ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 53/ मन्त्र 10
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वमा॑विथ सु॒श्रव॑सं॒ तवो॒तिभि॒स्तव॒ त्राम॑भिरिन्द्र॒ तूर्व॑याणम्। त्वम॑स्मै॒ कुत्स॑मतिथि॒ग्वमा॒युं म॒हे राज्ञे॒ यूने॑ अरन्धनायः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । आ॒वि॒थ॒ । सु॒ऽश्रव॑सम् । तव॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । तव॑ । त्राम॑ऽभिः । इ॒न्द्र॒ । तूर्व॑याणम् । त्वम् । अ॒स्मै॒ । कुत्स॑म् । अ॒ति॒थि॒ऽग्वम् । आ॒युम् । म॒हे । राज्ञे॑ । यूने॑ । अ॒र॒न्ध॒ना॒यः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमाविथ सुश्रवसं तवोतिभिस्तव त्रामभिरिन्द्र तूर्वयाणम्। त्वमस्मै कुत्समतिथिग्वमायुं महे राज्ञे यूने अरन्धनायः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। आविथ। सुऽश्रवसम्। तव। ऊतिऽभिः। तव। त्रामऽभिः। इन्द्र। तूर्वयाणम्। त्वम्। अस्मै। कुत्सम्। अतिथिऽग्वम्। आयुम्। महे। राज्ञे। यूने। अरन्धनायः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 53; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! त्वमस्मै महे यूने राज्ञे तवोतिभिस्तव त्रामभी रक्षितं यमतिथिग्वं तूर्वयाणमायुं सुश्रवसमरन्धनायो यं त्वं कुत्समाविथ तं किमपि दुःखं न भवति ॥ १० ॥
पदार्थः
(त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (आविथ) रक्षसि (सुश्रवसम्) सुष्ठु श्रवांसि श्रवणान्यन्नादीनि यस्य तम् (तव) रक्षणे वर्त्तमानस्य (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (तव) सेनादिभिः सह वर्त्तमानस्य (त्रामभिः) त्रायन्ते ते धार्मिका विद्वांसः शूरास्तैः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (तूर्वयाणम्) तूर्वाः शत्रुबलहिंसका योद्धारो यानेषु यस्य तम् (त्वम्) सभाशालासेनाप्रजारक्षकः (अस्मै) युध्यमानाय वीराय (कुत्सम्) वज्रम्। कुत्स इति वज्रनामसु पठितम्। (निघं०२.२०) (अतिथिग्वम्) योऽतिथीन् गच्छति गमयति वा तम् (आयुम्) य एति प्राप्नोति तम् (महे) महोत्तमगुणविशिष्टाय (राज्ञे) न्यायविनयविद्यागुणैर्देदीप्यमानाय (यूने) युवावस्थायां वर्त्तमानाय (अरन्धनायः) अरमलं धनं यस्य स इवाचरसीत्यरन्धनायः। अत्र लडर्थे लिङ् ॥ १० ॥
भावार्थः
राजपुरुषैः शत्रून् निवार्य सर्वान् रक्षित्वा सर्वदा सुखिनः सम्पादनीयाः एते किल राजोन्नतिश्रियः सदा भवेयुः। विद्याशालाध्यक्षः सर्वान् सुशिक्षया विदुषः शस्त्रास्त्रकुशलान् सम्पाद्यैतैः प्रजां सततं रक्षेत् ॥ १० ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष ! (त्वम्) आप (अस्मै) इस (महे) महा उत्तम-उत्तम गुणयुक्त (यूने) युवावस्था में वर्त्तमान (राज्ञे) न्याय, विनय और विद्यादि गुणों से देदीप्यमान राजा के लिये (तव) आप के (ऊतिभिः) रक्षण आदि कर्मों से सेनादि सहित और (तव) वर्त्तमान आपके (त्रामभिः) रक्षा करनेवाले धार्मिक विद्वानों से रक्षा किये हुए जिस (अतिथिग्वम्) अतिथियों को प्राप्त करने कराने (तूर्वयाणम्) शत्रुबलों की हिंसा करनेवाले यानसहित (आयुम्) जीवनयुक्त (सुश्रवसम्) उत्तम श्रवण वा अन्नादि युक्त मनुष्यों को (अरन्धनायः) पूर्ण धनवाले मनुष्य के समान आचरण करते और (त्वम्) आप जिस (कुत्सम्) वज्र के समान वीर पुरुष की (आविथ) रक्षा करते हो, उसको कुछ भी दुःख नहीं होता ॥ १० ॥
