ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्रयज्ञसोमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यच्चि॒द्धि त्वं गृ॒हेगृ॑ह॒ उलू॑खलक यु॒ज्यसे॑। इ॒ह द्यु॒मत्त॑मं वद॒ जय॑तामिव दुन्दु॒भिः॥
स्वर सहित पद पाठयत् । चि॒त् । हि । त्वम् । गृ॒हेऽगृ॑हे । उलू॑खलक । यु॒ज्यसे॑ । इ॒ह । द्यु॒मत्ऽत॑मम् । व॒द॒ । जय॑ताम्ऽइव । दु॒न्दु॒भिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे। इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः॥
स्वर रहित पद पाठयत्। चित्। हि। त्वम्। गृहेऽगृहे। उलूखलक। युज्यसे। इह। द्युमत्ऽतमम्। वद। जयताम्ऽइव। दुन्दुभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तेनोलूखलेन किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे उलूखलक ! विद्वँस्त्वं यद्धि गृहेगृहे युज्यसे तद्विद्यां समादधासि, स त्वमिह जयतां दुन्दुभिरिव द्युमत्तममुलूखलं वादयैतद्विद्यां (चित्) वदोपदिश॥५॥
पदार्थः
(यत्) यस्मात् (चित्) चार्थे (हि) प्रसिद्धौ (गृहेगृहे) प्रतिगृहम् वीप्सायां द्वित्वं (उलूखलक) उलूखलं कायति शब्दयति यस्तत्सम्बुद्धौ विद्वन् (युज्यसे) समादधासि (इह) अस्मिन्संसारे गृहे स्थाने वा (द्युमत्तमम्) प्रशस्तः प्रकाशो विद्यते यस्मिन् स शब्दो द्युमान् अतिशयेन द्युमान् द्युमत्तमस्तम्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (वद) वादय वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः। (जयतामिव) विजयकरणशीलानां वीराणामिव (दुन्दुभिः) वादित्रविशेषैः॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। सर्वेषु गृहेषूलूखलक्रिया योजनीया यथा भवति शत्रूणां विजेतारः सेनास्थाः शूरा दुन्दुभिः वादयित्वा युध्यन्ते, यथैव रससम्पादकेन मनुष्येणोलूखले यवाद्योषधीर्योजयित्वा मुसलेन हत्वा तुषादिकं निवार्य्य सारांशः संग्राह्य इति॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
उक्त उलूखल से क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (उलूखलक) उलूखल से व्यवहार लेनेवाले विद्वान् ! तू (यत्) जिस कारण (हि) प्रसिद्ध (गृहेगृहे) घर-घर में (युज्यसे) उक्त विद्या का व्यवहार वर्त्तता है (इह) इस संसार गृह वा स्थान में (जयताम्) शत्रुओं को जीतनेवालों के (दुन्दुभिः) नगाड़ों के (इव) समान (द्युमत्तमम्) जिसमें अच्छे शब्द निकले, वैसे उलूखल के व्यवहार की (वद) विद्या का उपदेश करें॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब घरों में उलूखल और मुसल को स्थापन करना चाहिये, जैसे शत्रुओं के जीतनेवाले शूरवीर मनुष्य अपने नगाड़ों को बजा कर युद्ध करते हैं, वैसे ही रस चाहनेवाले मनुष्यों को उलूखल में यव आदि ओषधियों को डालकर मुसल से कूटकर भूसा आदि दूर करके सार-सार लेना चाहिये॥५॥
विषय
उक्त उलूखल से क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे उलूखलक ! विद्वन् त्वं यत् हि गृहे गृहे युज्यसे तद् विद्यां समादधासि, स त्वम् इह जयतां दुन्दुभिः इव द्युमत्तम् उलूखलम् वादय एतद् विद्यां चित वद उपदिश॥५॥
पदार्थ
हे (उलूखलक) उलूखलं कायति शब्दयति यस्तत्सम्बुद्धौ विद्वन्=ओखली से व्यवहार और शब्द करनेवाले वाले विद्वान्! (त्वम्)=तू, (यत्) यस्मात्=जिस कारण से, (हि) प्रसिद्धौ=प्रसिद्धि में, (गृहेगृहे) प्रतिगृहम् वीप्सायां द्वित्व=घर-घर में, (युज्यसे) समादधासि=उक्त विद्या का व्यवहार करते हो, (तद्)=उस, (विद्याम्)=विद्या को, (समादधासि)=अच्छे प्रकार से स्थापित करो, (सः)=वह, (त्वम्)=तुम, (इह) अस्मिन्संसारे गृहे स्थाने वा=इस संसार गृह या स्थान में, (जयताम्) विजयकरणशीलानां वीराणाम्=शत्रुओं को जीतने के स्वभाववालों के, (दुन्दुभिः) वादित्रविशेषैः=नगाड़ों के, (इव)=समान, (द्युमत्तमम्) प्रशस्तः प्रकाशो विद्यते यस्मिन् स शब्दो द्युमान् अतिशयेन द्युमान् द्युमत्तमस्तम्=जिसमें अच्छे शब्द निकले, वैसे ओखली के ऐसे अत्यधिक व्यवहार, (विद्याम्)=विद्या