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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    पु॒रू॒तमं॑ पुरू॒णामीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। इन्द्रं॒ सोमे॒ सचा॑ सु॒ते॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रु॒ऽतम॑म् । पु॒रू॒णाम् । ईशा॑नम् । वार्या॑णम् । इन्द्र॑म् । सोमे॑ । सचा॑ । सु॒ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम्। इन्द्रं सोमे सचा सुते॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरुऽतमम्। पुरूणाम्। ईशानम्। वार्याणम्। इन्द्रम्। सोमे। सचा। सुते॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तावेवोपदिश्येते।

    अन्वयः

    हे सखायो विद्वांसो वार्य्याणां पुरूतममीशानं पुरूणामिन्द्रमभिप्रगायत। ये सुते सोमे सचाः सन्ति तान् सर्वोपकाराय यथायोग्यमभिप्रगायत॥२॥

    पदार्थः

    (पुरूतमम्) पुरून् बहून् दुष्टस्वभावान् जीवान् पापकर्मफलदानेन तमयति ग्लापयति तं परमेश्वरं तत्फलभोगहेतुं वायुं वा। पुरुरिति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (पुरूणाम्) बहूनामाकाशादिपृथिव्यन्तानां पदार्थानाम् (ईशानम्) रचने समर्थं परमेश्वरं तन्मध्यस्थविद्यासाधकं वायुं वा (वार्य्याणाम्) वराणां वरणीयानामत्यन्तोत्तमानां मध्ये स्वीकर्तुमर्हम्। वार्य्यं वृणोतेरथापि वरतमं तद्वार्य्यं वृणीमहे वरिष्ठं गोपयत्ययं तद्वार्य्यं वृणीमहे वर्षिष्ठं गोपायितव्यम्। (निरु०५.१) (इन्द्रम्) सकलैश्वर्य्यप्रदं परमेश्वरमात्मनः सर्वभोगहेतुं वायुं वा (सोमे) सोतव्ये सर्वस्मिन्पदार्थे विमानादियाने वा। (सचा) ये समवेताः पदार्थाः सन्ति। सचा इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.२) (सुते) उत्पन्नेऽभिषवविद्ययाऽभिप्राप्ते॥२॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्रात् ‘सखायः; तु; अभिप्रगायत’ इति पदत्रयमनुवर्त्तनीयम्। ईश्वरस्य यथायोग्यव्यवस्थया जीवेभ्यस्तत्तत्कर्मफलदातृत्वात् भौतिकस्य वायोः कर्मफलहेतुत्वेन सकलचेष्टाविद्यासाधकत्वादस्मादुभयार्थस्य ग्रहणम्॥२॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में उन्हीं दोनों के गुणों का प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    (सखायः) हे मित्र विद्वान् लोगो ! (वार्य्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवीपर्य्यन्त असंख्यात पदार्थों को (ईशानम्) रचने में समर्थ (पुरूतमम्) दुष्टस्वभाववाले जीवों को ग्लानि प्राप्त करानेवाले (इन्द्रम्) और श्रेष्ठ जीवों को सब ऐश्वर्य्य के देनेवाले परमेश्वर के तथा (वार्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवीपर्य्यन्त बहुत से पदार्थों की विद्याओं के साधक (पुरूतमम्) दुष्ट जीवों वा कर्मों के भोग के निमित्त और (इन्द्रम्) जीवमात्र को सुखदुःख देनेवाले पदार्थों के हेतु भौतिक वायु के गुणों को (अभिप्रगायत) अच्छी प्रकार उपदेश करो। और (तु) जो कि (सुते) रस खींचने की क्रिया से प्राप्त वा (सोमे) उस विद्या से प्राप्त होने योग्य (सचा) पदार्थों के निमित्त कार्य्य हैं, उनको उक्त विद्याओं से सब के उपकार के लिये यथायोग्य युक्त करो॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। पीछे के मन्त्र से इस मन्त्र में सखायः तु अभिप्रगायत इन तीन शब्दों को अर्थ के लिये लेना चाहिये। इस मन्त्र में यथायोग्य व्यवस्था करके उनके किये हुए कर्मों का फल देने से ईश्वर तथा इन कर्मों के फल भोग कराने के कारण वा विद्या और सब क्रियाओं के साधक होने से भौतिक अर्थात् संसारी वायु का ग्रहण किया है॥२॥

