ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 183/ मन्त्र 3
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ ति॑ष्ठतं सु॒वृतं॒ यो रथो॑ वा॒मनु॑ व्र॒तानि॒ वर्त॑ते ह॒विष्मा॑न्। येन॑ नरा नासत्येष॒यध्यै॑ व॒र्तिर्या॒थस्तन॑याय॒ त्मने॑ च ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ति॒ष्ठ॒त॒म् । सु॒ऽवृत॑म् । यः । रथः॑ । वा॒म् । अनु॑ । व्र॒तानि॑ । वर्त॑ते । ह॒विष्मा॑न् । येन॑ । न॒रा॒ । ना॒स॒त्या॒ । इ॒ष॒यध्यै॑ । व॒र्तिः । या॒थः । तन॑याय । त्मने॑ । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ तिष्ठतं सुवृतं यो रथो वामनु व्रतानि वर्तते हविष्मान्। येन नरा नासत्येषयध्यै वर्तिर्याथस्तनयाय त्मने च ॥
स्वर रहित पद पाठआ। तिष्ठतम्। सुऽवृतम्। यः। रथः। वाम्। अनु। व्रतानि। वर्तते। हविष्मान्। येन। नरा। नासत्या। इषयध्यै। वर्तिः। याथः। तनयाय। त्मने। च ॥ १.१८३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 183; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे नरा नासत्या यो हविष्मान् रथो वामनु वर्त्तते येनेषयध्यै व्रतानि वर्द्धयित्वा तनयाय त्मने च वर्त्तिर्याथस्तं सुवृतं रथं युवामातिष्ठतम् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (सुतिष्ठतम्) (वृतम्) यः सुष्ठु सर्वाङ्गैः शोभनस्तम् (यः) (रथः) (वाम्) युवाम् (अनु) (व्रतानि) शीलानि (वर्त्तते) (हविष्मान्) बह्वद्यादिपदार्थयुक्तः (येन) (नरा) नेतारौ (नासत्या) सत्यविद्याक्रियौ (इषयध्यै) एषयितुं गमयितुम् (वर्त्तिः) मार्गम् (याथः) गच्छथः (तनयाय) सन्तानाय (त्मने) आत्मनि (च) ॥ ३ ॥
भावार्थः
मनुष्याः स्वस्य सन्तानादीनाञ्च सुखोन्नतये सुदृढेन विस्तीर्णेन साङ्गोपाङ्गसामग्र्या पूर्णेन सद्योगामिना भक्ष्यभोज्यलेह्यचूष्यैर्युक्तेन रथेन भूसमुद्राकाशमार्गेषु प्रसमाहिततया गच्छेयुरागच्छेयुश्च ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नरा) अग्रगामी नायक (नासत्या) सत्य विद्या क्रियायुक्त पुरुषो ! (यः) जो (हविष्मान्) बहुत खाने योग्य पदार्थोंवाला (रथः) रथ (वाम्) तुम दोनों के (अनु, वर्त्तते) अनुकूल वर्त्तमान है (येन) जिससे (इषयध्यै) ले जाने को (व्रतानि) शील उत्तम भावों को बढ़ाकर (तनयाय) सन्तान के लिये (च) और (त्मने) अपने लिये भी (वर्त्तिः) मार्ग को (याथः) जाते हो (सुवृतम्) उस सर्वाङ्ग सुन्दर रथ को तुम दोनों (आ, तिष्ठतम्) अच्छे प्रकार स्थिर होओ ॥ ३ ॥
भावार्थ
मनुष्य अपने (व) सन्तानों की सुखोन्नति के लिये अच्छा दृढ़, लम्बे, चौड़े, साङ्गोपाङ्ग सामग्री से पूर्ण शीघ्र चलनेवाले भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य अर्थात् चट-पट खाने उत्तमता से धीरज में खाने, चाटने और चूषने योग्य पदार्थों से युक्त रथ से पृथिवी, समुद्र और आकाश मार्गों में अति उत्तमता से सावधानी के साथ जावें और आवें ॥ ३ ॥
विषय
व्रत, शक्ति-विस्तार, आत्म-प्राप्ति
पदार्थ
१. हे (नरा) = हमें आगे ले-चलनेवाले ! (नासत्या) = हमें असत्य से दूर करनेवाले प्राणापानो ! उस (सुवृतम्) = रथ पर जिसका अङ्ग-प्रत्यङ्ग शोभन स्थिति में है (आतिष्ठतम्) = स्थित होओ। (यः) = जो (वाम्) = आपका (रथः) = शरीररूप रथ (हविष्मान्) = हविवाला होता हुआ, सदा दानपूर्वक अदनवाला होता हुआ व्रतानि अनुवर्तते पुण्य कर्मों के अनुकूल वर्तनवाला होता है। प्राणसाधना करने से मनुष्य [क] हवि का सेवन करनेवाला, यज्ञशेष को ही खाने की वृत्तिवाला बनता है और [ख] सदा पुण्य कर्मों में प्रवृत्त होता है। २. हे प्राणापानो! यह वह रथ है येन जिससे (इषयध्यै) = [promote] उन्नति के लिए (वर्तिः याथः) = गृह को