ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 28/ मन्त्र 6
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्रयज्ञसोमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
उ॒त स्म॑ ते वनस्पते॒ वातो॒ विवा॒त्यग्र॒मित्। अथो॒ इन्द्रा॑य॒ पात॑वे सु॒नु सोम॑मुलूखल॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्म॒ । ते॒ । व॒न॒स्प॒ते॒ । वातः॑ । वि । वा॒ति॒ । अग्र॑म् । इत् । अथो॒ इति॑ । इन्द्रा॑य । पात॑वे । सु॒नु । सोम॑म् । उ॒लू॒ख॒ल॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्म ते वनस्पते वातो विवात्यग्रमित्। अथो इन्द्राय पातवे सुनु सोममुलूखल॥
स्वर रहित पद पाठउत। स्म। ते। वनस्पते। वातः। वि। वाति। अग्रम्। इत्। अथो इति। इन्द्राय। पातवे। सुनु। सोमम्। उलूखल॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 28; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तत्किमर्थं ग्राह्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे विद्वन् ! यथा वात इत्तस्यास्य वनस्पतेरग्रमुत विवाति स्माथो इत्यनन्तरमिन्द्राय जीवाय सोमं पातवे पातुं सुनोति निष्पादयति तथोलूखलेन यवाद्यमोषधिसमुदायं सुनु॥६॥
पदार्थः
(उत) अपि (स्म) अतीतार्थे क्रियायोगे (ते) तस्य (वनस्पते) वृक्षादेः (वातः) वायुः (वि) विविधार्थे क्रियायोगे (वाति) गच्छति (अग्रम्) उपरिभागम् (इत्) एव (अथो) अनन्तरे (इन्द्राय) जीवाय (पातवे) पातुं पानं कर्त्तुम्। अत्र तुमर्थे सेसेनसे० इति तवेन्प्रत्ययः। (सुनु) सेधय (सोमम्) सर्वौषधं सारम् (उलूखल) उलूखलेन बहुकार्यकरेण साधनेन। अत्र सुपां सुलुग्० इति तृतीयैकवचनस्य लुक्॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा पवनेन सर्वे वनस्पत्योषध्यादयो वर्ध्यन्ते, तदैव प्राणिनस्तेषां पुष्टानामुलूखले स्थापनं कृत्वा सारं गृहीत्वा भुञ्जते, रसमपि पिबन्ति, नैतेन विना कस्यचित्पदार्थस्य वृद्धिपुष्टी सम्भवतः॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह किसलिये ग्रहण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जैसे (वातः) वायु (इत्) ही (वनस्पते) वृक्ष आदि पदार्थों के (अग्रम्) ऊपरले भाग को (उत) भी (वि वाति) अच्छे प्रकार पहुँचाता (स्म) पहुँचा वा पहुँचेगा (अथो) इसके अनन्तर (इन्द्राय) प्राणियों के लिये (सोमम्) सब ओषधियों के सार को (पातवे) पान करने को सिद्ध करता है, वैसे (उलूखल) उखरी में यव आदि ओषधियों के समुदाय के सार को (सुनु) सिद्ध कर॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब पवन सब वनस्पति ओषधियों को अपने वेग से स्पर्श कर बढ़ाता है, तभी प्राणी उनको उलूखल में स्थापन करके उनका सार ले सकते और रस भी पीते हैं। इस वायु के विना किसी पदार्थ की वृद्धि वा पुष्टि होने का सम्भव नहीं हो सकता है॥६॥
विषय
फिर वह किसलिये ग्रहण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्वन् ! यथा वातः इत् त्तस्य अस्य वनस्पतेः अग्रम् उत विवाति स्म अथः इति अनन्तरम् इन्द्राय जीवाय सोमं पातवे पातुं सुनोति निष्पादयति तथा उलूखलेन यव आद्यम् ओषधिसमुदायम् सुनु॥६॥
पदार्थ
हे (विद्वन्)=विद्वान् ! (यथा)=जैसे, (वातः) वायुः=वायु, (इत्) एव=ही, (त्तस्य)=उस, (अस्य)=इसके, (वनस्पते) वृक्षादेः=वृक्ष आदि के [वनस्पति आदि ओषधियों को], (अग्रम्)=अग्र भाग में, (उत) अपि=भी, (वि) विविधार्थे क्रियायोगे=अच्छे प्रकार से, (वाति) गच्छति= पहुँचाता, (स्म) अतीतार्थे=था, (अथः) अनन्तरे=इसके बाद में, (इन्द्राय) जीवाय=प्राणियों के लिये, (सोमम्)=सब ओषधियों के सार को, (पातवे) पातुं पानं कर्त्तुम्=पान करने को सिद्ध करता है, वैसे, (सुनोति)=अर्क निकालता है, (तथा)=वैसे ही, (उलूखलेन) उलूखलेन बहुकार्यकरेण साधनेन=ओखली द्वारा बहुत काम करने में, (यव)=यव, (आद्यम्)=आदि, (ओषधिसमुदायम्)=ओषधियों के समुदाय के सार का, (सुनु) सेधय=अर्क निकालो॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब पवन से सब वनस्पति ओषधि आदि बढ़ते