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    विषय

    पालकों का पालक 

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र के अनुसार एकत्र होकर प्रभु - गायन करते हुए उपासक कहते हैं कि (पुरूणाम्) [पृ पालनपूरणयोः] - पालकों में (पुरूतमम्) - सर्वाधिक उस पालक प्रभु का हम गायन करते हैं जो प्रभु 'पुरुतम' - [पुरून् बहून् शत्रून्] तमयति ग्लापयति हमारे काम - क्रोधादि शतशः शत्रुओं को क्षीण करते हैं । २. और वस्तुतः इन शत्रुओं को क्षीण करके ही तो प्रभु वरणीय धनों को हमें प्राप्त करते हैं । 
    ३. हम उस (वार्याणाम्) - वरणीय धनों के (ईशानम्) - स्वामी का कीर्तन करते हैं जो प्रभु (इन्द्रम्) - परमैश्वर्यशाली हैं  , सब शत्रुओं का विदारण करनेवाले हैं । 
    ४. उस प्रभु का वस्तुतः स्तवन तो (सोमे सुते) - सोम का अभिषव करने पर (सचा) - उस प्रभु से मेल होने पर ही होता है । हम शरीर में सोम का सम्पादन करें  , उस सोम को शरीर में सुरक्षित करनेवाले बनें तब यह सोम उस प्रभु से हमारा मेल करानेवाला होगा और यही प्रभु का सच्चा स्तवन होगा । 'इस सोम से उस सोम को प्राप्त करना' जीवन की यही सर्वमहान् सफलता है । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - [क] वह प्रभु पालकों में सर्वोत्तम पालक है । [ख] वरणीय वस्तुओं के ईशान हैं । [ग] उस प्रभु का सच्चा स्तवन यही है कि हम सोम के रक्षण से बुद्धि को सूक्ष्म करके प्रभु का दर्शन करें । 

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    विषय

    फिर भी इस मन्त्र में उन्हीं दोनों के गुणों का प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सखायो विद्वांसः वार्य्याणां पुरुतमम् ईशानं पुरुणाम् इन्द्रम् अभिप्रगायत ये सुते सोमे सचाः सन्ति तान् सर्वोपकाराय यथा योग्यम् अभिप्रायत ॥२॥

