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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 183 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 183/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा वां॒ वृको॒ मा वृ॒कीरा द॑धर्षी॒न्मा परि॑ वर्क्तमु॒त माति॑ धक्तम्। अ॒यं वां॑ भा॒गो निहि॑त इ॒यं गीर्दस्रा॑वि॒मे वां॑ नि॒धयो॒ मधू॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । वा॒म् । वृकः॑ । मा । वृ॒कीः । आ । द॒ध॒र्षी॒त् । मा । परि॑ । व॒र्क्त॒म् । उ॒त । मा । अति॑ । ध॒क्त॒म् । अ॒यम् । वा॒म् । भा॒गः । निऽहि॑तः । इ॒यम् । गीः । दस्रौ॑ । इ॒मे । वा॒म् । नि॒ऽधयः॑ । मधू॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा वां वृको मा वृकीरा दधर्षीन्मा परि वर्क्तमुत माति धक्तम्। अयं वां भागो निहित इयं गीर्दस्राविमे वां निधयो मधूनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। वाम्। वृकः। मा। वृकीः। आ। दधर्षीत्। मा। परि। वर्क्तम्। उत। मा। अति। धक्तम्। अयम्। वाम्। भागः। निऽहितः। इयम्। गीः। दस्रौ। इमे। वाम्। निऽधयः। मधूनाम् ॥ १.१८३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 183; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे दस्रौ वामिमे मधूनां निधयो वामयं भागो निहित इयं गीश्चास्ति। युवामस्मान् मा परिवर्क्तमुतापि मातिधक्तं येन वां वृको मा वृकीर्मा दधर्षीत्। तमुपायं युवां सदा नितिष्ठताम् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (वाम्) युवाम् (वृकः) स्तेनः (मा) (वृकीः) स्तेनस्य स्त्रीः। अत्र पूर्वसवर्णादेशः। (आ) अपि च (दधर्षीत्) धर्षेत् (मा) (परि) (वर्क्तम्) त्यजतम् (उत) अपि (मा) (अति) (धक्तम्) दहतम् (अयम्) (वाम्) युवयोः (भागः) भजनीयोऽधिकारः (निहितः) स्थापितः (इयम्) (गीः) आज्ञप्ता वाक् (दस्रौ) दुःखोपक्षयितारौ (इमे) (वाम्) युवयोः (निधयः) राशयः (मधूनाम्) मधुरादिगुणयुक्तानां सोमादिपदार्थानाम् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    मनुष्या यदा गृहे निवसेयुर्यानेष्वरण्ये वा प्रतिष्ठेरँस्तदा भोगोपभोगयोग्यान् पदार्थान् शस्त्रास्त्राणि वीरसेनाञ्च संस्थाप्य निवसेयुर्गच्छेयुर्वा यतः कश्चिदपि विघ्नो न स्यात् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (दस्रौ) दुःखनाशक शिल्पविद्याऽध्यापक उपदेशको ! (वाम्) तुम दोनों के (इमे) ये (मधूनाम्) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थों के (निधयः) राशी समूह (वाम्) तुम दोनों का (अयम्) यह (भागः) सेवने योग्य अधिकार (निहितः) स्थापित और (इयम्) यह (गीः) वाणी है तुम दोनों हमको (मा, परि, वर्क्तम्) मत छोड़ो (उत) और (मा, अति, धक्तम्) मत विनाशो और जिससे (वाम्) तुम दोनों को (वृकः) चोर, ठग, गठकटा आदि दुष्ट जन (मा) मत (वृकीः) चोरी, ठगी, गठकटी आदि दुष्ट औरतें (मा, आ, दधर्षीत्) मत विनाशें मत नष्ट करें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य जब घर में निवास करें वा यानों में और वन में प्रतिष्ठित होवें तब भोग करने के लिये पूर्ण भोग और उपभोग योग्य पदार्थों, शस्त्र वा अस्त्रों और वीरसेना को संस्थापन कर निवास करें वा जावें, जिससे कोई विघ्न न हो ॥ ४ ॥

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    विषय

    दम्पति कर्तव्य

    शब्दार्थ

    हे स्त्री-पुरुषो ! (वाम्) तुमको (मा) न तो (वृक:) भेड़िया के समान कुटिल, हिंसक अथवा चोर स्वभाववाला पुरुष (आदधर्षीत्) सताए और (मा)(वृकी:) दुष्ट स्वभाववाली, हिंसक वृत्तियोंवाली स्त्री सताए । तुम दोनों (मा परिवर्क्तम्) कभी एकदूसरे का परित्याग मत करो (उत) और (मा) न कभी (अतिधक्तम्) मर्यादा का उल्लंघन करके एक-दूसरे के हृदय को दुखाओ । (वाम्) दोनों के लिए (अयं भागः) यह सेवन करने योग्य निश्चित भाग है (इयं गी:) यह वेद की व्यवस्था है (दस्रौ) हे दर्शनीयो ! एक-दूसरे के दुःख का नाश करनेवालो (इमे) ये (मधूनाम्) मधुर अन्न, जल और फलों के (निधयः) कोश, खजाने (वाम्) तुम दोनों के लिए (निहितः) रक्खे गये हैं ।

    भावार्थ

    मन्त्र में पति-पत्नी के कर्तव्यों का सुन्दर निर्देश है १. हिंसक और कुटिल पुरुष तुम्हें न सताएँ । २. दुष्ट स्वभाववाली स्त्रियाँ भी तुम्हें पीड़ा न दें । ३. पति-पत्नी कभी एक-दूसरे का त्याग न करें । ४. दम्पती गृहस्थ की मर्यादाओं का उल्लंघन करके एक-दूसरे के हृदय को जलानेवाले न बनें । ५. पति-पत्नी को ऐसा ही व्यवहार और बर्ताव करना चाहिए । यही वेद की व्यवस्था है । ६. घरों में अन्न, जल और फलों के ढेर तुम्हारे सेवन करने के लिए होने चाहिएँ ।

