Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 5 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 5/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    मा नो॒ मर्ता॑ अ॒भिद्रु॑हन्त॒नूना॑मिन्द्र गिर्वणः। ईशा॑नो यवया व॒धम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । मर्ताः॑ । अ॒भि । द्रु॒ह॒न् । त॒नूना॑म् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । ईशा॑नः । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो मर्ता अभिद्रुहन्तनूनामिन्द्र गिर्वणः। ईशानो यवया वधम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। नः। मर्ताः। अभि। द्रुहन्। तनूनाम्। इन्द्र। गिर्वणः। ईशानः। यवय। वधम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    कस्य रक्षणेन पुरुषार्थः सिद्धो भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे गिर्वणः सर्वशक्तिमन्निन्द्र परमेश्वर ! ईशानस्त्वं नोऽस्माकं तनूनां वधं मा यवय। इमे मर्त्ताः सर्वे प्राणिनोऽस्मान् मा अभिद्रुहन् मा जिघांसन्तु॥१०॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधार्थे (नः) अस्माकमस्मान्वा (मर्त्ताः) मरणधर्माणो मनुष्याः। मर्त्ता इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (अभिद्रुहन्) अभिद्रुह्यन्त्वभिजिघांसन्तु। अत्र व्यत्ययेन शो लोडर्थे लुङ् च। (तनूनाम्) शरीराणां विस्तृतानां पदार्थानां वा (इन्द्र) सर्वरक्षकेश्वर ! (गिर्वणः) वेदशिक्षाभ्यां संस्कृताभिर्गीर्भिर्वन्यते सम्यक् सेव्यते यस्तत्सम्बुद्धौ (ईशानः) योऽसावीष्टे (यवय) मिश्रय। प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्चेति यवशब्दाद्धात्वर्थे णिच्। अन्येषामपि दृश्यते। (अष्टा०६.३.१३७) इति दीर्घः। (वधम्) हननम्॥१०॥

    भावार्थः

    नैव कोऽपि मनुष्योऽन्यायेन कंचिदपि प्राणिनं हिंसितुमिच्छेत्, किन्तु सर्वैः सह मित्रतामाचरेत्। यथेश्वरः कंचिदपि नाभिद्रुह्यति, तथैव सर्वैर्मनुष्यैरनुष्ठातव्यमिति॥१०॥अनेन पञ्चमेन सूक्तेन मनुष्यैः कथं पुरुषार्थः कर्त्तव्यः सर्वोपकारश्चेति चतुर्थेन सूक्तेन सह सङ्गतिरस्तीति विज्ञेयम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चान्यथार्थं वर्णितम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    किसकी रक्षा से पुरुषार्थ सिद्ध होता है, इस विषय का प्रकाश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे (गिर्वणः) वेद वा उत्तम-उत्तम शिक्षाओं से सिद्ध की हुई वाणियों करके सेवा करने योग्य सर्वशक्तिमान् (इन्द्र) सब के रक्षक (ईशानः) परमेश्वर ! आप (नः) हमारे (तनूनाम्) शरीरों के (वधम्) नाश (मा) कभी मत (यवय) कीजिये, तथा आपके उपदेश से (मर्त्ताः) ये सब मनुष्य लोग भी (नः) हम से (मा) (अभिद्रुहन्) वैर कभी न करें॥१०॥

    भावार्थ

    कोई मनुष्य अन्याय से किसी प्राणी को मारने की इच्छा न करे, किन्तु परस्पर मित्रभाव से वर्त्तें, क्योंकि जैसे परमेश्वर विना अपराध से किसी का तिरस्कार नहीं करता, वैसे ही सब मनुष्यों को भी करना चाहिये॥१०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अनभिद्रोह 