    पदार्थ

    हे (सखायः)मित्रा=मित्र, (विद्वांसः)=विद्वान् लोगों, (वार्य्याणाम्) वराणां वरणीयायानामत्यन्तोत्तमानां मध्ये स्वीकर्तुमर्हम्=अत्यन्त उत्तम, (पुरुतमम्) पुरून् बहून् दुष्टस्वभावान् पापकर्मपफलदानेन तमयति ग्लापयति तं परमेश्वरं तत्पफलभोगहेतुं वायुं वा=दुष्ट स्वभाव वाले जीवों को ग्लानि प्राप्त कराने वाले, (ईशानम्) रचने समर्थं परमेश्वरं तन्मध्यस्थविद्यासाध्कं वायुं वा=रचने में समर्थ परमेश्वर, उसके बीच में स्थित विद्या के साधक या वायु, (पुरुणाम्) बहूनामाकाशदिपृथ्वियन्तानां पदार्थानाम्=आकाश से लेकर पृथिवी पर्यन्त बहुत सी विद्याओं के साधक, (इन्द्रम्) सकलैश्वर्यप्रदं परमैश्वरमात्मनः सर्वभोगहेतुं वायुं वा=सब ऐश्वर्य देनेवाले परमेश्वर या वायु के भौतिक गुणों का, (अभि)=अच्छी तरह से, (प्रगायत)-प्रगायत-प्रकृष्टेन गायत;नित्यमर्चतद्ध= विशेष रूप से पूजन करते हुए, (ये)= जो, (सुते) उत्पन्नेऽभिषवविद्ययाऽभिप्राप्ते=रस खींचने की विद्या से प्राप्त, (सोमे) सोतव्ये सर्वास्मिन्पदार्थे विमानादियाने वा=सोमलता आदि सब पदार्थों  या विमान आदि विद्या, (सचा) ये समवेताः पदार्थाः=जो मिले हुए पदार्थ हैं, (सन्ति)=हैं, (तान्)=उनको,  (सर्वोपकाराय) सर्व उपकाराय=सबके उपकार के लिए, (यथा)=जैसे, (योग्यम्)=योग्य (अभि)=अच्छी तरह से (प्रगायत)=विशेष रूप से पूजन करो।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। पीछे के मन्त्र से इस मन्त्र में “सखायः तु अभिप्रगायत” इन तीन शब्दों को अर्थ के लिये लेना चाहिये। इस मन्त्र में यथायोग्य व्यवस्था करके उनके किये हुए कर्मों का फल देने से ईश्वर तथा इन कर्मों के फल भोग कराने के कारण वा विद्या और सब क्रियाओं के साधक होने से भौतिक अर्थात् संसारी वायु का ग्रहण किया है॥२॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी-सोमलता- कल्पद्रुम के अनुसार अपने नाम से प्रसिद्ध लता है। इसके सोमलता सोमा क्षीरी और द्विजप्रिया अन्य नाम हैं। भावप्रकाश निघण्टु के अनुसार सोमवल्ली तीन प्रकार के दोषों को समाप्त करने वाली रसायन है। यज्ञ के लिये पवित्र और यज्ञों को साधित कराने वाली कहा गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सखायः) मित्र (वार्य्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (विद्वांसः) विद्वान् लोगों [और]  (पुरुतमम्) दुष्ट स्वभाव वाले जीवों को ग्लानि प्राप्त कराने वाले (ईशानम्) रचने में समर्थ परमेश्वर, उसके बीच में स्थित विद्या के साधक या वायु, (पुरुणाम्) आकाश से लेकर पृथिवी पर्यन्त बहुत सी विद्याओं के साधक, (इन्द्रम्) सब ऐश्वर्य देनेवाले परमेश्वर या वायु के भौतिक गुणों का (अभि) अच्छी तरह से, (प्रगायत) विशेष रूप से पूजन करते हुए (ये) जो (सुते) रस खींचने की विद्या से प्राप्त (सोमे) सोमलता आदि सब पदार्थों  या विमान आदि विद्या, (सचा) जो मिले हुए पदार्थ (सन्ति) हैं, (तान्) उनकी  (सर्वोपकाराय) सबके उपकार के लिए (यथा) जैसा है (योग्यम्) उसी के अनुसार (अभि) अच्छी तरह से (प्रगायत) विशेष रूप से पूजन करो या उनका प्रयोग करो॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- पुरूतमम्) पुरून् बहून् दुष्टस्वभावान् जीवान् पापकर्मफलदानेन तमयति ग्लापयति तं परमेश्वरं तत्फलभोगहेतुं वायुं वा। पुरुरिति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (पुरूणाम्) बहूनामाकाशादिपृथिव्यन्तानां पदार्थानाम् (ईशानम्) रचने समर्थं परमेश्वरं तन्मध्यस्थविद्यासाधकं वायुं वा (वार्य्याणाम्) वराणां वरणीयानामत्यन्तोत्तमानां मध्ये स्वीकर्तुमर्हम्। वार्य्यं वृणोतेरथापि वरतमं तद्वार्य्यं वृणीमहे वरिष्ठं गोपयत्ययं तद्वार्य्यं वृणीमहे वर्षिष्ठं गोपायितव्यम्। (निरु०५.१) (इन्द्रम्) सकलैश्वर्य्यप्रदं परमेश्वरमात्मनः सर्वभोगहेतुं वायुं वा (सोमे) सोतव्ये सर्वस्मिन्पदार्थे विमानादियाने वा। (सचा) ये समवेताः पदार्थाः सन्ति। सचा इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.२) (सुते) उत्पन्नेऽभिषवविद्ययाऽभिप्राप्ते॥२॥

