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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 28/ मन्त्र 8
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - उलूखलः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ता नो॑ अ॒द्य व॑नस्पती ऋ॒ष्वावृ॒ष्वेभिः॑ सो॒तृभिः॑। इन्द्रा॑य॒ मधु॑मत्सुतम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । नः॒ । अ॒द्य । व॒न॒स्पती॒ इति॑ । ऋ॒ष्वौ । ऋ॒ष्वेभिः॑ । सो॒तृऽभिः॑ । इन्द्रा॑य । मधु॑ऽमत् । सु॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता नो अद्य वनस्पती ऋष्वावृष्वेभिः सोतृभिः। इन्द्राय मधुमत्सुतम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। नः। अद्य। वनस्पती इति। ऋष्वौ। ऋष्वेभिः। सोतृऽभिः। इन्द्राय। मधुऽमत्। सुतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 28; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कथंभूते कार्ये इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यौ सोतृभिर्ऋष्वौ वनस्पती सम्पादितौ स्तो यौ नोऽस्माकमिन्द्रायाद्य मधुमद्वस्तु सुतं सम्पादनहेतुभवतस्तौ सर्वैः सम्पादनीयौ॥८॥

    पदार्थः

    (ता) तौ मुसलोलूखलाख्यौ। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (नः) अस्माकम् (अद्य) अस्मिन् दिने (वनस्पती) काष्ठमयौ (ऋष्वौ) महान्तौ। ऋष्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (ऋष्वेभिः) महद्भिर्विद्वद्भिः। बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (सोतृभिः) अभिषवकरणकुशलैः (इन्द्राय) ऐश्वर्यप्रापकाय व्यवहाराय (मधुमत्) मधवो मधुरादयः प्रशस्ता गुणा विद्यते यस्मिन् तत्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (सुतम्) सम्पादितुं वस्तु॥८॥

    भावार्थः

    यथा पाषाणस्य मुसलोलूखलानि भवन्ति, तथैव काष्ठायःपित्तलरजतसुवर्णादीनामपि क्रियन्ते, तैः श्रेष्ठैरोषधाभिषवादीन् साधयेयुरिति॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे करने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जो (सोतृभिः) रस खींचने में चतुर (ऋष्वेभिः) बड़े विद्वानों ने (ऋष्वौ) अतिस्थूल (वनस्पती) काठ के उखली-मुसल सिद्ध किये हों, जो (नः) हमारे (इन्द्राय) ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले व्यवहार के लिये (अद्य) आज (मधुमत्) मधुर आदि प्रशंसनीय गुणवाले पदार्थों को (सुतम्) सिद्ध करने के हेतु होते हों (ता) वे सब मनुष्यों को साधने योग्य हैं॥८॥

    भावार्थ

    जैसे पत्थर के मूसल और उखली होते हैं, वैसे ही काष्ठ, लोहा, पीतल, चाँदी, सोना तथा औरों के भी किये जाते हैं, उन उत्तम उलूखल मुसलों से मनुष्य औषध आदि पदार्थों के अभिषव अर्थात् रस आदि खींचने के व्यवहार करें॥८॥

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    विषय

    फिर वे कैसे करने चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यौ सोतृभिः ऋष्वौ वनस्पती सम्पादितौ स्तो यौ नः अस्माकम् इन्द्राय अद्य मधुमत् वस्तु सुतं सम्पादनहेतु भवतः तौ सर्वैः सम्पादनीयौ॥८॥

