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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 183 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 183/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒वृद्रथो॑ वर्तते॒ यन्न॒भि क्षां यत्तिष्ठ॑थ॒: क्रतु॑म॒न्तानु॑ पृ॒क्षे। वपु॑र्वपु॒ष्या स॑चतामि॒यं गीर्दि॒वो दु॑हि॒त्रोषसा॑ सचेथे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽवृत् । रथः॑ । व॒र्त॒ते॒ । यन् । अ॒भि । क्षाम् । यत् । तिष्ठ॑थः । क्रतु॑ऽमन्ता । अनु॑ । पृ॒क्षे । वपुः॑ । व॒पु॒ष्या । स॒च॒ता॒म् । इ॒यम् । गीः । दि॒वः । दु॒हि॒त्रा । उ॒षसा॑ । स॒चे॒थे॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुवृद्रथो वर्तते यन्नभि क्षां यत्तिष्ठथ: क्रतुमन्तानु पृक्षे। वपुर्वपुष्या सचतामियं गीर्दिवो दुहित्रोषसा सचेथे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽवृत्। रथः। वर्तते। यन्। अभि। क्षाम्। यत्। तिष्ठथः। क्रतुऽमन्ता। अनु। पृक्षे। वपुः। वपुष्या। सचताम्। इयम्। गीः। दिवः। दुहित्रा। उषसा। सचेथे इति ॥ १.१८३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 183; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे क्रतुमन्ता यानसाधकचालकौ युवां सुवृद्रथः क्षां यन्नभि वर्त्तते यत्पृक्षे युवां तिष्ठथो यद्वपुरस्ति येन वपुष्यानु सचतां यथेयं गीर्वक्ता च दिवो दुहित्रोषसा सह युवां सचेथे तथा कथन्न भाग्यशालिनौ भवथः ? ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (सुवृत्) यस्सुवर्त्तुमर्हः (रथः) रन्तुं योग्यः (वर्त्तते) (यन्) गच्छन्। इण् धातोः शतृप्रत्ययो यणादेशश्च। (अभि) अभितः (क्षाम्) पृथिवीम् (यत्) यस्मिन् (तिष्ठथः) (क्रतुमन्ता) बहुप्रज्ञायुक्तौ (अनु) (पृक्षे) सम्पर्के (वपुः) रूपम् (वपुष्या) वपुषि भवानि (सचताम्) (इयम्) (गीः) सुशिक्षिता वाक् (दिवः) सूर्य्यस्य (दुहित्रा) या कन्येव वर्त्तमाना तया (उषसा) प्रभातवेलया (सचेथे) संयुङ्क्थः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    मनुष्या येन यानेन गन्तुमिच्छेयुस्तत्सुन्दरं पृथिव्यादिषु सद्योगमनयोग्यमुषाइव प्रकाशमानं यथा तथा सुविचारेण रचयन्तु ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (क्रतुमन्ता) बहुत उत्तम बुद्धियुक्त रथों के चलाने और सिद्ध करनेवाले विद्वानो ! तुम (सुवृत्) सुन्दरता से स्वीकार करने (रथः) और रमण करने योग्य रथ (क्षाम्) पृथिवी को (यन्) जाता हुआ (अभि) सब ओर से (वर्त्तते) वर्त्तमान है, (यत्) जिसमें (पृक्षे) दूसरों के सम्बन्ध में तुम लोग (तिष्ठथः) स्थिर होते हो और जो (वपुः) रूप है अर्थात् चित्र सा बन रहा है उस सबसे (वपुष्या) सुन्दर रूप में प्रसिद्ध हुए व्यवहारों का (अनु, सचताम्) अनुकूलता से सम्बन्ध करो और जैसे (इयम्) यह (गीः) सुशिक्षित वाणी और कहनेवाला पुरुष (दिवः) सूर्य को (दुहित्रा) कन्या के समान वर्त्तमान (उषसा) प्रभात वेला से तुम दोनों को (सचेथे) संयुक्त होते हैं वैसे कैसे न तुम भाग्यशाली होते हो ? ॥ २ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य जिस यान से जाने को चाहें वह सुन्दर पृथिव्यादिकों में शीघ्र चलने योग्य प्रभात वेला के समान प्रकाशमान जैसे वैसे अच्छे विचार से बनावें ॥ २ ॥