    विषयः- पुनस्तावेवोपदिश्येते।

    अन्वयः-हे सखायो विद्वांसो वार्य्याणां पुरूतममीशानं पुरूणामिन्द्रमभिप्रगायत। ये सुते सोमे सचाः सन्ति तान् सर्वोपकाराय यथायोग्यमभिप्रगायत॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्रात् 'सखायः; तु; अभिप्रगायत' इति पदत्रयमनुवर्त्तनीयम्। ईश्वरस्य यथायोग्यव्यवस्थया जीवेभ्यस्तत्तत्कर्मफलदातृत्वात् भौतिकस्य वायोः कर्मफलहेतुत्वेन सकलचेष्टाविद्यासाधकत्वादस्मादुभयार्थस्य ग्रहणम्॥२॥
     

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे परात्पर परमात्मन्! आप (पुरूतमम्) अत्यन्तोत्तम और सर्वशत्रुविनाशक हो तथा बहुविध जगत् के पदार्थों के (ईशानम्) स्वामी और उत्पादक हो, (वार्याणाम्), वर, वरणीय परमानन्दमोक्षादि पदार्थों के भी ईशान हो और (सोमे) उत्पत्तिस्थान संसार आपसे (सुते) उत्पन्न होने से (सचा) प्रीतिपूर्वक (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् आपको [अभिप्रगायत * ] हृदय में अत्यन्त प्रेम से गावें, [यथावत्] स्तुति करें, जिससे आपकी कृपा से हम लोगों का भी परमैश्वर्य बढ़ता जाए और हम परमानन्द को प्राप्त हों ॥९॥

    टिपण्णी

    इस शब्द की अनुवृत्ति मन्त्र १ । १।९ । १ से आई है । – महर्षि

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    विषय

    ईश्वर का वर्णन, राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( पुरुणां) आकाश से लेकर पृथिवी तक के बहुत से ( वार्याणाम् ) चरण करने योग्य, श्रेष्ठ ऐश्वर्यों के ( ईशानं ) स्वामी, ( पुरु-तमम् ) नाना दुष्ट स्वभाव के जीवों को कर्म फल से कष्ट देने वाले ( इन्द्रम् ) परमेश्वर की ( सुते सोमे ) इस उत्पन्न संसार में स्तुति करो। राजा के पक्ष में —( वार्याणाम् ) वरण योग्य सम्पदाओं के स्वामी और ( पुरूणाम् ) राष्ट्र के पालक पोपको में से ( पुरु-तमं ) सब से श्रेष्ठ पालक, ( इन्द्रं ) शत्रुहन्ता ( सचा ) एकत्र स्थित होकर राजा को ( सुते सोमे ) ऐश्वर्य युक्त सोम = राष्ट्र या प्रेरक पद पर नियुक्त करो। आत्मा के पक्ष में—ज्ञानों को पूर्ण करने वाले इन्द्रियों के बीच में सब से श्रेष्ठ ज्ञाता और वरण योग्य समस्त आशाओं के स्वामी ( इन्द्र ) आत्मा की ( सुते सोमे ) ब्रह्मानन्द रस में ( सचा ) समवेत हो कर स्तुति करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. मागच्या मंत्रातून या मंत्रात ‘सखायः; तु; अभिप्रगायत’ या तीन शब्दांचे अर्थ ग्रहण केले पाहिजेत. यथायोग्य व्यवस्था करून केलेल्या कर्मांचे फळ देण्याने ईश्वर व या कर्मांचा फळभोग देवविण्यामुळे व विद्या व सर्व क्रियांचा साधक असल्यामुळे भौतिक अर्थात जगातील वायू असा या मंत्रात अर्थ केलेला आहे. ॥ २ ॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे सर्वश्रेष्ठ परमेश्वरा ! तू (पुरूतमम्) अत्यंत उत्तम आणि शत्रुविनाशक आहेस. या जगातील निरनिराळ्या पदार्थाचा तू (ईशानम्) स्वामी व आहेस आणि निर्माताही आहेस. (वार्य्याणाम्) वर, वरणीय, परमानन्द मोक्ष इत्यादी पदार्थाचा ही स्वामी आहेस. (सोमे) जगाचे उत्पत्ति स्थान तूच आहेस, (इंद्र) तू परम ऐश्वर्याचा दाता असल्यामुळे तुझे [आमच्या] अन्तःकरणात भक्तीचे, प्रेमाचे गान आम्ही गावे. तुझी स्तुती केली पाहिजे. ज्यामुळे तुझी कृपा आमच्यावर व्हावी व आमचे ऐश्वर्य वाढाये व परमानंदाची प्राप्ती व्हावी.॥९॥

