ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 182/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
तद्वां॑ नरा नासत्या॒वनु॑ ष्या॒द्यद्वां॒ माना॑स उ॒चथ॒मवो॑चन्। अ॒स्माद॒द्य सद॑सः सो॒म्यादा वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । वा॒म् । न॒रा॒ । ना॒स॒त्यौ॒ । अनु॑ । स्या॒त् । यत् । वा॒म् । माना॑सः । उ॒चथ॑म् । अवो॑चन् । अ॒स्मात् । अ॒द्य । सद॑सः । सो॒म्यात् । आ । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्वां नरा नासत्यावनु ष्याद्यद्वां मानास उचथमवोचन्। अस्मादद्य सदसः सोम्यादा विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। वाम्। नरा। नासत्यौ। अनु। स्यात्। यत्। वाम्। मानासः। उचथम्। अवोचन्। अस्मात्। अद्य। सदसः। सोम्यात्। आ। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१८२.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 182; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः साधारणतयाऽध्यापकोपदेशकविषयमाह ।
अन्वयः
हे नरा नासत्यौ यद्वां युवयोरिष्टमनुष्यात्तद्वां भवतु मानासो यदुचथमवोचंस्तद्युवां गृह्णीयाताम्। यथाऽद्यास्मात्सोम्यात्सदस इषं वृजनं जीरदानुं वयमाविद्याम तथैतद्युवामप्याप्नुतम् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(तत्) (वाम्) युवयोः (नरा) नेतारौ (नासत्यौ) असत्याचारविरहितौ (अनु) (स्यात्) (यत्) (वाम्) युवयोः (मानासः) विज्ञानवन्तः (उचथम्) वक्तुं योग्यम् (अवोचन्) कथयेयुः (अस्मात्) (अद्य) (सदसः) सभातः (सोम्यात्) सोमगुणसम्पन्नात् (आ) (विद्याम) (इषम्) इच्छासिद्धिम् (वृजनम्) बलम् (जीरदानुम्) जीवनोपायम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यस्येदं समुचितमस्ति यत्स्वार्थमिच्छेत्परार्थमपीच्छेत्। विद्वांसो यद्यदुपदिशेयुस्तत्तत्प्रीत्या सर्वे गृह्णीयुरिति ॥ ८ ॥अत्र विद्वत्कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति द्व्यशीत्युत्तरं शततमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर साधारण भाव से अध्यापक और उपदेशक के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नरा) नायक अग्रगामी (नासत्यौ) असत्य आचरण से रहित अध्यापकोपदेशको ! (यत्) जो (वाम्) तुम दोनों को (अनु, ष्यात्) चाहते हुए के अनुकूल हो (तत्) वह आप लोगों को हो अर्थात् परिपूर्ण हो और (मानासः) विचारशील सज्जन पुरुष (यत्) जिस (उचथम्) कहने योग्य विषय को (अवोचन्) कहें उसको तुम दोनों ग्रहण करो, जैसे (अद्य) आज (तस्मात्) इस (सोम्यात्) सोम गुण सम्पन्न (सदसः) सभास्थान से (इषम्) इच्छासिद्धि (वृजनम्) बल (जीरदानुम्) जीवन के उपाय को हम लोग (आ) (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य को यह अच्छे प्रकार उचित है कि अपने प्रयोजन को चाहे तथा परोपकार भी चाहे और विद्वान् जन जिस जिसका उपदेश करें उस उसको प्रीति से सब लोग ग्रहण करें ॥ ८ ॥इस सूक्त में विद्वानों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ बयासीवाँ सूक्त और अट्ठाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
नर व नासत्य
पदार्थ
१. हे (नरा) = हमें उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले (नासत्या) = असत्य से रहित प्राणापानो ! (तत्) = वह (वाम्) = आपका (उचथम्) = स्तोत्र (अनुष्यात्) = अनुकूल हो (यत्) = जिस (वाम्) = आपके स्तोत्र को (मानासः) = पूजा करनेवाले लोग (अवोचन्) = उच्चारित करते हैं। स्तोत्र की अनुकूलता का भाव यह है कि जैसा स्तवन किया जाए वैसी ही क्रिया हो । यहाँ प्राणापान को नरा कहा है, स्तोता भी नर हो - अपने को आगे और आगे ले-चलनेवाला हो । प्राणापान को 'नासत्या' शब्द से स्मरण किया है-उपासक भी असत्य से रहित जीवनवाला हो। यही स्तोत्र का अनुकूल होना है कि हम स्तुत्य के अनुसार जीवनवाले बनें । २. (अद्य) = आज हम (अस्मात्) = इस (सदस:) = [सीदति इति] हम सबके हृदयों में आसीन होनेवाले (सोम्यात्) = शान्ति के पुञ्ज उस प्रभु से (इषम्) = प्रेरणा को, (वृजनम्) = पाप के वर्जन व शक्ति को तथा (जीरदानुम्) = दीर्घजीवन को (आविद्याम) = सर्वथा प्रात करें। इस प्रेरणा व शक्ति को प्राप्त करके ही हम जीवन में 'नर व नासत्य' बन पाएँगेआगे बढ़नेवाले तथा असत्य से दूर ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हम प्रभु-प्रेरणा को प्राप्त करके 'नर व नासत्य' बनें ।
विषय
राष्ट्र के दो उत्तम पदाधिकारियों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( नासत्या ) सदा सत्यभाषण, मनन और आचरण न करने वाले हे (नरा) नर नारी जनो ! ( वां ) तुम दोनों के ( मानासः ) ज्ञानवान् माननीय पुरुष जो ( उचथम् ) वेदोपदेश ( अवोचन ) करें । ( वां तद् ) वह तुम दोनों को ( अनु स्यात् ) सदा अनुकूल हो । ( अस्मात् ) इस (सोम्यात्) विद्वानों की (सदसः) सभा से ( अद्य ) आज अर्थात् अभी (आ) तुम निर्णय, व्यवस्था आदि प्राप्त करो। इस प्रकार हम सब लोग ( इषं ) उत्तम मनोकामना और ( वृजनं ) बल और ( जीरदानुम् ) दीर्घ जीवन ( विद्याम ) प्राप्त करें । इति अष्टाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ५, ७ निचृज्जगती । २ स्वराट् त्रिष्टुप्। ३ जगती। ४ विराड् जगती । ६, ८ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी योग्य प्रयोजन व परोपकार यांची इच्छा बाळगावी. विद्वान लोक ज्या ज्या गोष्टीचा उपदेश करतात त्याला सर्वांनी प्रेमाने स्वीकारावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, leaders of light ever committed to truth and shunning untruth, whatever words of appreciation and celebration venerable people have said in your honour, may all that be auspicious to you, being true to your character and performance. And may we today from this yajnic hall of joy and bliss receive and carry away food and energy to our heart’s desire, knowledge and strength to live along the right path, and the breath and life of the mind and spirit.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again the theme of teachers and preachers is taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O absolutely truthful and leading teachers and preachers! May you get that you desire. The noble words that are uttered by the men endowed with knowledge should be acceptable by you. May we obtain the fulfilment of our desires, strength and the means of livelihood from this great and peaceful assembled group.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is proper on the part every one to desire others, welfare along with his own. Whatever is taught by the enlightened persons, should be consented by all lovingly.
Foot Notes
(मानासः) विज्ञानवन्तः = Men endowed with knowledge. (जीरदानुम) जीवनोपायम् = The means of livelihood
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