    पदार्थ

    (यौ)=जो, (सोतृभिः) अभिषवकरणकुशलैः=रस निचोड़ने में चतुर, (ऋष्वौ) महान्तौ=अतिस्थूल, (वनस्पती) काष्ठमयौ= काठ के ओखली-मूसल को, (सम्पादितौ+स्तः)=सिद्ध किये हों। (यौ)=जो, (नः) अस्माकम्= हमारे, (इन्द्राय) ऐश्वर्यप्रापकाय व्यवहाराय= ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले व्यवहार के लिये, (अद्य) अस्मिन् दिने=आज ही,  (मधुमत्) मधवो मधुरादयः प्रशस्ता गुणा विद्यते यस्मिन् तत्=जिसमें मधुर आदि प्रशंसनीय गुण हैं, (वस्तु)=उस वस्तु को, (सुतम्) सम्पादितुं वस्तु=सिद्ध करते, (भवतः) =हैं, (तौ) मुसलोलूखलाख्यौ=उन मूसल और ओखली को, (सर्वैः)=सब मनुष्य, (सम्पादनीयौ)=सिद्ध करें॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे पत्थर के मूसल और ओखली होते हैं, वैसे ही काष्ठ, पीतल, चाँदी, सोना आदि के भी बनाये जाते हैं, उन श्रेष्ठों के द्वारा ओषध आदि पदार्थों के अभिषव बनायें॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यौ) जो  (सोतृभिः) रस निचोड़ने में चतुर हैं, उनके द्वारा (ऋष्वौ)  अतिस्थूल (वनस्पती) काठ के ओखली-मूसल  (सम्पादितौ+स्तः) सिद्ध किये हुए हों। (यौ) जो (नः) हमारे  (इन्द्राय) ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले व्यवहार के लिये (अद्य) आज  (मधुमत्) जिसमें मधुर आदि प्रशंसनीय गुण हैं, (वस्तु) उस वस्तु को (सुतम्) सिद्ध करते (भवतः) हैं। (तौ) उन मूसल और ओखली को (सर्वैः) सब मनुष्य (सम्पादनीयौ) सिद्ध करें॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ता) तौ मुसलोलूखलाख्यौ। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (नः) अस्माकम् (अद्य) अस्मिन् दिने (वनस्पती) काष्ठमयौ (ऋष्वौ) महान्तौ। ऋष्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (ऋष्वेभिः) महद्भिर्विद्वद्भिः। बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (सोतृभिः) अभिषवकरणकुशलैः (इन्द्राय) ऐश्वर्यप्रापकाय व्यवहाराय (मधुमत्) मधवो मधुरादयः प्रशस्ता गुणा विद्यते यस्मिन् तत्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (सुतम्) सम्पादितुं वस्तु॥८॥
    विषयः- पुनस्ते कथंभूते कार्ये इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- यौ सोतृभिर्ऋष्वौ वनस्पती सम्पादितौ स्तो यौ नोऽस्माकमिन्द्रायाद्य मधुमद्वस्तु सुतं सम्पादनहेतुभवतस्तौ सर्वैः सम्पादनीयौ॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा पाषाणस्य मुसलोलूखलानि भवन्ति, तथैव काष्ठायःपित्तलरजतसुवर्णादीनामपि क्रियन्ते, तैः श्रेष्ठैरोषधाभिषवादीन् साधयेयुरिति॥८॥

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    विषय

    माधुर्यमय जीवन

    पदार्थ

    १. प्रभु कहते हैं कि हे मनुष्यो ! (वः) - तुममें से (अद्य) - आज (ता) - वे पति - पत्नी जोकि वनस्पती ज्ञान की रश्मियों के पति बने हैं और अतएव (ऋष्वौ) - महान् बने हैं [नि० ३/३] , वे (ऋष्वेभिः) - महान् (सोतृभिः) - सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुषों के सम्पर्क में रहकर (इन्द्राय) -  उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए (मधुमत्) - माधुर्य से युक्त इस सोम का (सुतम्) - अभिषव व सम्पादन करें । 

    २. सोम को यहाँ 'मधुमत्' कहा है । सोम के रक्षण से जीवन में सचमुच माधुर्य उत्पन्न होता है । इसके रक्षण से उन्नतिपथ पर बढ़ता हुआ जीव अन्ततः प्रभु को प्राप्त करनेवाला बनता है । 