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    इंग्लिश (5)

    Meaning

    Friends and comrades in study and meditation, when you have distilled the essence of soma, life and spirit present at the heart of things, then sing in praise of Indra, closest at hand of things in heaven and earth, and ruler dispenser of the fruits of love and desire.

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    Purport

    O the most subtle and Supreme Lord! You are Purūtamam most execllent and destroyer of all our enemies. Moreover, you are iśanam--the Lord and creator of all the things of the multifairous universe. You are Vāryāṇām-most excellent, the Master of choosable highest bliss i.e. liberation. O the Creator of the world! We should by dedicated love and devotion sing the glory of your majesty from the core of our heart; and praise you in most befitting manner, so that by your grace our wealth should increase and we should attain highest bliss

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    Subject of the mantra

    Nevertheless, in this mantra, the qualities of both of them have been elucidated.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sakhāyaḥ)=friend, (vāryyāṇām)=very good vidvāṃsaḥ)=scholars, [aura]=and, (purutamam)=forcing creatures of rogue nature for repentance, (īśānam)=the God capable of creating, the seeker of knowledge or the air in the middle of it, (puruṇām)=Practioners of many branches of knowledge from earth to sky, (indram)=of god giver of all majesties and air’s physical qualities, (abhi)=in a nice way=worshipping in a specific way, (ye)=which, (sute)=Drawn with the knowledge of squeezing, (some)=materials made of Soamlata herb or aeronautics, (sacā)= Materials which are assembled, (santi)=are, (tān)=to them, (sarvopakārāya) =for beneficence of all, (yathā+yogyam)=accordingly, (abhi)= properly, (pragāyata)=worship in a specific way.

    English Translation (K.K.V.)

    O friend and very good scholars! forcing creatures of rogue nature for repentance; the God capable of creating, the seeker of knowledge or the air in the middle of it; having practice of many branches of knowledge from earth to sky, God giver of all majesties and air’s physical qualities, in a nice way, worshipping in a specific way, which is drawn with the knowledge of squeezing, materials made of Soma herb or aeronautics; and for beneficence of all, worship properly in a specific way accordingly.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, there is paronomasia as a figurative. In this mantra from the previous one, these three words-“sakhāyaḥ tu abhipragāyata” should be taken for meaning. By making suitable arrangements in this mantra, God by giving them the rewards of their deeds, and because of enjoying the results of these deeds or being a seeker of knowledge and all activities, have accepted the material i.e. worldly air.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Translator’s Notes-Soma Lata- According to Kalpadrum, the creeper is famous by its name. Its other names are Soma Lata, Soma, Ksiri and Dwijpriya. According to Bhavaprakash Nighantu (Ayurvedic Dictionary), Somavalli is a chemical that eliminates three types of defects. It is said to be holy for yajan and for one who performs yajan.

