ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 182/ मन्त्र 7
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
कः स्वि॑द्वृ॒क्षो निःष्ठि॑तो॒ मध्ये॒ अर्ण॑सो॒ यं तौ॒ग्र्यो ना॑धि॒तः प॒र्यष॑स्वजत्। प॒र्णा मृ॒गस्य॑ प॒तरो॑रिवा॒रभ॒ उद॑श्विना ऊहथु॒: श्रोम॑ताय॒ कम् ॥
स्वर सहित पद पाठकः । स्वि॒त् । वृ॒क्षः । निःऽस्थि॑तः । मध्ये॑ । अर्ण॑सः । यम् । तौ॒ग्र्यः । ना॒धि॒तः । प॒रि॒ऽअष॑स्वजत् । प॒र्णा । मृ॒गस्य॑ । प॒तरोः॑ऽइव । आ॒ऽरभे॑ । उत् । अ॒श्वि॒ना॒ । ऊ॒ह॒थुः॒ । श्रोम॑ताय । कम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कः स्विद्वृक्षो निःष्ठितो मध्ये अर्णसो यं तौग्र्यो नाधितः पर्यषस्वजत्। पर्णा मृगस्य पतरोरिवारभ उदश्विना ऊहथु: श्रोमताय कम् ॥
स्वर रहित पद पाठकः। स्वित्। वृक्षः। निःऽस्थितः। मध्ये। अर्णसः। यम्। तौग्र्यः। नाधितः। परिऽअषस्वजत्। पर्णा। मृगस्य। पतरोःऽइव। आऽरभे। उत्। अश्विना। ऊहथुः। श्रोमताय। कम् ॥ १.१८२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 182; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विनावर्णसो मध्ये कः स्विद्वृक्षो निष्ठितो यं नाधितस्तौग्र्यः पर्य्यषस्वजन्मृगस्य पतरोरिव पर्णा श्रोमतायारभे कमुदूहथुः ॥ ७ ॥
पदार्थः
(कः) (स्वित्) प्रश्ने (वृक्षः) (निष्ठितः) नितरां स्थितः (मध्ये) (अर्णसः) जलस्य (यम्) (तौग्र्यः) तुग्रेषु बलवत्सु भवः (नाधितः) उपतप्तः (पर्य्यषस्वजत्) परिष्वजति (पर्णा) पर्णानि (मृगस्य) मार्जयितुं योग्यस्य (पतरोरिव) गन्तुरिव (आरभे) आरब्धुम् (उत्) ऊर्ध्वे (अश्विना) जलाग्नी इव निर्मातुवोढारौ (ऊहथुः) वहतः (श्रोमताय) प्रशस्तकीर्त्तियुक्ताय व्यवहाराय (कम्) ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे नौयानियोऽर्णवस्य मध्ये कश्चिद्वृक्षोऽस्ति यस्मिन् बद्धा नौकास्तिष्ठेयुरिति। न तत्र वृक्षो नाप्यन्याधारः किन्तु नावएवाऽऽधारोऽरित्राण्येव स्तम्भनानि। एवमेव यथा पक्षिण ऊर्ध्वं गत्वाऽधः पतन्ति तथैव विमानानि सन्तीत्युत्तरम् ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) जल और अग्नि के समान विमानादि यानों के रचने और पहुँचानेवाले विद्वानो ! (अर्णसः) जल के (मध्ये) बीच में (कः, स्वित्) कौन (वृक्षः) वृक्ष (निष्ठितः) निरन्तर स्थिर हो रहा है (यम्) जिसको (नाधितः) कष्ट को प्राप्त (तौग्र्यः) बलवानों में प्रसिद्ध हुआ पुरुष (पर्यषस्वजत्) लगता अर्थात् जिसमें अटकता है और (मृगस्य) शुद्ध करने योग्य (पतरोरिव) जाते हुए प्राणी के (पर्णा) पङ्खों के समान (श्रीमताय) प्रशस्त कीर्त्तियुक्त व्यवहार के लिये (आरभे) आरम्भ करने को (कम्) कौन यान को (उत्, ऊहथुः) ऊपर के मार्ग से पहुँचाते हो ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे नौका पर जानेवालो ! समुद्र में कोई वृक्ष है जिसमें बन्धी हुई नौका स्थित हों, वहाँ नहीं वृक्ष और न आधार है किन्तु नौका ही आधार, वल्ली ही खम्भे हैं, ऐसे ही जैसे पखेरू ऊपर को जाय फिर नीचे आते हैं वैसे ही विमानादि यान हैं ॥ ७ ॥
विषय
भवसागर में आश्रयभूत वृक्षरूप प्रभु
पदार्थ
१. (मध्ये अर्णसः) = इस भवसागर के जल के मध्य में (स्वित्) = निश्चय से (कः) = वह अनिरुक्त प्रजापति व आनन्दमय प्रभु (वृक्षः निष्ठितः) = आलम्बनभूत वृक्ष के समान निश्चितरूप से स्थित है । (यम्) = यह वह वृक्ष है, जिसको (नाधित:) = संसार के विषयों में फँसने से उपतप्त हुआ हुआ [नाध= उपतापे] (तौग्रय:) = [water, आप: रेतो भूत्वा०] रेतःकणों का संयम करनेवाला व्यक्ति (पर्यषस्वजत्) = आलिंगन करता है। प्रभु का आश्रय मिलते ही यह तौद्र्य भव- सागर के विषयजल में डूबने से बच जाता है । २. (इव) = जैसे (पतरो:) = गिरते हुए (मृगस्य) = [शाखामृगस्य] वानर के (आरभे) = आश्रय के लिए (पर्णा) = पत्ते होते हैं, उसी प्रकार (अश्विना) = हे प्राणापानो! आप इस विषयजल में डूबनेवाले मनुष्य को (श्रीमताय) = प्रशस्त कीर्तियुक्त व्यवहार के लिए (कम् उत् ऊहथुः) = उस आनन्दमय प्रभु के समीप प्राप्त कराते हो । ये प्रभु इस तौग्रय के आश्रय बनते हैं और यह विषय- जलों में डूबने से बच जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - इस संसार- समुद्र में प्रभु ही आधार बनकर हमें डूबने से बचाते हैं।