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    विषय

    प्राणसाधना आवश्यक है

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो ! (वाम्) = आपको (वृकः) = अदान व लोभ की वृत्ति (मा आदधर्षीत्) = धर्षित करनेवाली न हो, अर्थात् ऐसा न हो कि किसी बात के लोभ में पड़कर एक व्यक्ति अपनी साधना के लिए समय ही न निकाल सके। (मा वृकी:) = इसी प्रकार लोभ की वृत्तिवाली कोई स्त्री आपका धर्षण करनेवाली न हो, अर्थात् प्रत्येक पुरुष व स्त्री प्राणसाधना के लिए समय अवश्य निकाले, प्राणायाम अवश्य करे। २. हे प्राणापानो! (मा परिवर्त्तम्) = आप हमें छोड़ मत जाओ (उत) = और (मा अतिधक्तम्) = हमें भस्म मत कर दो। 'हम बिल्कुल प्राणायाम न करें यह भी न हो और प्राणायाम की अति से उष्णता के बहुत बढ़ जाने के द्वारा अपने को भस्म भी न कर लें। धीरेधीरे प्राणायामों की संख्या बढ़ाएँ। तीन से आरम्भ करके पाँच-छह वर्षों में अस्सी तक इनकी संख्या को पहुँचानेवाले बनें । ३. हे (दस्त्रौ) = हमारे मलों का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो! (अयम्) = यह (वाम्) = आपका (भाग:) = अंश (निहितः) = निश्चय से स्थापित किया गया है, अर्थात् हमारे द्वारा प्राणसाधना के लिए अलग समय निकाल दिया गया है। उस समय को हम इस साधना में ही लगाते हैं । (इयं गी:) = यह आपकी स्तुति-वाणी है । इन वाणियों के द्वारा हम आपका स्तवन करते हैं । (इमे) = ये (मधूनां निधयः) = सोम के कोश (वाम्) = आपके ही हैं। आपकी साधना के द्वारा ही इन सोमों का शरीर में रक्षण होता है । वस्तुतः प्राणसाधना से ही ज्ञान की वाणियाँ हमें प्राप्त होती हैं। इनको समझने के लिए हम इस साधना से ही तीव्रबुद्धि बनते हैं तथा इन्हीं के द्वारा हम शरीर में सोम का रक्षण कर पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - लोभ के कारण हम प्राणसाधना को छोड़ न बैठें। प्राणसाधना का समय निश्चित हो । प्राणसाधना से ही हमारा ज्ञान बढ़ेगा और हम सोम का रक्षण कर पाएँगे ।

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    विषय

    विद्वान् स्त्री पुरुषों को उपदेश। त्रिवन्धुर त्रिचक्र रथ की व्याख्या।

    भावार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ( वां ) तुम दोनों को या तुम दोनों में से कोई ( वृकः ) भेड़िये के समान कुटिलाचारी हिंसक या चोरे स्वभाव वाला पुरुष होकर ( मा आदधर्षीत् ) एक दूसरे को अपमानित न करे । और तुम में से किसी को ( वृकीः ) चोरस्वभाव की हिंसाशील स्त्रियें भी ( मा आदधर्षीत् ) तुम्हें अपमानित न करें। तुम दोनों ( मा परिवर्क्तम् ) एक दूसरे का कभी त्याग न करो । ( मा अति धक्तम् ) एक दूसरे को मर्यादा अतिक्रमण करके कभी मत जलाओ, एक दूसरे के दिल को मत दुखाओ । (वां) तुम दोनों का (अयं भागः) यह परस्पर सेवन करने योग्य पृथक् २ भाग है । ( इयं गीः ) यह वेद वाणी व्यवस्था करने वाली है । हे ( दस्त्रौ ) एक दूसरे के दुःखों का नाश करने वालो ! ( इमे ) ये ( मधूनां ) मधुर अन्नों, जलों, उत्तम फलों के ( निधयः ) खज़ाने सब ( वां ) तुम्हारे ही उपभोग के लिये हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणूस जेव्हा घरात निवास करतो अथवा यानात किंवा वनात असतो तेव्हा भोग करण्यासाठी पूर्ण भोग व उपभोगयोग्य पदार्थ, शस्त्र, अस्त्र व वीरसेना बाळगावी. ज्यामुळे कोणतेही विघ्न येता कामा नये. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let no wolfish thief or selfish devourer, man or woman, dare to challenge you or terrorise you off from your course. Destroyers of suffering and generous preservers of life, forsake us not, nor destroy us. This is your share set apart in reserve in homage. This is the voice of celebration in homage and gratitude. These are your treasures of honey sweets of honour and glory.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The persons should live fully alert and in well-stocked houses

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O destroyers of miseries, teachers and preacher ! this is your share of right, and here are your instructional speeches. These treasurers of Soma and other sweet juices are yours. Please do not abandon or destroy us. Always make such arrangements that no thief person may harm you and any way.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When men dwell at home in the forests or are on way to travelling by various vehicles, they should have all requisite articles, arms and strong army, so that there may not be any obstacles.

    Foot Notes

    (वृक:) स्तेन: । वृक इति स्तेन नाम ( N. G. 3-24 ) = Thief. (धक्तम् ) दहतम् = Burn or destroy.

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