ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 183/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यु॒वां गोत॑मः पुरुमी॒ळ्हो अत्रि॒र्दस्रा॒ हव॒तेऽव॑से ह॒विष्मा॑न्। दिशं॒ न दि॒ष्टामृ॑जू॒येव॒ यन्ता मे॒ हवं॑ नास॒त्योप॑ यातम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । गोत॑मः । पु॒रु॒ऽमी॒ळ्हः । अत्रिः॑ । दस्रा॑ । हव॒ते । अव॑से । ह॒विष्मा॑न् । दिश॑म् । न । दि॒ष्टाम् । ऋ॒जु॒याऽइ॑व । यन्ता॑ । आ । मे॒ । हव॑म् । ना॒स॒त्या॒ । उप॑ । या॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवां गोतमः पुरुमीळ्हो अत्रिर्दस्रा हवतेऽवसे हविष्मान्। दिशं न दिष्टामृजूयेव यन्ता मे हवं नासत्योप यातम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवाम्। गोतमः। पुरुऽमीळ्हः। अत्रिः। दस्रा। हवते। अवसे। हविष्मान्। दिशम्। न। दिष्टाम्। ऋजुयाऽइव। यन्ता। आ। मे। हवम्। नासत्या। उप। यातम् ॥ १.१८३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 183; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे दस्रा नासत्या युवां यो हविष्मान् पुरुमीढोऽत्रिर्गोतमोऽवसे हवते तद्वत् यन्ता ऋजूयेव दिष्टां दिशन्न च मे हवमुपयातम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(युवाम्) (गोतमः) मेधावी (पुरुमीढः) पुरुभिर्बहुभिः पदार्थैः सिक्तः (अत्रिः) सततं गामी (दस्रा) दुःखदारिद्र्यनाशकौ (हवते) गृह्णाति (अवसे) रक्षणाद्याय (हविष्मान्) प्रशंसितादेययुक्त (दिशम्) (न) इव (दिष्टाम्) निदर्शिताम् (ऋजूयेव) ऋजुना मार्गेणेव। अत्र टा स्थाने यादेशः। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (यन्ता) नियमकर्त्ता (मे) (आ) मम (हवम्) दानम् (नासत्या) सत्यप्रियौ (उप) (यातम्) प्राप्नुतम् ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा नौकादियानयायिनस्सरलेन मार्गेणोद्दिष्टां दिशं गच्छन्ति तथा जिज्ञासव आप्तानां विदुषां सामीप्यं गच्छेयुः ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (दस्रा) दुःख दारिद्र्य विनाशनेहारे (नासत्या) सत्यप्रिय शिल्पविद्याऽध्यापकोपदेशक विद्वानो ! (युवाम्) तुम दोनों (यः) जो (हविष्मान्) प्रशंसित ग्रहण करने योग्य (पुरुमीढः) बहुत पदार्थों से सींचा हुआ (अत्रिः) निरन्तर गमनशील (गोतमः) मेधावी जन (अवसे) रक्षा आदि के लिये (हवते) उत्तम पदार्थों को ग्रहण करता है वैसे और जैसे (यन्ता) नियमकर्त्ता जन (ऋजूयेव) सरल मार्ग से जैसे तैसे (दिष्टाम्) निर्द्देश की (दिशम्) पूर्वादि दिशा के (न) समान (मे) मेरे (हवम्) दान को (उप, आ, यातम्) अच्छे प्रकार समीप प्राप्त होओ ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे नौकादि यान से जानेवाले जन सरल मार्ग से बताई हुई दिशा को जाते हैं, वैसे सीखनेवाले विद्यार्थी जन आप्त विद्वानों के समीप जावें ॥ ५ ॥
विषय
गोतम, पुरुमीढ, अत्रि
पदार्थ
१. हे (दत्रा) = सब बुराइयों का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो ! (युवाम्) = आपको (गोतमः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाला पुरुष (पुरुमीळ्हः) = अपने शरीर में शक्ति का खूब सेचन करनेवाला तथा (अत्रिः) = शरीर, मन व बुद्धि के विकारों से ऊपर उठनेवाला पुरुष (हविष्मान्) = त्यागपूर्वक अदन करनेवाला बनकर (अवसे) = रक्षण के लिए हवते पुकारता है । वस्तुतः आपकी आराधना से ही वह 'गोतम, पुरुमीढ व अत्रि' बनता है। प्राणसाधना के लिए यह आवश्यक है कि यह हविष्मान् बने, त्यागपूर्वक भोग करनेवाला बने। अतिभोजन के साथ यह प्राणसाधना नहीं चलती। प्राणायाम का लाभ परिमित आहारवाले को ही होता है। २. हे (नासत्या) = हमारे जीवन से असत्य को करनेवाले दूर प्राणापानो ! मे (हवम् उपयातम्) = मेरी पुकार को आप प्राप्त होओ उसी प्रकार (न) = जैसे कि (दिष्टां दिशम्) = संकेतित दिशा को (ऋजूया इव)[एव] (यन्ता) = ऋजुमार्ग से जानेवाला प्राप्त होता है । ऋजुमार्ग से जानेवाला जैसे संकेतित दिशा की ओर आता है उसी प्रकार प्राणापान मेरी ओर आनेवाले हों। मैं इन प्राणों की साधना से अपने जीवन को ऋजुमार्ग से ले-चलनेवाला बनूँ।