भावार्थ
राजपुरुषों को योग्य है कि शत्रुओं को निवारण कर सब की रक्षा करके सर्वथा उनको सुखयुक्त करें तथा ये निश्चय करके राजोन्नतिरूपी लक्ष्मी से सदा युक्त रहें और विद्याशाला के अध्यक्ष उत्तम शिक्षा से सब शस्त्रास्त्रविद्या में कुशल निपुण विद्वानों को सम्पन्न करके इन से प्रजा की निरन्तर रक्षा करें ॥ १० ॥
विषय
प्रभु किसकी रक्षा करते हैं ?
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (तव ऊतिभिः) = अपनी रक्षण - प्रक्रियाओं से (सुश्रवसम्) = उत्तम ज्ञानी को अथवा आपकी प्रेरणा को सुननेवाले को (आविथ) = रक्षित करते हो । २. हे इन्द्र ! आप (तव त्रामभिः) = अपने रक्षण - साधनों से (तूर्वयाणम्) = 'तूर्व याति' हिंसक कामादि वासनाओं पर आक्रमण करनेवाले को रक्षित करते हो । प्रभु की रक्षा का पात्र 'सुश्रवस' और 'तूर्वयाण' है । उत्तम ज्ञान प्राप्त करना और सब प्रकार की अवनति की कारणभूत वासनाओं पर आक्रमण करना' - ये ऐसे कार्य हैं जोकि हमें प्रभु के प्रिय बनाते हैं । इन कार्यों को करते हुए ही हम प्रभु से रक्षित होते हैं । ३. हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (अस्मै) = इस (महे) = महान् पूजा के योग्य, (राज्ञे) = सारे संसार को व्यवस्थित Regulate करनेवाले (यूने) = दोषों के अमिश्रण व गुणों का मिश्रण करनेवाले प्रभु के लिए, अर्थात् प्रभु की प्राप्ति के लिए (कुत्सम्) = सब दोषों का संहार करनेवाले (अतिथिग्वम्) = अतिथियों के प्रति आदरभाव से जानेवाले (आयुम्) = गतिशील पुरुष को (अरन्धनायः) = तैयार करते हैं, उसे इन्द्रियों को वश में करनेवाला बनाते हैं । यह जितेन्द्रिय, शान्तमानस पुरुष ही प्रभु से वरण किया जाता है, यही प्रभु का दर्शन कर पाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम 'सुश्रवा, तूर्वयाण, कुत्स, अतिथिग्व व आयु' बनें ताकि प्रभु के प्रीतिपात्र हों और प्रभुदर्शन कर सकें ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
हे सेनापते ! ( त्वम् ) तू (सुश्रवसम्) उत्तम यशस्वी, ज्ञानी और अन्नादि ऐश्वर्य से युक्त राष्ट्र और राष्ट्रपति को ( तव ऊतिभिः ) अपने रक्षा साधनों से (आविथ ) सुरक्षित रख । हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! तू ( तूर्वयाणम् ) हिंसक शत्रु पर आक्रमण करनेवाले वीर सैनिकगण को भी ( त्रामभिः ) देहों के रक्षक, कवच आदि साधनों से (आविथ ) सुरक्षित रख । और (अस्मै) इस (महे) बड़े भारी (यूने) सबको अपने साथ मिलाने हारे, या सबसे पृथक् हुए ( राज्ञे ) राजा के लिए ( कुत्सम् ) वज्र अर्थात् सेना, शस्त्रास्त्र बल को और (अतिथिग्वम्) अतिथि के समान पूज्य राजा के प्रति सर्वसमर्पण कर उसकी शरण में आने वाले (आयुम्) प्रजाजन को ( अरन्धनायः ) तू अपने वश कर और पर्याप्त ऐश्वर्यवाला बना ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-११ सव्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३ निचृज्जगती । २ भुरिग्जगती । ४ जगती । ५, ७ विराड्जगती ६, ८,९ त्रिष्टुप् ॥१० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ सतः पङ्क्तिः ॥