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) - जितेन्द्रिय पुरुष ! गतमन्त्र के अनुसार तू सात्विक अन्नों के प्रयोग से सोम का रक्षण करनेवाला बनकर प्रयत्न कर कि (मर्ताः) - विषयों के पीछे मरनेवाले मनुष्य (नः) - हमारे (तनूनाम्) - इन शरीरों के (मा अभिद्रुहन्) - हनन करने की इच्छा न करें [द्रुह् - जिघांसा]  , मनुष्य विषयों के प्रति लालायित होता है और ये भोगविलास उसके शरीर को रोगों का घर बनाकर नष्ट कर देते हैं । सो हम मर्त न बनें  , विषयों के पीछे न मरें  , इनकी आपातरमणीयता (Brightness only in appearance) को समझकर इनमें न फंसें और इनसे ऊपर उठें । 
    २. हे (गिर्वणः) - ज्ञान की वाणियों का सेवन करनेवाले जीव ! तू (ईशानः) - इन्द्रियों का मालिक  , न कि दास बनता हुआ (वधम् यवया) - वध को अपने से दूर कर । वध को  , विषयों का शिकार बन जाने को  , दूर करने का उपाय एक ही है कि - हम 'ईशान' बनें  , जितेन्द्रिय बनें । जितेन्द्रियता के लिए हम सदा 'गिर्वणः' ज्ञान की वाणियों का सेवन करनेवाले हों । इनसे हमें विषयों की तुच्छता का आभास मिलेगा । हम विषयों के पीछे न मरेंगे और प्रभु से दिये गये इन शरीरों की सम्यक्तया रक्षा कर पाएंगे । ये शरीर 'देव - मन्दिर' हैं  , 'ऋषियों के आश्रम' हैं । इन्हें पवित्र व सुरक्षित रखना हमारा कर्तव्य है । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम स्वाध्यायशील व जितेन्द्रिय [गिर्वणः - ईशानः] बनकर विषयों से ऊपर उठें और प्रभु से दिये गये इन शरीरों को असमय में ही नष्ट न होने दें । 

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस सूक्त का प्रारम्भ मिलकर प्रभु का गायन करने के निर्देश से होता है [१]  , वे प्रभु ही पालकों के पालक हैं [३]  , प्रभु के हृदयस्थ होने पर कामादि शत्रु हमारी इन्द्रियों को आक्रान्त नहीं कर सकते [४]  , इस प्रकार प्रभु - स्तवन सोम के रक्षण में सहायक होता है । सोम - रक्षण करनेवाले को सात्त्विक अन्न को ही सेवन करना है [२]  , और ईशान - इन्द्रियों का स्वामी बनकर उसे शरीरों को असमय में नष्ट नहीं होने देना [१०] । इन सुरक्षित शरीरों को [शरीर  , मन व बुद्धि को] हम किन कार्यों में लगाएँ ? इस जिज्ञासा का उत्तर अगले सूक्त में देते हैं -

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    किसकी रक्षा से पुरुषार्थ सिद्ध होता है, इस विषय का प्रकाश ईश्वर ने इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे  गिर्वणः सर्वशक्तिमन् इन्द्र परमेश्वर ! ईशानः त्वं नः  अस्माकं तनूनां वधं मा यवय। इमे मर्त्ताः सर्वे प्राणिनः अस्मान् मा अभिद्रुहन् मा जिघामे सन्तु॥१०॥