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    विषय

    यज्ञ व स्वाध्याय

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो! आपका यह (सुवृत्) = शोभनरूप में होनेवाला, अर्थात् जिसके सब अङ्गप्रत्यङ्ग ठीक हैं, वह (रथः) = शरीररूप रथ (क्षाम्) = इस देवयजनी पृथिवी की (अभि) = ओर (यन्) = गति करता हुआ वर्तते है। यह उस समय यज्ञवेदि की ओर गति करता हुआ होता है (यत्) = जब (क्रतुमन्ता) = यज्ञशील आप (पृक्षे) = हवि देने पर अर्थात् दानपूर्वक अदन को अपनाने पर (अनुतिष्ठथ:) = अनुकूलता से इस रथ पर अधिष्ठित होते हो । प्राणापान से अधिष्ठित यह शरीर-रथ यज्ञवेदि की ओर चलनेवाला होता है, अर्थात् प्राणसाधना से हमारी वृत्ति यज्ञिय बनती है। २. इस प्राणसाधना के होनेपर (वपुष्या) = हमारे शरीर के लिए हितकर (इयं गी:) = यह वेदवाणी (वपुः सचताम्) = हमारे शरीर के साथ समवेत हो । हम इस वेदवाणी को अपनानेवाले हों । प्राणसाधना से बुद्धि की तीव्रता होती है और इस वेदवाणी का अपनाना सरल हो जाता है। ३. हे प्राणापानो ! आप (दिवः दुहिता) = ज्ञान का पूरण करनेवाली (उषासा) = उषाओं के साथ (सचेथे) = समवेत होते हो, अर्थात् प्राणसाधना से हम उषाकाल से ही स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त होकर अपने ज्ञान को बढ़ानेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से हमारी वृत्ति यज्ञादि उत्तम कर्मों की ओर होती है और हम उषाकाल से ही स्वाध्याय में प्रवृत्त होकर ज्ञान का वर्धन करनेवाले होते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् स्त्री पुरुषों को उपदेश। त्रिवन्धुर त्रिचक्र रथ की व्याख्या।

    भावार्थ

    ( सुवृत् रथः क्षाम् अभि यन् वर्त्तते ) जिस प्रकार उत्तम रीति से, सुख से चलने हारा, रमण साधन यान आदि रथ, पृथिवी के चारों ओर जाया करता है ( यत् अनु पृक्षे क्रतुमन्तौ तिष्ठथः ) जिस पर अन्नादि ग्राह्य पदार्थों के प्राप्त करने के लिये काम काज वाले आदमी बैठते हैं उसी प्रकार हे स्त्री पुरुषो जो (सुवृत्) उत्तम रीति से वर्त्तने वाला, सत्आचार युक्त ( रथः ) रमण करने और कराने वाला, (क्षाम् अभियन्) निवास योग्य भूमि के समान अपने आश्रय पर बसाने वाली स्त्री को प्राप्त होकर ( वर्त्तते ) रहता है ( यत् अनु ) जिस में (पृक्षे ) परस्पर के सम्पर्क, संग अनुराग और प्रेम या अन्न के आधार पर रहकर ( क्रतुमन्ता ) दोनों कार्य कुशल स्त्री पुरुष ( तिष्ठथः ) विराजते हैं । हे स्त्री पुरुषो ! ( इयं ) यह ( वपुष्या ) देह में उत्तम रीति से उत्पन्न होने वाली ‘स्वयं’ या देह में उत्पन्न अन्य गुणों को ( वपुः ) और उत्तम रूप को भी ( सचताम् ) प्राप्त करे। ( दिवः दुहिना ) सूर्य की कन्या ( उषसा ) उषा अर्थात् प्रभात वेला के सदा नये रूप में प्रकट होने वाले ( दिवः दुहित्रा ) कामनाओं को पूर्ण करने वाले और कान्तियुक्त रूप से युक्त होकर, सुप्रसन्न वदन होकर तुम दोनों स्त्री पुरुष परस्पर ( सचेथे ) मिलकर रहो। अथवा ( इयं गीः ) यह वाणी प्रेम वृद्धि करने वाली बात चीत (र्वपुष्या) बीज वपन और सन्तान वृद्धि के निमित्त होकर (वपुः) उत्तम सन्तति वपन या उत्तम स्वरूप या परिणाम को प्राप्त करे । अर्थात् इसका उत्तम फल हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणूस ज्या यानाने जाऊ इच्छितो ते पृथ्वी इत्यादीवर तात्काळ फिरण्यायोग्य, उषःकालाप्रमाणे प्रकाशमान, विचारपूर्वक तयार करावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, committed explorers in search of fragrance for your yajnic inputs, the chariot you ride is firmly wheeled and revolves round and round approaching the earth. Believe this message of mine, an exact description of your form in words: you look like the dawn, child of the sun on the rise descending over the earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Our aircraft should be pretty good.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O intelligent manufacturer and driver of the vehicles ! your aircraft goes round the earth, and then lands at the end of flight. Let its beautiful form come in contact with other objects (planet and stars even). May this cultured and refined speech and its speaker associate with the dawn, daughter of the sun. It is a simile.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When men desire to travel by an aircraft, they should make it through fully fit to go swiftly around the earth and other regions, shining like the dawn.

    Foot Notes

    ( वपुः) रूपम् । वपुरिति रूप नाम = From (NG. 3-7). ( दिव:) सूर्यस्य – Of the sun (क्षाम् ) पृथिवीम् । क्षेति पृथिवीनाम = Earth (NG. 1-1)

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