विषय
फिर वह सभा आदि का अध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! त्वम् अस्मै महे यूने राज्ञे तव ऊतिभिः तव त्रामभी रक्षितं यम् अतिथिग्वं तूर्वयाणम् आयुं सुश्रवसम् अरन्धनायः यं त्वं कुत्सम् आविथ तं किम् अपि दुःखं न भवति ॥१०॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद सभाद्यध्यक्ष=परम ऐश्वर्य से प्रभावशाली सभा आदि के अध्यक्ष ! (त्वम्) सभाशालासेनाप्रजारक्षकः= सभाशाला, सेना, और प्रजा के रक्षक, (अस्मै) युध्यमानाय वीराय =युद्ध के लिये लाये गये वीरों के लिये, (महे) महोत्तमगुणविशिष्टाय=महान् विशेष उत्तम गुणों के लिये, (यूने) युवावस्थायां वर्त्तमानाय=युवा अवस्था में वर्त्तमान के लिये, (राज्ञे) न्यायविनयविद्यागुणैर्देदीप्यमानाय= न्याय, विनय और विद्या के गुणों से तीव्रता से चमकनेवालों के लिये, (तव) रक्षणे वर्त्तमानस्य=रक्षा हेतु उपलब्ध का, (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः=रक्षण आदि के द्वारा, (तव) सेनादिभिः सह वर्त्तमानस्य=सेना आदि के साथ वर्त्तमान की, (त्रामभिः) त्रायन्ते ते धार्मिका विद्वांसः शूरास्तैः=रक्षा करनेवाले धार्मिक विद्वानों से, (रक्षितम्)= रक्षित, (यम्)=जो, (अतिथिग्वम्) योऽतिथीन् गच्छति गमयति वा तम्=अतिथियों को ले जाता है, उसको (तूर्वयाणम्) तूर्वाः शत्रुबलहिंसका योद्धारो यानेषु यस्य तम्=जिसके यान शत्रु की सेना के हिंसक हैं, (आयुम्) य एति प्राप्नोति तम्=जो उसको प्राप्त करता है, (सुश्रवसम्) सुष्ठु श्रवांसि श्रवणान्यन्नादीनि यस्य तम् =शोभनीय श्रवण और अन्न आदि वाले, (अरन्धनायः) अरमलं धनं यस्य स इवाचरसीत्यरन्धनायः= के धन को समूल नष्ट न करनेवाले (यम्) जो (त्वम्) तुम (कुत्सम्) वज्र की (आविथ) रक्षा करते हो, (किम्) कोई (अपि)= भी, (दुःखम्)= दुःख, (न)= नहीं, (भवति)=होता है ॥ १० ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
राजपुरुषों के द्वारा शत्रुओं का निवारण करके, सब की रक्षा करके सर्वदा सुख प्राप्त किया जाना चाहिए, ये राजा की उन्नति और धन व लक्ष्मी सदा प्राप्त होवें। विद्याशाला के अध्यक्ष सबको उत्तम शिक्षा से, सब विद्वानों को शस्त्र और शास्त्र विद्या में कुशल बनायें और प्रजा की निरन्तर रक्षा करें॥१०॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- लक्ष्मी- शास्त्रों में लक्ष्मी भाग्य, समृद्धि, धन आदि को कहा गया है। राजा की समृद्धि को राजलक्ष्मी कहा गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य से प्रभावशाली सभा आदि के अध्यक्ष ! (त्वम्) सभाशाला, सेना, और प्रजा के रक्षक (अस्मै) युद्ध के लिये लाये गये वीरों के लिये, (महे) महान् विशेष उत्तम गुणों के लिये, (यूने) युवा अवस्था में वर्त्तमान के