विषय
राष्ट्र के दो उत्तम पदाधिकारियों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( अर्णसः मध्ये ) जल के बीच में ( कः स्वित् वृक्षः ) कौनसा वह वृक्ष ( निष्ठितः ) खूब अच्छी प्रकार दृढ़ता से स्थित है (यं) जिसको ( तौग्र्यः ) उत्तम बलवान् पुरुष भी ( नाधितः ) जल के बीच अति दुःखी संतप्त होकर एवं आशावान् होकर ( परि असस्वजत् ) खूब अच्छी प्रकार पकड़ लेता है ? ( पतरोः इव मृगस्य ) गिरते हुए वानर के लिये ( पर्णा ) जिस प्रकार पत्तै ही ( आरभे ) उसको सम्भालने के लिये पर्याप्त होते हैं उसी प्रकार ( अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुष भी ( पतरोः ) गिरने वाले, ( मृगस्य ) आश्रय की खोज लगाने वाले पुरुष के ( आरभे ) आलम्बन के लिये ( पर्णानि ) पालन करने वाले साधन बनकर ( श्रोमताय ) अपने कीर्ति के लिये उसे (उद् ऊहथुः) ऊपर उठा लिया करें । पूर्व प्रश्न का उत्तर है—जिस प्रकार जल से भरे सागर के बीच आलम्बन के लिये वह वृक्ष की बनी नौका ही है जिसे व्यापारी वा परराष्ट्र विजयी आश्रय के लिये पकड़ता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ५, ७ निचृज्जगती । २ स्वराट् त्रिष्टुप्। ३ जगती। ४ विराड् जगती । ६, ८ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे नावेत प्रवास करणाऱ्यांनो! समुद्रात एकही वृक्ष नाही ज्याला नाव बांधलेली असते. तेथे वृक्ष किंवा इतर कोणताही आधार नाही तर नावच आधार व वल्हेच स्तंभ आहेत. पक्षी जसे वर उडतात व खाली येतात तसे विमान इत्यादी याने आहेत. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, pilots of the sea and sky, what sort of tree, post, is that standing in the midst of the deep sea to which the powerful but afflicted marine team holds on? What sailing and flying machine is that which like the wings of a soaring bird you work up and down for your honour and glory?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The direction of navigation and fights are run with sophisticated instruments.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins manufacturers and carriers of the ship (with water and power)! do you think that there is any tree or pillar to anchor the ship in the midst of the ocean? No. An anxious son of a powerful man was carried by you and it has increased your reputation safely. You carry these boats and aircrafts up and down with its paddles and propellers.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O manufacturers and captains of the boat or ship! is there a tree in the midst of the ocean from which the boats are anchored ? No, there is no tree nor any other support, but there are steamers and there are the oars. As there are the birds that go up and down, in the same manner, there are aircrafts. This is the reply.
Foot Notes
(अश्विना) जलाग्नी इव निर्मातृ वोढारौ = Manufacture and carrier of the boat or steamer like water and fire. (नाधित:) उपलप्स: = Sad suffering. (श्रीमताय) प्रशस्तकीर्तियुक्ताय व्यवहाराय = For a dealing leading to renoun.
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