ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 182/ मन्त्र 4
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
ज॒म्भय॑तम॒भितो॒ राय॑त॒: शुनो॑ ह॒तं मृधो॑ वि॒दथु॒स्तान्य॑श्विना। वाचं॑वाचं जरि॒तू र॒त्निनीं॑ कृतमु॒भा शंसं॑ नासत्यावतं॒ मम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठज॒म्भय॑तम् । अ॒भितः॑ । राय॑तः । शुनः॑ । ह॒तम् । मृधः॑ । वि॒दथुः॑ । तानि॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । वाच॑म्ऽवाचम् । ज॒रि॒तुः । र॒त्निनी॑म् । कृ॒त॒म् । उ॒भा । संस॑म् । ना॒स॒त्या॒ । अ॒व॒त॒म् । मम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जम्भयतमभितो रायत: शुनो हतं मृधो विदथुस्तान्यश्विना। वाचंवाचं जरितू रत्निनीं कृतमुभा शंसं नासत्यावतं मम ॥
स्वर रहित पद पाठजम्भयतम्। अभितः। रायतः। शुनः। हतम्। मृधः। विदथुः। तानि। अश्विना। वाचम्ऽवाचम्। जरितुः। रत्निनीम्। कृतम्। उभा। शंसम्। नासत्या। अवतम्। मम ॥ १.१८२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 182; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे नासत्याश्विना यौ युवां शुनो रायतो दुष्टानभितो जम्भयतं मृधो हतं तानि विदथुर्जरितू रत्निनीं वाचंवाचञ्च विदथुः। शंसं कृतं तावुभा मम वाणीमवतम् ॥ ४ ॥
पदार्थः
(जम्भयतम्) विनाशयतम् (अभितः) सर्वतः (रायतः) शब्दयतः (शुनः) कुक्कुरान् (हतम्) नाशयतम् (मृधः) संग्रामान् (विदथुः) विजानीथः (तानि) वचांसि (अश्विना) विद्याबलव्यापिनौ (वाचंवाचम्) (जरितुः) स्तोतुरध्यापकादुपदेशकात् (रत्निनीम्) रमणीयाम् (कृतम्) कुरुतम् (उभा) (शंसम्) स्तुतिम् (नासत्या) अविद्यमानसत्यौ (अवतम्) (मम) ॥ ४ ॥
भावार्थः
येषां दुष्टबन्धने शत्रुविजये विद्वदुपदेशस्वीकारे च सामर्थ्यमस्ति त एवास्माकं रक्षकाः सन्तु ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नासत्या) सत्य व्यवहार वर्त्तने और (अश्विना) विद्या बल में व्याप्त होनेवाले सज्जनो ! जो तुम (रायतः) भौंकते हुए मनुष्यभक्षी दुष्ट (शुनः) कुत्तों को (अभितः, जम्भयतम्) सब ओर से विनाशो तथा (मृधः) संग्रामों को (हतम्) विनाशो और (तानि) उन सब कामों को (विदथुः) जानते हो तथा (जरितुः) स्तुति प्रशंसा करनेवाले अध्यापक और उपदेशक से (रत्निनीम्) रमणीय (वाचंवाचम्) वाणी वाणी को जानते हो और (शंसम्) स्तुति (कृतम्) करो वे (उभा) दोनों तुम (मम) मेरी वाणी को (अवतम्) तृप्त करो ॥ ४ ॥
भावार्थ
जिनका दुष्टों के बाँधने, शत्रुओं के जीतने और विद्वानों के उपदेश के स्वीकार करने में सामर्थ्य है, वे ही हम लोगों के रक्षक होते हैं ॥ ४ ॥
विषय
भौंकनेवाले कुत्ते का विनाश
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (अभितः) = सब ओर से (रायतः) = [रै-to bark at] हम पर भौंकते हुए, हमें मारने के लिए आगे बढ़ते हुए (शुन:) = इन कुत्तों की, लोभ के कारण परस्पर झगड़ने की वृत्तियों को (जम्भयतम्) = नष्ट करो । (मृधः) = हमें नष्ट करनेवाले काम-क्रोधादि शत्रुओं को (हतम्) = मार दो । हे प्राणापानो! आप (तानि) = उन साधनों को विदथुः जानते हो जिनसे कि इन अशुभ वृत्तियों का संहार होता है। प्राणसाधना से लोभ, काम, क्रोध नष्ट होते हैं । २. हे (नासत्या) = सब असत्यों को नष्ट करनेवाले प्राणापानो! आप (जरितुः) = स्तोता की (वाचं वाचम्) = प्रत्येक वाणी को (रत्लिनीम्) = रमणीय शब्दोंवाला (कृतम्) = कीजिए । स्तोता की वाणी ऐसी सुन्दर हो मानो रत्नजटित हो । (उभा) = आप दोनों (मम) = मेरे (शंसम्) = शंसन को-प्रभु-स्तवन को (अवतम्) = रक्षित करो। आपकी कृपा से मैं सदा प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाला बना रहूँ ।