लिये, (राज्ञे) न्याय, विनय और विद्या के गुणों से तीव्रता से चमकनेवालों के लिये (तव) रक्षा हेतु उपलब्ध का, (ऊतिभिः) रक्षण आदि के द्वारा, (तव) सेना आदि के साथ वर्त्तमान (त्रामभिः) रक्षा करनेवाले धार्मिक विद्वानों से (रक्षितम्) रक्षित, (यम्) जो (अतिथिग्वम्) अतिथियों को ले जाता है, उसको, (तूर्वयाणम्) जिसके यान शत्रु की सेना के हिंसक हैं, (आयुम्) उस प्राप्त करनेवाले, (सुश्रवसम्) शोभनीय श्रवण और अन्न आदि वाले, (अरन्धनायः) धन को समूल नष्ट न करनेवाले, (यम्) जो (त्वम्) तुम (कुत्सम्) वज्र की (आविथ) रक्षा करते हो, [तुम्हें] (किम्) कोई (अपि) भी (दुःखम्) दुःख (न) नहीं (भवति) होता है ॥१०॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (आविथ) रक्षसि (सुश्रवसम्) सुष्ठु श्रवांसि श्रवणान्यन्नादीनि यस्य तम् (तव) रक्षणे वर्त्तमानस्य (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (तव) सेनादिभिः सह वर्त्तमानस्य (त्रामभिः) त्रायन्ते ते धार्मिका विद्वांसः शूरास्तैः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (तूर्वयाणम्) तूर्वाः शत्रुबलहिंसका योद्धारो यानेषु यस्य तम् (त्वम्) सभाशालासेनाप्रजारक्षकः (अस्मै) युध्यमानाय वीराय (कुत्सम्) वज्रम्। कुत्स इति वज्रनामसु पठितम्। (निघं०२.२०) (अतिथिग्वम्) योऽतिथीन् गच्छति गमयति वा तम् (आयुम्) य एति प्राप्नोति तम् (महे) महोत्तमगुणविशिष्टाय (राज्ञे) न्यायविनयविद्यागुणैर्देदीप्यमानाय (यूने) युवावस्थायां वर्त्तमानाय (अरन्धनायः) अरमलं धनं यस्य स इवाचरसीत्यरन्धनायः। अत्र लडर्थे लिङ् ॥ १० ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! त्वमस्मै महे यूने राज्ञे तवोतिभिस्तव त्रामभी रक्षितं यमतिथिग्वं तूर्वयाणमायुं सुश्रवसमरन्धनायो यं त्वं कुत्समाविथ तं किमपि दुःखं न भवति ॥१०॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजपुरुषैः शत्रून् निवार्य सर्वान् रक्षित्वा सर्वदा सुखिनः सम्पादनीयाः एते किल राजोन्नतिश्रियः सदा भवेयुः। विद्याशालाध्यक्षः सर्वान् सुशिक्षया विदुषः शस्त्रास्त्रकुशलान् सम्पाद्यैतैः प्रजां सततं रक्षेत् ॥१०॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी शत्रूंचे निवारण करून सर्वांचे रक्षण करावे व त्यांना सुखी करावे. असा निश्चय करावा की हे (सुख) राजाच्या उन्नतीरूपी लक्ष्मीने सदैव युक्त असावे. तसेच पाठशाळेच्या अध्यक्षाने उत्तम शिक्षणाद्वारे सर्व शस्त्रास्त्र विद्येत कुशल, निपुण विद्वानांना संपन्न करून त्यांच्याकडून प्रजेचे निरंतर रक्षण करावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of power and force of divinity, with your modes of protection and your modes of sustenance you cover and protect the man of noble fame and fast motion and, with your power of fulfilment and prosperity, you grant good health and full age, love of hospitality and the mighty thunderbolt of arms and justice to this great and youthful ruler commanding honour and brilliance.
