ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्रयज्ञसोमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यत्र॒ नार्य॑पच्य॒वमु॑पच्य॒वं च॒ शिक्ष॑ते। उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । नारी॑ । अ॒प॒ऽच्य॒वम् । उ॒प॒ऽच्य॒वम् । च॒ । शिक्ष॑ते । उ॒लूख॑लऽसुतानाम् । अव॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । इ॒न्द्र॒ । ज॒ल्गु॒लः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र नार्यपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। नारी। अपऽच्यवम्। उपऽच्यवम्। च। शिक्षते। उलूखलऽसुतानाम्। अव। इत्। ऊँ इति। इन्द्र। जल्गुलः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेयं विद्या कथं ग्राह्येत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं यत्र नारीकर्मकारीभ्य उलूखलसुतानामपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते तद्विद्यामुपादत्ते, तत्र तदेतत्सर्वमु इदेव जल्गुलः शृण्वेता उपदिश च॥३॥
पदार्थः
(यत्र) यस्मिन् कर्मणि (नारी) नरस्य पत्नी गृहमध्ये (अपच्यवम्) त्यागम् (उपच्यवम्) प्रापणम्। च्युङ् गतावित्यस्य प्रयोगौ (च) तत् क्रियाकरणशिक्षादेः समुच्चये (शिक्षते) ग्राहयति (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेनोत्पादितानाम् (अव) जानीहि (इत्) एवं (उ) जिज्ञासने (इन्द्र) इन्द्रियाधिष्ठातर्जीव (जल्गुलः) शृणूपदिश च। सिद्धिः पूर्ववत्॥३॥
भावार्थः
उलूखलादिविद्याया भोजनादिसाधिकाया गृहसम्बन्धिकार्यकारित्वादेषा स्त्रीभिर्नित्यं ग्राह्याऽन्याभ्यो ग्राहयितव्या च। यत्र पाकक्रिया साध्यते तत्रैतानि स्थापनीयानि नैतैर्विना कुट्टनपेषणादिक्रियाः सिध्यन्तीति॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में यह विद्या कैसे ग्रहण करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) इन्द्रियों के स्वामी जीव ! तू (यत्र) जिस कर्म में घर के बीच (नारी) स्त्रियाँ काम करनेवाली अपनी संगी स्त्रियों के लिये (उलूखलसुतानाम्) उक्त उलूखलों से सिद्ध की हुई विद्या को (अपच्यवम्) (उपच्यवम्) (च) अर्थात् जैसे डालना निकालनादि क्रिया करनी होती है, वैसे उस विद्या को (शिक्षते) शिक्षा से ग्रहण करती और कराती हैं, उसको (उ) अनेक तर्कों के साथ (जल्गुलः) सुनो और इस विद्या का उपदेश करो॥३॥
भावार्थ
यह उलूखलविद्या जो कि भोजनादि के पदार्थ सिद्ध करनेवाली है, गृहसम्बन्धि कार्य करनेवाली होने से यह विद्या स्त्रियों को नित्य ग्रहण करनी और अन्य स्त्रियों को सिखाना भी चाहिये। जहाँ पाक सिद्ध किये जाते हों, वहाँ ये सब उलूखल आदि साधन स्थापन करने चाहिये, क्योंकि इनके विना कूटना-पीसना आदि क्रिया सिद्ध नहीं हो सकती॥३॥
विषय
अब इस मन्त्र में यह विद्या कैसे ग्रहण करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं यत्र नारीकर्मकारीभ्य उलूखलसुतानाम् अपच्यवम् उपच्यवं च शिक्षते तद् विद्याम् उपादत्ते तत्र तत् एतत् सर्वम् उ इत् एव जल्गुलः शृणु एता उपदिश च॥३॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) इन्द्रियाधिष्ठातर्जीव= इन्द्रियों के स्वामी जीव ! (त्वम्)=तू, (यत्र) यस्मिन् कर्मणि= जिस कर्म में, (नारी) नरस्य पत्नी गृहमध्ये=घर में नर की पत्नी, (कर्मकारीभ्य)=काम करने वाली के लिये, (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेनोत्पादितानाम् =ओखलियों से उत्पादित की हुई, (अपच्यवम्) त्यागम्=डालना की क्रिया जैसे, (उपच्यवम्) प्रापणम् = निकालने की क्रिया, करनी होती है, (च)=भी, (शिक्षते) ग्राहयति=शिक्षा से ग्रहण करती और कराती हैं, (तद्) = उस, (विद्याम्)=विद्या को, (उपादत्ते)=प्रयोग करते हैं, (तत्र)=वहाँ, (तत्)=उस, (एतत्)=इस, (सर्वम्)= सब, (उ) जिज्ञासने = जिज्ञासा में, (इत्) एवम्=और, (एव)=ऐसे ही, (जल्गुलः) शृणूपदिश च=सुनो और इस विद्या का उपदेश करो॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