हैं, तभी प्राणी उनको ओखली में स्थापित करके उनका सार ग्रहण करके आनन्द लेते हैं। वे रस भी पीते हैं, इस वायु के विना किसी पदार्थ की वृद्धि या पोषण क्या जाना सम्भव नहीं हो सकता है॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वन्) विद्वान्! (यथा) जैसे (वातः) वायु (इत्) ही (त्तस्य) उस (अस्य) इस (वनस्पते) वृक्ष आदि के [वनस्पति आदि ओषधियों को] (अग्रम्) अग्र भाग में (उत) भी (वि) अच्छे प्रकार से (वाति) पहुँचाता (स्म) था (अथः) इसके बाद में (इन्द्राय) प्राणियों के लिये (सोमम्) सब ओषधियों के सार को (पातवे) पीने के लिए तैयार करता है। वैसे ही (सुनोति) अर्क निकालता है। (तथा) वैसे ही (उलूखलेन) ओखली द्वारा बहुत काम करने में (यव) जौ (आद्यम्) आदि और (ओषधिसमुदायम्) ओषधियों के मिश्रण के सार का (सुनु) अर्क निकालो॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उत) अपि (स्म) अतीतार्थे क्रियायोगे (ते) तस्य (वनस्पते) वृक्षादेः (वातः) वायुः (वि) विविधार्थे क्रियायोगे (वाति) गच्छति (अग्रम्) उपरिभागम् (इत्) एव (अथो) अनन्तरे (इन्द्राय) जीवाय (पातवे) पातुं पानं कर्त्तुम्। अत्र तुमर्थे सेसेनसे० इति तवेन्प्रत्ययः। (सुनु) सेधय (सोमम्) सर्वौषधं सारम् (उलूखल) उलूखलेन बहुकार्यकरेण साधनेन। अत्र सुपां सुलुग्० इति तृतीयैकवचनस्य लुक्॥६॥
विषयः- पुनस्तत्किमर्थं ग्राह्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे विद्वन् ! यथा वात इत्तस्यास्य वनस्पतेरग्रमुत विवाति स्माथो इत्यनन्तरमिन्द्राय जीवाय सोमं पातवे पातुं सुनोति निष्पादयति तथोलूखलेन यवाद्यमोषधिसमुदायं सुनु॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा पवनेन सर्वे वनस्पत्योषध्यादयो वर्ध्यन्ते, तदैव प्राणिनस्तेषां पुष्टानामुलूखले स्थापनं कृत्वा सारं गृहीत्वा भुञ्जते, रसमपि पिबन्ति, नैतेन विना कस्यचित्पदार्थस्य वृद्धिपुष्टी सम्भवतः॥६॥
विषय
सर्वप्रथम कार्य - 'प्राणायाम'
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार हृदय में प्रभु के नाम का स्मरण करने पर वासना विनष्ट होती है और ज्ञान का प्रकाश चमकता है । इस ज्ञान के प्रकाशवाले व्यक्ति को यहाँ 'वनस्पति' कहा गया है । यह प्रतिदिन प्रातः सर्वप्रथम कार्य यह करता है कि प्राणायाम द्वारा शरीर में वायु का विशिष्ट सञ्चार करने के लिए यत्नशील होता है (उत) - और हे (वनस्पते) - ज्ञानरश्मियों के स्वामिन् ! (ते) - तेरे जीवन में (इत् अनम्) - निश्चय से सर्वप्रथम (वातः) - वायु (वि - वाति स्म) - विशिष्ट रूप से गति करती है । प्राणसाधना के द्वारा तू वायु का सारे शरीर में उत्तमता से सञ्चार करता है ।
२. (अथ उ) - और अब हे उलूखल हृदयान्तरिक्ष ! तू इस (इन्द्राय) - प्राणसाधना करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (पातवे) - शरीर में ही व्याप्त करने के लिए (सोमं सुनु) - सोम का सवन कर । हमारे शरीरों में सोम का सम्पादन हो और साथ ही उसका शरीर में ही व्यापन हो । इस व्यापन के लिए प्राणायाम ही सर्वोत्तम उपाय है , इसीलिए यह ज्ञानी पुरुष प्राणायाम को जीवन के दैनिक कार्यक्रम में सर्वप्राथमिकता देता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमें ज्ञानवान् बनकर प्राणायाम को सर्वाधिक महत्त्व देना चाहिए । इसके होने पर ही उत्पन्न हुआ सोम शरीर में ही व्याप्त होगा और हमें सचमुच इन्द्र - शक्तिशाली बनाएगा ।
विषय
राजा नायक को उपदेश ।
भावार्थ