    पदार्थ

    हे  (गिर्वणः) वेदशिक्षाभ्यां संस्कृताभिर्गीर्भिर्वन्यते सम्यक् सेव्यते यस्तत्सम्बु=वेद वा उत्तम-उत्तम शिक्षाओं से सिद्ध की हुई वाणियों का सेवा करने योग्य, (सर्व शक्तिमान्)=सर्वशक्तिमान, (ईशानः) योऽसावीष्टे=जो वह अभिलषित परमेश्वर शासन चाहता है, अर्थात् स्वामित्व रखता है, ऐसे, (इन्द्र) सर्वरक्षकेश्वरः= सबके रक्षक परमेश्वर, (त्वम्)=आप, (नो–अस्माकम्)=हमारे, (तनूनाम्) शरीराणां विस्तृतीनां पदार्थानां वा=शरीरों के विस्तार या पदार्थ, (वधम्) हननम्=नाश को, (मा)=मत, (यवय)=कीजिये, (इमे)=ये सब, (मर्त्ताः) मरणधर्मी, (मनुष्याः)=मनुष्य, (सर्वे)=सब, (प्राणिनः)=प्राणी, (अस्मान्)=हमारे, (अभिद्रुहन्) अभिदु्रह्यन्त्वभिजिघांसन्तु=वैरी,   (मा)=न (सन्तु)=हों।  

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    कोई मनुष्य अन्याय से किसी प्राणी को मारने की इच्छा न करे, किन्तु परस्पर मित्रभाव से आचरण करें। जैसे परमेश्वर किसी से भी घृणा नहीं करता है, वैसे ही सब मनुष्यों को भी कार्यान्वित करना चाहिये॥१०॥

    विशेष

     सूक्त के भावार्थ का भाषार्थ- इस पाँचवें सूक्त के द्वारा मनुष्यों को कैसे पुरुषार्थ और सर्वोपकार करना चाहिये, इसकी चौथे सूक्त से सङ्गति जाननी चाहिये॥१०॥
    महर्षिकृत विलसन और सायण भाष्य पर टिप्पणी- इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चान्यथार्थं वर्णितम्॥१०॥
    महर्षिकृत विलसन और सायण भाष्य पर टिप्पणी का भाषार्थ-इस सूक्त का भी सायणाचार्य आदि और डाक्टर विलसन आदि साहबों ने भिन्न तरीके से अर्थ किया है॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (गिर्वणः) वेद या उत्तम-उत्तम शिक्षाओं से सिद्ध की हुई वाणियों द्वारा  सेवा करने योग्य (सर्वशक्तिमन्) सर्वशक्तिमान् (ईशानः) अभिलषित (इन्द्र) परमेश्वर, (त्वम्) आप  (नः) हमारे  (तनूनाम्) शरीरों का (वधम्) नाश (मा) मत (यवय) कीजिये। (इमे) ये सब  (मर्त्ताः) मरणधर्मी मनुष्य [और] (सर्वे) सब (प्राणिनः) प्राणी (अस्मान्) हमारे (अभिद्रुहन्) वैरी (मा) न  (सन्तु) हों।  

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मा) निषेधार्थे (नः) अस्माकमस्मान्वा (मर्त्ताः) मरणधर्माणो मनुष्याः। मर्त्ता इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (अभिद्रुहन्) अभिद्रुह्यन्त्वभिजिघांसन्तु। अत्र व्यत्ययेन शो लोडर्थे लुङ् च। (तनूनाम्) शरीराणां विस्तृतानां पदार्थानां वा (इन्द्र) सर्वरक्षकेश्वर ! (गिर्वणः) वेदशिक्षाभ्यां संस्कृताभिर्गीर्भिर्वन्यते सम्यक् सेव्यते यस्तत्सम्बुद्धौ (ईशानः) योऽसावीष्टे (यवय) मिश्रय। प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्चेति यवशब्दाद्धात्वर्थे णिच्। अन्येषामपि दृश्यते। (अष्टा०६.३.१३७) इति दीर्घः। (वधम्) हननम्॥१०॥
    विषयः- कस्य रक्षणेन पुरुषार्थः सिद्धो भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे गिर्वणः सर्वशक्तिमन्निन्द्र परमेश्वर ! ईशानस्त्वं नोऽस्माकं तनूनां वधं मा यवय। इमे मर्त्ताः सर्वे प्राणिनोऽस्मान् मा अभिद्रुहन् मा जिघांसन्तु॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- नैव कोऽपि मनुष्योऽन्यायेन कंचिदपि प्राणिनं हिंसितुमिच्छेत्, किन्तु सर्वैः सह मित्रतामाचरेत्। यथेश्वरः कंचिदपि नाभिद्रुह्यति, तथैव सर्वैर्मनुष्यैरनुष्ठातव्यमिति॥१०॥