Subject of the mantra
Then what kind of Chairman of that meeting et cetera is, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=Chairman of the Assembly etc., who is impressive with his supreme majesty, (tvam)=protector of the synagogue, the army, and the people, (asmai) =for the warriors brought to war, (mahe)=for great special qualities, (yūne)=for the present in youth, (rājñe)=for those who shine brightly with the qualities of justice, modesty and knowledge, (ūtibhiḥ) =available for defence, (tava)=present with army etc., (trāmabhiḥ)=from righteous scholars who protect, (rakṣitam) =protected, (yam) =those, (atithigvam)=takes the guests, to him, (tūrvayāṇam)=whose vehicles are violent with the enemy's army, (āyum) =that recipient, (suśravasam)=those with good hearing and food etc., (arandhanāyaḥ)=those who do not destroy wealth completely, (yam) =that, (tvam) =you, (kutsam) =of thunderbolt, (āvitha) =protect, [tumheṃ]=to you, (kim)=any, (api) =also, (duḥkham) =sorrow, (na) =not, (bhavati)=happens.
English Translation (K.K.V.)
O Chairman of the Assembly etc., who is impressive with his supreme majesty! Protector of the Assembly, army and people, for the warriors brought for the war, for the great, for those with special good qualities, for those present in the youth, for those who shine brightly with the qualities of justice, modesty and knowledge, the protection of the one available for protection. Protected by the righteous scholars, who escort the guests, etc., present with the army et cetera. You, the one who attains the one whose vehicles are violent with the enemy's army, the one who has good hearing and food etc., who does not completely destroy wealth, who protects you from the thunderbolt, you do not suffer any sorrow.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
One should always achieve happiness by eliminating enemies and protecting everyone through royal men, may the king always get prosperity, wealth and Lakshmi. The head of the school should provide everyone with good education, make all the scholars skilled in weapons and scriptures and constantly protect the people.
TRANSLATOR’S NOTES-
Fortune, prosperity, wealth etc. have been told in the scriptures as Lakshmi. The prosperity of the king is called Rajalakshmi.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (The President of the Assembly or the commander of the army) Thou preservest highly learned man possessing Divine knowledge and liberal, with thy protective power. Thou preservest with Thy aids the man who has under him in chariots many great heroes, destroyers of the strength of the enemies. To the mighty but youthful king shining on account of knowledge, justice and humility, thou givest thunderbolt or powerful weapon, for the protection of such persons who are hospitable to their guests. Such persons protected by thee never suffer.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( तूर्वयाणम् ) तूर्वाः शत्रुबलहिंसका योद्धारो यानेषु यस्य तम् = He who has brave soldiers in various cars. ( कुत्सम् ) वज्रम् कुत्स इति वज्रनाम ( निघ० २.२० ) = Thunderbolt or powerful weapon. (आयुम्) य एति प्राप्नोति तम् = A man who approaches.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the officers of the State to drive away all enemies and to keep all happy by protecting them well. They should always have at heart the progress and prosperity of the State. The Acharya or Principal of the educational institution should educate all and should make them well-versed in the use of various weapons, so that they may protect the people.
Translator's Notes
It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Sushravas, Toorvayana, Atithigva, and Aya as proper nouns instead of taking them as derivative words denoting certain attributes as explained by Rishi Dayananda on the basis of the Vedic Lexicon Nighantu etc.
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