    ३. इसका पान करनेवाले नर - नारी 'वनस्पती' - ज्ञान की रश्मियों के पति व बड़े ज्ञानी बनते हैं और जीवन में ऋष्व व महान् होते हैं । 

    ४. इस सोम के रक्षण के लिए यह भी आवश्यक है कि हम महान् [ऋष्व] व सोमसम्पादन करनेवाले पुरुषों के सम्पर्क में ही रहें । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम शरीर में सोम का रक्षण करते हुए सदा जीवन को माधुर्यमय बनाएँ । 

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    विषय

    राजा नायक को उपदेश ।

    भावार्थ

    ( वनस्पती ) काष्ठ के ऊखल और मूसल दोनों जिस प्रकार गृहपति के लिये ( मधुमत् सुतम् ) मधुर अन्न को तैयार करते हैं उसी प्रकार (ता) वे दोनों ( वनस्पती ) सेवन करने योग्य पदार्थों और ऐश्वर्यो पालक राज प्रजावर्ग और स्त्री पुरुष दोनों ( ऋष्वौ ) महान् प्रभुता सामर्थ्य वाले होकर ( ऋष्वेभिः ) दर्शनीय या बड़े २ ( सोतृभिः ) अभिषव, अभिषेक करने वाले प्रजा के विद्वान् पुरुषों से मिलकर ( इन्द्राय ) शत्रु नाशक बलवान् पुरुष के लिये ( मधुमत् ) ऐश्वर्य और बल से सम्पन्न राष्ट्रपति पद को ( सुतम् ) अभिषेक द्वारा प्रदान करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ इन्द्रयज्ञसोमा देवताः ॥ छन्दः—१–६ अनुष्टुप् । ७–९ गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे दगडाचे उखळ व मुसळ असते तसेच लाकूड, लोखंड, पितळ, चांदी, सोने इत्यादींचेही असते. त्या उत्तम उखळ मुसळांनी माणसांनी औषधी इत्यादींपासून अभिषव अर्थात रस काढावा. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Men and women who are dynamic with yajnic ambition, and experts of herbs and forests may provide for us to-day refined essences of soma replete with honey-sweets distilled by brilliant specialists of the science.

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    Subject of the mantra

    Then, how should they (pestle and pounder) be made? This has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yau)=Those, (sotṛbhiḥ) =are skilled in extracting sap, by them, (ṛṣvau) =extremely large, (vanaspatī) =the pestle and pounder made of wood, (sampāditau+staḥ)=have been accomplished, (yau)=those, (naḥ)=our, (indrāya)=for activity making majesty obtained, (adya)=today itself, (madhumat)=having melodious and praiseworthy virtues, (vastu)=to that substance, (sutam)=accomplish, (bhavataḥ)=are, (tau)=to those pestle and pounder, (sarvaiḥ)=all men, (sampādanīyau)= execute.

    English Translation (K.K.V.)

    Those who are skilled in extracting sap, extremely large pounder and pestle would have been accomplished by them. Those who have melodious and praiseworthy virtues accomplish that thing with the activity that brings us the majesty. All human beings must execute those pestles and pounders.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as there are pestle and pounder of stone, similarly they are made of wood, brass, silver, gold etc., make herbal medicines etc. extracts by those excellent pestle and pounder.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they be used is the taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The great mortar and pestle which are prepared by the great experts in extracting juices etc. out of wood may be useful to us to-day for the activities leading to prosperity. With their help sweet and beneficial essence is prepared. They should be used by all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वनस्पती) काष्ठमयौ = Made of wood, wooden. ( ऋष्वौ ) महान्तौ ऋष्व इति महभामसु पठितम् ( निघ० ३.३ )|= Great, very useful. (इन्द्राय) ऐश्वर्यप्रापकाय व्यवहाराय । = For a dealing or activity leading to prosperity.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As mortar and pestle are made of the stone, they can also be made of wood, iron, brass, silver and gold etc. With them nicely made, the juice of the herbs may be extracted.

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