भावार्थ
भावार्थ – प्राणसाधना से (क) लोभ व काम-क्रोध नष्ट होते हैं, (ख) वाणी शुभ शब्दों से रमणीय होती है, (ग) प्रभु-उपासन की वृत्ति बनी रहती है ।
विषय
राष्ट्र के दो उत्तम पदाधिकारियों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( अभितः ) सब ओर से ( रायतः ) निन्दा करने वाले, भौंकते और भयंकर चीत्कार आदि करते हुए ( शुनः ) कुत्ते के स्वभाव के जन्तुओं और शत्रुओं को ( जम्भयतम् ) अच्छी प्रकार नाश करो । (मृधः हतम् ) संग्राम कारी पुरुषों को मारो । हे (अश्विना) विद्या और बल से युक्त स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (तानि) उक्त कर्मों के करने के नाना साधनों को ( विदथुः ) प्राप्त करो और जानो ! और आप लोग ही ( जरितुः ) उत्तम उपदेष्टा से विद्या प्राप्त करके ( वाचं वाचं ) हरेक वाणी को ( रत्निनीम् ) उत्तम रमणीय गुणों से अलंकृत, रत्नों से जड़ी लड़ी के समान ( कृतम् ) बनाओ। ऐसे आप दोनों ही ( नासत्या ) कभी असत्याचरण न करते हुए ( मम शंसम् ) मेरी उत्तम प्रशंसनीय गुण और स्तुति और उपदेश को ( अवतम् ) जानो और उसका पालन करो । (२) अध्यात्म में—श्ववृत्ति, कुत्सित वचन कहने वाली, पाप सिखाने वाली इन्द्रियों को दमन करो, बाधाओं को दूर करो, उन २ उत्तम उपाय को जानो, वाणी को सुन्दर मोतियों से जड़ लो । विद्वान् के कहे उत्तम उपदेश का पालन करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ५, ७ निचृज्जगती । २ स्वराट् त्रिष्टुप्। ३ जगती। ४ विराड् जगती । ६, ८ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे दुष्टांना बंधनात ठेवतात, शत्रूंना जिंकतात व विद्वानांचा उपदेश स्वीकारण्याचे ज्यांचे सामर्थ्य असते, तेच आपले रक्षक असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, crush all round those who bark like dogs. Eliminate the wars and war mongers. You know them. Richly fructify and reward every word of the devotees’ song of praise with the gift of jewels. Lords of truth, protect and promote my honour and my song of celebration.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Only strong and implementators of sermons protect the people.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! pervading in the power of knowledge, you annihilate wicked persons who are like the barking mad dogs. Slay those who battle against us. (the external and eternal enemies in the form of lust, anger, pride and jealousy etc.). You know them well through teachers and preachers, who are worshippers of God with their illuminating speech. O absolutely truthful enlightened persons ! protect my praises.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
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Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Let those be our protectors who possess the power of annihilating the enemies and our adversaries. They gladly accept the teachings of the enlightened persons.
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