हे ( वनस्पते ) सेवन करने योग्य फल, छाया, उत्तम रस के पालक महा वृक्ष (उत ) और (ते) तेरे ( अग्रम् इत् ) अग्र भाग तक (वातः) वायु अर्थात् रस प्राप्त कराने वाला बल ( विवाति ) विविध प्रकारों से प्राप्त होता है । ( अथो ) और हे ( उलूखल ) ओखली के समान नाना अन्नों को उत्पन्न करने वाले पुरुष ! तू ( इन्द्राय ) ऐश्वर्यवान् पुरुष के ( पातवे ) पान करने के लिये ( सोमम् ) ओषधि रस का ( सुनु ) सार भाग प्राप्त कर । अथवा —हे ( वनस्पते ) सेना समूह के पालक पुरुष ! (वातः) वायु के समान तीव्र बलवान् शत्रु रूप वृक्ष के शाखाओं को तोड़ डालने में सामर्थ पुरुष ! ( ते अग्रम् इत् ) तेरे अग्र अर्थात् मुख्य भाग को को ( वि वाति ) विविध प्रकार से कंपाता है । ( अथो ) इससे हे ( उलूखल ) बहुत से ऐश्वर्य को उत्पन्न करने वाले पुरुष ! तू ( इन्द्राय पातवे ) वायु के समान प्रबल बलवान् राजा के उपभोग के लिये ( सोमम् सुनु ) ऐश्वर्य प्रदान कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ इन्द्रयज्ञसोमा देवताः ॥ छन्दः—१–६ अनुष्टुप् । ७–९ गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा वायू सर्व वनस्पती व औषधींना आपल्या वेगाने करून वाढवितो. तेव्हा माणसे त्यांना उखळात घालून त्यांचे सार काढून घेतात व रसही पितात. या वायूशिवाय कोणत्याही पदार्थाची वृद्धी व पुष्टी होण्याची शक्यता नसते. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Lord of herbs and trees, the wind of your achievement blows ahead far and wide, so then, for the health and joy of humanity, refine and prepare tonics and medications in the refinery for Indra.
Subject of the mantra
Then, why should that be accepted? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan)=scholar, (yathā)=as, (vātaḥ)=air, (it) eva=only, (tasya)=that,(asya)=this, (vanaspate) (vṛkṣādeḥ)=of trees etc., [vanaspati ādi oṣadhiyoṃ ko]= herbal medicine etc. (agram)=in the front part, (uta)=also, (vi)=well, (vāti)=gets delivered, (sma)=used to, (athaḥ)=aftwards it, (indrāya)=for the living beings, (somam)=the essence of all herbal medicines, (pātave)=accomplishes to drink, in the same way, (sunoti)=extract sap, (tathā)=in the same way, (ulūkhalena) = in doing a lot of work with pounder, (yava)=barley, (ādyam)= =et cetera, (oṣadhisamudāyam)=of the essence of the mixture of herbal medicines, (sunu)=extract sap.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! Just as, the wind is used to deliver the herbs in that tree et cetera to the front part as well. After this, prepares the essence of all herbal medicines for the living beings to drink, in the same way extract the essence of the mixture of barley etc. and herbal medicines by doing a lot of work with a pounder.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. When all the herbal medicines etc. grow by the air, only then the living beings take them and enjoy their essence by setting them in the pounder. They also drink juice; without this air, it is not possible to grow or nourish any substance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What for should the mortar be used is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person, as the wind gently blows before a forest tree and prepares the Soma (Juice of the herbs) for the beverage of the man, in the same way, with the use of the mortar, extract the essence of the barley and other corns methodically.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When all plants and herbs are nourished by the wind, then men partake of their substance by putting them in the mortar and sip their juice also. Without it, the growth and nourishment of a substance is not possible. (इन्द्राय) जीवाय = For the soul or living being. (पातवे) पान कर्तुम् अत्र तुमर्थे से सेन्से असेन्क्से कसेन् ध्यै अध्यैन् कध्ये कध्यैन् शध्यै शध्यैन् तवै तवैङ् तवेनः ॥ ( अष्टा० ३.४.९ ) इति तवेन् प्रत्ययः ॥ = To drink or partake of. (सोमम् ) सर्वौषधसारम् = The essence of all herbs.
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