को, (चित्) चार्थे =और, (वद) वादय वा=बोलो या, (उपदिश)=उपदेश करो॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब घरों में ओखली और मूसल की क्रिया का व्यवहार करना चाहिए। जैसे शत्रुओं के जीतनेवाले सेना में स्थित शूरवीर नगाड़ों को बजा कर युद्ध करते हैं, वैसे ही रसों को निकालकर मनुष्य के द्वारा को ओखली में यव आदि ओषधियों का प्रयोग करके मूसल से कूटकर भूसा आदि दूर करके सार-सार को ग्रहण कर लेना चाहिये॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (उलूखलक) ओखली से व्यवहार और शब्द करनेवाले वाले विद्वान्! (त्वम्) तू (यत्) जिस कारण से (हि) प्रसिद्धि में (गृहेगृहे) घर-घर में (युज्यसे) उक्त विद्या का व्यवहार करता और (गृहेगृहे) घर-घर में (युज्यसे) उक्त विद्या का व्यवहार करते हो। (तद्) उस (विद्याम्) विद्या को (समादधासि) अच्छे प्रकार से स्थापित करो। (सः) वह (त्वम्) तुम (इह) इस संसार गृह या स्थान में (जयताम्) शत्रुओं को जीतने के स्वभाववालों के (दुन्दुभिः) नगाड़ों के (इव) समान (द्युमत्तमम्) जिनमें अच्छे शब्द निकले, वैसे ओखली के अत्यधिक प्रयोग की (विद्याम्) विद्या को (चित्) और भी (वद) बोलो या (उपदिश) उपदेश करो॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यत्) यस्मात् (चित्) चार्थे (हि) प्रसिद्धौ (गृहेगृहे) प्रतिगृहम् वीप्सायां द्वित्वं (उलूखलक) उलूखलं कायति शब्दयति यस्तत्सम्बुद्धौ विद्वन् (युज्यसे) समादधासि (इह) अस्मिन्संसारे गृहे स्थाने वा (द्युमत्तमम्) प्रशस्तः प्रकाशो विद्यते यस्मिन् स शब्दो द्युमान् अतिशयेन द्युमान् द्युमत्तमस्तम्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (वद) वादय वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः। (जयतामिव) विजयकरणशीलानां वीराणामिव (दुन्दुभिः) वादित्रविशेषैः॥५॥
विषयः- तेनोलूखलेन किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः- हे उलूखलक ! विद्वँस्त्वं यद्धि गृहेगृहे युज्यसे तद्विद्यां समादधासि, स त्वमिह जयतां दुन्दुभिरिव द्युमत्तममुलूखलं वादयैतद्विद्यां (चित्) वदोपदिश॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। सर्वेषु गृहेषूलूखलक्रिया योजनीया यथा भवति शत्रूणां विजेतारः सेनास्थाः शूरा दुन्दुभिः वादयित्वा युध्यन्ते, यथैव रससम्पादकेन मनुष्येणोलूखले यवाद्योषधीर्योजयित्वा मुसलेन हत्वा तुषादिकं निवार्य्य सारांशः संग्राह्य इति॥५॥
विषय
विजेता का भेरीनाद
पदार्थ
१. अध्यात्म में शरीर ही 'गृह' है , 'उलूखल' हृदय है । प्रभु ने प्रत्येक शरीर में इसकी स्थापना की है । उस हृदय में हमें उस ज्योतिर्मय प्रभु के नामों का उच्चारण करना है जिससे हम वासनाओं को पराजित करके विजय - दुन्दुभि बजा सकें ।
२. मन्त्र में कहते हैं कि (उलूखलक) - हे सुन्दर हृदयान्तरिक्ष ! (यत्) - जो (चित् हि) - निश्चय से (त्वम्) - तू (गृहे-गृहे) - प्रत्येक शरीररूप गृह में (युज्यसे) - प्रभु से युक्त किया जाता है , अतः (इह) - इस मानव - जीवन में तू (द्युमत्तमम्) - उस निरतिशय ज्योतिवाले प्रभु को (वद) - कह , अर्थात् उसके नामों का उच्चारण कर । यह नामोच्चारण तेरे लिए इस प्रकार हो (इव) - जैसे (जयताम्) - विजयशील पुरुष का (दुन्दुभिः) - भेरीनाद हो ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ने शरीर में हृदय की स्थापना की है । हमें चाहिए कि हृदय में प्रभु के नाम का स्मरण करें और सदा वासनाओं को जीतनेवाले हों ।
विषय
राजा नायक को उपदेश ।
भावार्थ
हे ( उलूखलक ) अति अधिक ज्ञानोत्पादक वचनों को उपदेश करने हारे विद्वन् ! तू अति अधिक ज्ञानोत्पादक ओखली के समान ( यत् चित् हि ) जो तू ( गृहे गृहे ) घर घर ( युज्यसे ) नियुक्त किया जाता है तो तू ( इह ) इस राष्ट्र में ( जयताम् ) विजयकारी योद्धाओं के ( दुन्दुभिः ) रण भेरी के समान ( द्युमत्तमं वद ) अति ज्ञानप्रकाश से युक्त उपदेश (वद) किया कर ।
टिप्पणी