प्राप्त होते हो । शरीर में हृदय ही आत्मा का निवास स्थान है, अतः हृदय ही गृह है। प्राणसाधना के द्वारा चित्तवृत्ति का निरोध करके कुछ देर के लि हम हृदय में ही स्थित होते हैं। यही उन्नति का मार्ग है। यह (तनयाय) = हमारी सब शक्तियों के विस्तार के लिए होता है (तनु विस्तारे) च और त्मने आत्मा की प्राप्ति के लिए होता है। प्रतिदिन प्राणायाम के अनुष्ठान से हम चित्त-वृत्ति का निरोध करके स्व-स्वरूप को देखने का प्रयत्न करें। इसी में विकास है-यही आत्म-प्राप्ति का मार्ग है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हमारी वृत्ति शुभ कर्मों की ओर होती है। हम उन्नति के मार्ग अपनी शक्तियों का विस्तार कर पाते हैं और आत्मतत्त्व का दर्शन करते हैं।
विषय
विद्वान् स्त्री पुरुषों को उपदेश। त्रिवन्धुर त्रिचक्र रथ की व्याख्या।
भावार्थ
हे (नरा ) नरनारी जनो ! आप दोनों (सुवृतं आतिष्ठतं) उत्तम रीति से चलने वाले रथ के समान उत्तम आचरवान् पुरुष या सदाचार युक्त गृहस्थाश्रम रूप रथ पर आकर स्थित होवो । ( यः रथ ) जो तुम दोनों को रमाने हारा ( हविष्मान् ) अन्न ज्ञान और बल से युक्त ( व्रतानि अनु वर्तते ) तुम्हारे कर्तव्य कर्मों के अनुकूल ही रहता है, हे ( नासत्या ) कभी परस्पर असत्य व्यवहार न करने हारो ! आप दोनों (येन) जिस द्वारा (वर्त्तिः) गृह और लोकयात्रा तथा अपनी स्थिति, सत्ता को ( एषयध्षै ) प्राप्त करने या निबाहने के लिये और ( तनयाय ) पुत्रलाभ या और ( त्मने ) अपने आत्मा या देह के सुख के लिये भी ( याथः ) प्राप्त होते हो उस स्थस्वरूप गृहस्थाश्रम पर आरूढ़ होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी आपल्या व संतानाच्या सुखासाठी चांगले दृढ, लांब, रुंद, पूर्ण साहित्याने भरलेले, शीघ्र चालणारे, भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोख्य, चटपटीत खाण्यायोग्य, चाटण्या व चोखण्यायोग्य पदार्थांनीयुक्त रथाद्वारे (यानाद्वारे) पृथ्वी, समुद्र व आकाश मार्गाने सावधानपूर्वक जावे-यावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, leaders of humanity, committed to truth and exploration, well-structured, loved and accepted is the chariot you ride in pursuance of your vows of commitment and discipline which is richly loaded with wealth for the good life and by which go you over your path of exploration and come back home to inspire and fulfil the ambitions of humanity for themselves and for their children.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The passengers should carry good quantum of edibles.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O absolutely truthful leaders, ascend on your aircraft, which contains various edibles and other food items. It helps in performing the sacred rites of the worshipper. You propose to come to the path and to the dwelling place of a devotee for doing good to him and his progeny.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of men to travel by such well-built vehicles that may go to the earth, sea and sky. Moreover, it should contain all important articles of food and be perfect by all yardsticks and tastings, so that they and the child may enjoy happiness.
Foot Notes
(हविष्मान्) बहुखाद्यादिपदार्थयुक्ताः = Containing all kinds of eatables and other articles. (वतिः) मार्गम् = Path.
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