भावार्थ
भावार्थ—हम प्राणसाधना से प्रशस्तेन्द्रिय शक्ति को अपने में सुरक्षित करनेवाले तथा शरीर, मन व बुद्धि के विकारों से ऊपर उठे हुए होंगे।
विषय
विद्वान् स्त्री पुरुषों को उपदेश। त्रिवन्धुर त्रिचक्र रथ की व्याख्या।
भावार्थ
हे ( दस्रा ) दुःखों और दुःखदायी कारणों के नाश करने वाले स्त्री पुरुषो ! जो पुरुष ( गोतमः ) किरणों वाले सूर्य के समान तेजस्वी वा उत्तम वेद वाणी का विद्वान्, बलवान् ( पुरुमीढः ) बहुतों को दान देने वाला, बहुत से ऐश्वर्य से स्वयं समृद्ध, ( अत्रिः ) भ्रमणशील, परिव्राजक या (अत्रिः) त्रिविध दुखों से रहित, ( हविष्मान् ) उपादेय ज्ञान, बल और ऐश्वर्यादि से युक्त होकर (अवसे) रक्षा के लिये ( युवां हवते ) तुम्हें पुकारता या अपनी शरण में लेता है या उपदेश प्रदान करता है और जो ( दिष्टा दिशम् न ) नियत निश्चित दिशा के समान पूर्वाचार्यों और उपदेशों द्वारा निर्दिष्ट और उपदिष्ट दिशा की ओर ( ऋजूया इव ) अन्यन्त सरल मार्ग से (यन्ता) लेजाने हारा हो वही ( युवां ) तुम दोनों के लिये ( गोतमः ) ज्ञानवान्, रथ में लगे वृषभ के समान, तुमको सन्मार्ग पर लेजाने वाला ( पुरुमीळहः ) बहुत से ऐश्वर्य देने वाला और वही (अत्रिः) त्रिविध संकटों से पार करने वाला हो । हे ( नासत्या ) सदा सत्य व्यवहार वाले स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (मे) मेरे (हवं) वचन को (उप यातम्) श्रवण करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे नावा इत्यादी यानाने जाणारे लोक सरळ मार्गाने दर्शविलेल्या दिशेने जातात तसे शिकणाऱ्या विद्यार्थ्यांनी आप्त विद्वानांजवळ जावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, destroyers of want and suffering, preservers of health and happiness, lovers of truth and science, teachers, guides and philosophers, Gotama, the man of knowledge and wisdom, Purumeedha, the man blest with prosperity, and Atri, the progressive man free from threefold pain, invokes you with offerings of homage and oblations for the sake of protection and progress. Come and accept my homage too like leaders going and leading in the direction of truth marked as destination of nature and law.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The seekers of knowledge should go to the learned persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O destroyers of miseries, absolutely truthful teachers and preacher ! a wisemen, possessing many good qualities and active invokes you for protection. He possesses acceptable articles in abundance, like a farer, who undertakes journey to his destination by a straight path. Surely, you come direct to accept my gifts and offerings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As those who travel by the boat or other carriers by the direct route to the destined places, they do so to seek the truth. They should go directly to the enlightened persons to achieve it.
Foot Notes
( हवम् ) दानम् = Gift or donation. ( गोतम: ) मेधावी | गौरिति स्तोतृ नाम (NG. 3-16) = A wise and learned man. (अत्निः) सततं गामी । अत्नि is form अत-सातत्यगमने = Active and industrious.
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