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    Translation

    Let us pour forth our heartfelt Prayers in our sacred songs. Only He is the bestower of true happiness, Only He is the destroyer of evil forces.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued in the next Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O learned friends glorify God Who as Dispenser of justice gives punishment to unrighteous persons, Who is the Lord of all things from earth to heaven, the Best and therefore the most acceptable, the Giver of all kinds of wealth (material as well as spiritual) to righteous people and utilize all things of the world for the benefit of all. (2) Praise the properties of the air which is the means of sustenance and without which one cannot at all live, therefore which is most acceptable among all elements, utilize it properly O learned friends and Scientists, for the construction of aero planes etc. to benefit all people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पुरूतमम्) पुरून् बहून् दुष्टस्वभावान् पापकर्मफलप्रदानेन तमयति ग्लपयति तं परमेश्वरं तत्फलभोगहेतुं वायुं वा सोमे सोतव्ये सर्वस्मिन् पदार्थे विमानादियाने वा ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Shleshalankar or double entendre in this Mantra and so the word Indra denotes here both God as Lord of the Universe and Dispenser of justice according to the good or bad actions of the people and air. God is to be glorified and the air which is the cause of the sustenance of all creatures and should be properly utilized for the benefit of all.

    Translator's Notes

    पुरु इति वहुनाम (निघ० ३०१ ) Many. तमु-ग्लानौ Generally in the present Dhatu Patha the meaning of the Verb tamu (तमु) is given as कन्क्षायाम् or desire, but even in the well-known धातुरूप कल्पद्रुम by Pandit Gurunath Vidyanidhi of Calcutta it is stated on P-435. तमु कांक्षायाम् कांक्षा आकांक्षा ग्लानिरिति बोपदेदः ॥ Rishi Dayananda has preferred the same meaning in his commentary of this Mantra. (सोमे) The word सोम is from षुप्रसवैश्वर्ययो: or षूङ-प्राणिगर्भविमोचने औणादिकः मन्प्रत्यय: अर्तिस्तु सुहुमृ धक्षिक्षु, भायावापदियक्षिनीभ्यो मन् ॥ (उणादिकोषे १.१४० ) hence the meaning सोतन्ये पदार्थों विमानादियाने वा Anything that is created or manufactured.

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे परात्पर परमात्मन् ! तपाईं पुरूतमम्= अत्यन्त उत्तम र सर्वशत्रुविनाशक हुनुहुन्छ तथा बहुविध जगत् का पदार्थ हरु का ईशानम्= स्वामी र उत्पादक हुनुहुन्छ, वार्याणाम्=, वर, वरणीय एवं परमानन्दमोक्षादि पदार्थ हरु का पनि ईशान हुनुहुन्छ तथा सोमे = उत्पत्तिस्थान संसार तपाईंबाट सुते = उत्पन्न भएको हुनाले सचा=प्रीति पूर्वक इन्द्रम्= परमैश्वर्यवान् हजुरलाई [अभिप्रगायत] हृदय मा अत्यन्त प्रेम ले गाऊँ, [यथावत् ] स्तुति गरौं जसले तपाईंको कृपा बाट हामी हरु को पनि परमैश्वर्य बढ्दै जाओस् र हामी परमानन्द मा प्राप्त हौं ॥९॥ 

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    हिंगलिश (1)

    Word Meaning

    (पुरुणाम्‌) आकाश से ले कर पृथिवी तक के सब असंख्य पदार्थों के साधक (वार्य्याणाम) अत्यंत उत्तम वरण करने योग्य सद्गुणों को (ईशानम्‌) रचने में समर्थ, परन्तु (पुरूतमम्‌) दुष्ट स्वभाव वाले जीवों के कर्मों के भोग के निमित्त और (इन्द्रम्‌) जीवमात्र को सुख दु:ख देने वाले पदार्थों के भौतिक गुणों का (अभिगायत) उपदेश करो . और (तु सुते सोमे सचा) जो सब प्रकार की विद्या से प्राप्त होने योग्य पदार्थों के निमित्त कार्य हैं उन को उक्त विद्याओं से सब के उपकार के लिए यथायोग्य युक्त करो.

    Tika / Tippani

    Find and learn about all physical objects from sky to earth and their properties that can be put to desirable use. And utilize the knowledge of the physical properties objects in nature for welfare of all. But also bring out and speak about the knowledge about the simultaneous harmful and cruel results.

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