvan sage, pure at heart, bearing fragrant materials like a patient kindly saint offers you homage and longs for your company.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men and women ! you are seekers after true knowledge and are takers of pure water (learning). A highly learned and pure person shines like the rays of the sun and wards off anger during the performance of Yajnas with knowledge. Then replace your immature intellect, with the mature and essential knowledge of the experienced and the wise men like milk of milch cow.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As sun attracts the juice of plants and the moon supports the earth through herbs ete. Same manner let the teachers and the preachers behave. As the men free from anger, jealousness, pride and other evils enjoy happiness and peace, so you should also do.
Foot Notes
(ह्वारः) ह्वरस्य क्रोधस्यायं निवारकः = Remover of anger. (वनिनः) रश्मिमतः = Of the sun ( ऋतप्सू ) ऋतं जलं प्सातो भक्षयतस्तौ । ऋत-मित्युदक नाम (NG. 1.12) = Those who take pure water (knowledge) etc.
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