    महर्षिकृतः सूक्तस्य भावार्थः- अनेन पञ्चमेन सूक्तेन मनुष्यैः कथं पुरुषार्थः कर्त्तव्यः सर्वोपकारश्चेति चतुर्थेन सूक्तेन सह सङ्गतिरस्तीति विज्ञेयम्॥१०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पक्षान्तर में जीव का वर्णन । (

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! हे ( गिर्वणः ) आज्ञा प्रदान करने वाले ! ( मर्त्ताः ) मरणधर्मा मनुष्य ( नः तनूनाम् ) हमारे शरीरों का ( मा अभि द्रुहन् ) द्रोह न करें, हम पर द्वेष से प्रहार न करें । तू ( ईशानः ) सब का सामर्थ्यवान् स्वामी होकर ( वयम् ) इस घात या हिंसा कार्य को ( यवय ) दूर कर । परमेश्वर पक्ष में—हे ( गिर्वणः ) वेद वाणियों से स्तुति योग्य ! हे परमेश्वर ! लोग हमारे शरीरों का नाश न करें । तू हिंसा कार्य को दूर कर । इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणत्याही माणसाने अन्यायाने एखाद्या प्राण्याला मारण्याची इच्छा धरू नये, तर मित्रभावाने वागावे. कारण परमेश्वर अपराध न करता कुणाचाही तिरस्कार करीत नाही, तसेच माणसानेही वागावे. ॥ १० ॥

    टिप्पणी

    या सूक्ताचाही अर्थ सायणाचार्य इत्यादी व डॉक्टर विल्सन इत्यादी साहेबांनी विपरीत केलेला आहे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord adorable in sacred song, let no mortal hate or injure our body and mind from anywhere. Keep off hate, violence and murder far away from us. You are the ruler, ordainer and dispenser of justice and punishment.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    By whose protection the human object is accomplished has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (girvaṇaḥ)=Serviceable through speeches of Vedas or accomplished by excellent preachings of supreme powers, (sarvaśaktiman)= Omnipotent, supreme power, (īśānaḥ)= He who longs for God's rule, i.e. owns it, [aise]=such, (indra)= God the protector of all, (tvam)=you, (naḥ)=our, (tanūnām)=expansion of bodies or its organs, (vadham)=demolish, (mā)=not, (yavaya)=do, (ime)=all these,(marttāḥ)=prone to death man, (sarve)=all, (prāṇinaḥ)=Living being, (asmān)=our, (abhiduhan)= enmy, (mā)=not, (santu)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O Almighty! One who is capable of being served by words accomplished by the Vedas or the best teachings, do not destroy our bodies. That desired God who wants to rule, that is, has ownership. Let all these mortal men and all creatures not be our enemies.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- Through this fifth hymn, how human beings should make efforts and do everyone's favour, its association with the fourth hymn should be known. Translation of commentary by Maharshi Dayanand on Wilson and Sayana's commentary- This hymn has also been interpreted in different ways by Sayanacharya etc. and Dr. Wilson et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    No man should wish to kill any creature unjustly, but behave in a mutually friendly manner. Just as God hates no one, so must all men.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O supreme Lord, the only object of our devotion, may our fellow-brothers bear no malice towards us. May mortal men never hurt us. Keep us away from all adversaries, O merciful God.

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिंगलिश (1)

    Subject

    Honesty & Fair play

    Word Meaning

    राग द्वेष भेद भाव स्वार्थ से प्रेरित हम अपनी वाणी और व्यवहार से किसी भी जीवधारी का शोषण और अहित न करें| Motivated by selfishness / greed do not bear ill will or cheat any one and ensure fair play

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top