ओखली की विद्या का गृहसम्बन्धी कार्य करनेवाली होने से इसे स्त्रियाँ नित्य करनेवाली है, होने से यह विद्या स्त्रियों को नित्य ग्रहण करनी और अन्य स्त्रियों को भी ग्रहण करवानी चाहिये। जहाँ पकाने की क्रिया सिद्ध की जाती है वहाँ वे सब स्थापित करनी चाहियें, इनके विना कूटना-पीसना आदि क्रिया सिद्ध नहीं हो सकती हैं॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) इन्द्रियों के स्वामी जीव! (त्वम्) तू (यत्र) जिस कर्म में (नारी) घर के अन्दर नर की पत्नी (कर्मकारीभ्य) काम करने वाली के लिये, (उलूखलसुतानाम्) उलूखलों से उत्पादित की हुई (अपच्यवम्) डालने की क्रिया और (उपच्यवम्) निकालने की क्रिया करनी होती है, इसकी (च) भी (शिक्षते) शिक्षा ग्रहण करती और कराती हैं। (तद्) उस (विद्याम्) विद्या को (उपादत्ते) प्रयोग करते हैं। (तत्र) वहाँ (तत्) उस (एतत्) ऐसी (सर्वम्) सब (उ) जिज्ञासा में (इत्) और (एव) ऐसे ही (जल्गुलः) विद्या सुनो और इस का उपदेश करो॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यत्र) यस्मिन् कर्मणि (नारी) नरस्य पत्नी गृहमध्ये (अपच्यवम्) त्यागम् (उपच्यवम्) प्रापणम्। च्युङ् गतावित्यस्य प्रयोगौ (च) तत् क्रियाकरणशिक्षादेः समुच्चये (शिक्षते) ग्राहयति (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेनोत्पादितानाम् (अव) जानीहि (इत्) एवं (उ) जिज्ञासने (इन्द्र) इन्द्रियाधिष्ठातर्जीव (जल्गुलः) शृणूपदिश च। सिद्धिः पूर्ववत्॥३॥
विषयः- अथेयं विद्या कथं ग्राह्येत्युपदिश्यते॥
अन्वयः- हे इन्द्र ! त्वं यत्र नारीकर्मकारीभ्य उलूखलसुतानामपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते तद्विद्यामुपादत्ते, तत्र तदेतत्सर्वमु इदेव जल्गुलः शृण्वेता उपदिश च॥३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- उलूखलादिविद्याया भोजनादिसाधिकाया गृहसम्बन्धिकार्यकारित्वादेषा स्त्रीभिर्नित्यं ग्राह्याऽन्याभ्यो ग्राहयि
विषय
अपच्यव और उपच्यव
पदार्थ
१. (यत्र) - जिस सोम के होने पर (नारी) - एक प्रगतिशील स्त्री (अपच्यवम्) - हृदय से 'अप' दूर मस्तिष्क में जाने का (च) - और (उपच्यवम्) - हृदय में परमेश्वर के समीप उपस्थित होने का (शिक्षते) - अभ्यास करती है । उन (उलूखलसुतानाम्) - हृदयान्तरिक्ष में उत्पन्न हुए - हुए सोमकणों को (अव इत् उ) - स्वकीयत्वेन जानकर ही हे (इन्द्र) - जितेन्द्रिय पुरुष ! (जल्गुलः) - तू भक्षण कर ।
२. 'अपच्यव' - मस्तिष्क की ओर जाता है और 'उपच्यव' हृदय की ओर आता है । ज्ञान प्राप्त करना ही मस्तिष्क की ओर जाना है और भक्तिप्रवण होना ही हृदय की ओर आना है । ज्ञान व भक्ति दोनों का विकास सोम के होने पर ही सम्भव है । इस दृष्टिकोण से सोमपान का विशेष महत्व है
३. नारी शब्द का प्रयोग इसलिए है कि स्त्री को भी ज्ञान व भक्ति दोनों का अपने में समन्वय करने का प्रयास करना है । इस स्थान पर नारी शब्द इसलिए भी अधिक उपयुक्त हो जाता है कि नारी ने ही बाह्य सोमलता के रस का अभिषव करते हुए उलूखल से दूर व समीप अपने हाथ को बारम्बार लाना है ।
भावार्थ
भावार्थ - स्त्रियों को भी रक्षण के द्वारा ज्ञान व भक्ति का विकास करना चाहिए ।
विषय
गृहस्थ स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यत्र ) जिस गृहस्थ के कार्य में ( नारी ) स्त्री ( अपच्यवं ) त्याग करना, दान देना । व्यय करना और ( उपच्यवं ) ऐश्वर्य अन्नादि को प्राप्त करना, सञ्चय करने आदि का ( शिक्षते ) अभ्यास करती है, हे ( इन्द्र ) विद्वन् ! तू ( उलूखल-सुतानाम् ) ओखल से बने अन्नों को वहां ( अव इत् ) प्राप्त कर और ( जल्गुलः ) उनका भोजन कर । अथवा—जहां स्त्रियां ( अपच्यवं उपच्यवं च ) दान देने और संग्रह करने की शिक्षा प्राप्त करें हे ( इन्द्र ) विद्वन् ! ( उलूखल-सुतानां ) बड़े २ कार्य और ऐश्वर्यों के स्वामियों के पुत्रों को वहां ( अब ) प्राप्त कर ( जल्गुलः ) और उपदेश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ इन्द्रयज्ञसोमा देवताः ॥ छन्दः—१–६ अनुष्टुप् । ७–९ गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ही उलूखल (उखळमुसळ) विद्या जी भोजन इत्यादी सिद्ध करणारी आहे. गृहकार्य करविणारी असल्यामुळे ही विद्या स्त्रियांनी नित्य ग्रहण करावी व इतर स्त्रियांना शिकवावी. जेथे पाकगृह असते तेथे उलूखल (उखळ-मुसळ वगैरे) इत्यादी साधने ठेवली पाहिजेत. कारण त्यांच्याशिवाय कुटणे, वाटणे इत्यादी क्रिया होत नाहीत. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Where the house-wife teaches the methods of sifting and mixing of the soma materials, there take the materials ground in the mortar for the special purpose, test and judge the quality and control.
Subject of the mantra
Now, how this knowledge should be attained, this has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=lord of the senses, living being, (tvam)=you,(yatra)=in which deed, (nārī)=man's wife inside the house, (karmakārībhya)=for the worker, (ulūkhalasutānām)=produced by the pounder, (apacyavam)=action of pouring, [aura]=and, (upacyavam)=action of removal is done, for it, [isakī]=its, (ca)=also,(śikṣate)=makes and receives and imparts education, (tad)=that, (vidyām)=to that knowledge, (upādatte)=use, (tatra)=there, (tat)=that, (etat)=such, (sarvam)=all, (u)=in curiosity, (it)=and, (eva)=in the same way, (jalgulaḥ) =listen that knowledge and preach it.
English Translation (K.K.V.)
O Lord of the senses, living being, you as man's wife inside the house, in which deeds for the worker, produced by the pound as action of removal is done, for it also, by pouring makes and receives and imparts education, use such knowledge with curiosity. Listen all that knowledge and preach it there.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Women are supposed to do the work related to the home with knowledge of pounder and pestle, due to which women should acquire this knowledge regularly and other women should also get it. Where the process of cooking is accomplished, they should all be established, without them, pounding and grinding etc. cannot be accomplished.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is this knowledge to be gained is taught in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O master of the senses, where the housewife learns and practices giving and collecting the substances ground in the mortar and teaches others to do so, there you also hear about all this art and having learnt, teach it to others.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अपच्यवम्) त्यागम् = Giving in charity. ( उपच्यवम् ) प्रापणम् = Acquiring or collecting.उभौ च्युङ् गतौ इत्यस्य प्रयोगौ । (शिक्षते) ग्राहयति = Teaches.(इन्द्र) इन्द्रियाधिष्ठातजींब = O soul, the master of senses. ( जल्गुल:) शृणु उपदिश च-सिद्धिः प्रथममन्त्रोक्तवत् = Hear and teach.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
This art of the use of mortar which is essential for cooking and other domestic works must be learnt by house wives and be taught to others. Where cooking is done, mortar, pestle etc. should be placed there because without them powdering and grinding etc. is not possible.
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