उल्लूखलक—उलूखलं कायति शब्दयति तत्सम्बुद्धौ, विद्वन्, इति दया० भा० । उलूखलमुरुकरं वा उर्करं वा, ऊर्ध्वंखं वा, 'उरु कुरु मे' इत्यब्रवीत् तदुलूखलमभवत् । उरुकरं वैतदुलूखलमित्याचक्षते । निरु० ९ । २० ॥ बहुत अन्न, ज्ञान, कार्य, शक्ति आदि उत्पन्न करने वाले ओखली, गुरु, बड़ा पुरुष, राजा, पुरोहित आदि सभी 'उलूखल' शब्द से कहे जाने योग्य हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ इन्द्रयज्ञसोमा देवताः ॥ छन्दः—१–६ अनुष्टुप् । ७–९ गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. सर्व घरात उलूखल (उखळ व मुसळ) असले पाहिजे. जशी शत्रूंना जिंकणारी शूरवीर माणसे आपले नगारे वाजवून युद्ध करतात तसे रस प्राप्त करू इच्छिणाऱ्या माणसांनी उखळात जव इत्यादी औषधी घालून मुसळाने कुटून भुसा इत्यादी दूर करून मूळ पदार्थ (सार) घेतले पाहिजे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Pharmacist of the soma refinery, whatever the knowledge, technique and process that you use in operation in every home, announce here itself the brilliant results of that loudly as if with the drum of a victor.
Subject of the mantra
What should be done with aforesaid pounder, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (ulūkhalaka)=pounder using scholar, (tvam)=you, (yat)=due to which reason, (hi)=in fame, (gṛhegṛhe)=in every house, (yujyase)=practice the aforesaid knowledge, (tad)=to that, (vidyām)=knowledge, (samādadhāsi)=enunciate well, (saḥ)=that, (tvam)=you, (iha) =in this world, home or place, (jayatām=of conquerors of enemies, (dundubhiḥ)=of drums, (iva)=like that, (dyumattamam)=In which good sound comes out, by excessive use of that pounder, (vidyām)=to knowledge, (cit)=even more, (vada)=speak or, (upadiśa)=preach.
English Translation (K.K.V.)
O pounder using scholar who talks and speaks with words! Due to which you in fame practice the said knowledge in every house, establish that knowledge in a good way. In this world or place, like the drums of those who have the nature of conquering enemies, in which good words come out, in the same way speak or preach the science of excessive use of pounder.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. The use of pounder and pestle should be done in all the houses. Just as the warriors in the victorious army of the enemies fight by playing the drums, similarly, by extracting the juices, a man should use barley etc. in the pounder, crushing it with a pestle and removing the chaff, et cetera.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should be done with that Mortar is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person who sound the mortar, as you use this (mortar) in this world and the house and know its technique well, give forth a lusty sound, like the drum of a victorious host.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( उलूखलक ) उलूखलं कायति शब्दयति यः तत्सम्बुद्धौ विद्वन् = O learned person sounding the mortar.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile in this mantra. In all houses, mortar should be properly used. As the heroic conquerors of their enemies sound the drum or trumpet and then fight bravely, in the same manner, the man who desires to extract the juice of herbs like the barley and others, should put them in the mortar, beat them with pestle, take away the husk and partake of the substance and essence.
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