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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 53/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    समि॑न्द्र रा॒या समि॒षा र॑भेमहि॒ सं वाजे॑भिः पुरुश्च॒न्द्रैर॒भिद्यु॑भिः। सं दे॒व्या प्रम॑त्या वी॒रशु॑ष्मया॒ गोअ॑ग्र॒याश्वा॑वत्या रभेमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । इ॒न्द्र॒ । रा॒या । सम् । इ॒षा । र॒भे॒म॒हि॒ । सम् । वाजे॑भिः । पु॒रु॒ऽच॒न्द्रैः । अ॒भिद्यु॑ऽभिः । सम् । दे॒व्या । प्रऽम॑त्या । वी॒रऽशु॑ष्मया । गोऽअ॑ग्रया । अश्व॑ऽवत्या । र॒भे॒म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिन्द्र राया समिषा रभेमहि सं वाजेभिः पुरुश्चन्द्रैरभिद्युभिः। सं देव्या प्रमत्या वीरशुष्मया गोअग्रयाश्वावत्या रभेमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। इन्द्र। राया। सम्। इषा। रभेमहि। सम्। वाजेभिः। पुरुऽचन्द्रैः। अभिद्युऽभिः। सम्। देव्या। प्रऽमत्या। वीरऽशुष्मया। गोऽअग्रया। अश्वऽवत्या। रभेमहि ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 53; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेतत्सहायेन मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र सभाध्यक्ष ! यथा वयं त्वत्सहायेन सम्राया समिषा पुरुश्चन्द्रैरभिद्युभिः संवाजेभिः प्रमत्या देव्या गोऽअग्रयाऽश्वावत्या वीरशुष्मया सेनया सह वर्त्तमानाः शत्रुभिः संरभेमहि सम्यक् संग्रामं कुर्याम तथैतत्कृत्वा लौकिकपारमार्थिकान् व्यवहारान् रभेमहि तं त्वं संसाधय ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (सम्) प्राप्तौ (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रदेश्वर सभाध्यक्ष वा (राया) राज्यपरमश्रिया (सम्) सम्यक् (इषा) धर्मेच्छयान्नादिना वा (रभेमहि) आरम्भं कुर्याम (सम्) श्रैष्ठ्येऽर्थे (वाजेभिः) विज्ञानादिगुणैः संग्रामैर्वा (पुरुश्चन्द्रैः) पुरवो बहवश्चन्द्रा आह्लादकारकाः सुवर्णरजतादयो धातवो वा येभ्यस्तैः (अभिद्युभिः) अभितो दिवः विद्याव्यवहारप्रकाशा येषु तैः (सम्) श्लेषे (देव्या) दिव्यगुणसहितया विद्यायुक्त्या सेनया (प्रमत्या) प्रकृष्टा मतिर्मननं यस्यां तया (वीरशुष्मया) वीराणां योद्धॄणां शुष्माणि बलानि यस्यां तया (गोअग्रया) गाव इन्द्रियाणि धेनवः पृथिव्यो वाऽग्राः श्रेष्ठा यस्यां तया। अत्र सर्वत्र विभाषा गोः। (अष्टा०६.१.१२२) अनेन प्रकृतिभावः। (अश्ववत्या) प्रशस्ता वेगबलयुक्ता अश्वा विद्यन्ते यस्यां तया (रभेमहि) शत्रुभिः सह युध्येमहि ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    नहि कश्चिदपि विद्वत्सहायमन्तरा सम्यक् पुरुषार्थसिद्धिमाप्नोति नैव किल बलारोग्यपूर्णसामग्रीसुशिक्षितया धार्मिकशूरवीरयुक्त्या चतुरङ्गिण्या सेनया विना कश्चिच्छत्रुपराजयं कृत्वा विजयं प्राप्तुं शक्नोति, तस्मादेतत्सर्वदोन्नेयमिति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इसके सहाय से मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष ! जैसे हम लोग आप के सहाय से (सम्राया) उत्तम राज्यलक्ष्मी (समिषा) धर्म की इच्छा वा अन्नादि (अभिद्युभिः) विद्या व्यवहार और प्रकाशयुक्त (पुरुश्चन्द्रैः) बहुत आह्लादकारक सुवर्ण और उत्तम चांदी आदि धातु (सं वाजेभिः) विज्ञानादि गुण वा संग्राम तथा (प्रमत्या) उत्तम मतियुक्त (देव्या) दिव्यगुण सहित विद्या से युक्त सेना से (गोअग्रया) श्रेष्ठ इन्द्रिय गौ और पृथिवी से युक्त (वीरशुष्मया) शूरवीर योद्धाओं के बल से युक्त (अश्ववत्या) प्रशंसनीय वेग, बलयुक्त घोड़ेवाली सेना के साथ वर्त्तमान होके शत्रुओं के साथ (संरभेमहि) अच्छे प्रकार संग्राम को करें, इस सब कार्य्य को करके लौकिक और पारमार्थिक सुखों को (रभेमहि) सिद्ध करें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    कोई भी मनुष्य विद्वान् की सहायता के विना अच्छे प्रकार पुरुषार्थ की सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता और निश्चय करके बल, आरोग्य, पूर्ण सामग्री और उत्तम शिक्षा से युक्त धार्मिक, शूरवीर युक्त चतुरङ्गिणी अर्थात् चौतर्फी अङ्ग से युक्त सेना के विना शत्रुओं का पराजय वा विजय के प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे मनुष्यों को इन कार्यों की उन्नति करनी चाहिये ॥ ५ ॥

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    विषय

    सम्पत्ति - शक्ति - सुमति

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामी प्रभो ! (राया संरभेमहि) = हम धनों से संगत हों । धन के बिना जीवनयात्रा में एक भी पग रखना सम्भव नहीं होता । (इषा संरभेमहि) = आपकी प्रेरणा से हम संगत हों । धन के साथ हमें आपकी प्रेरणा भी प्राप्त हो । आपकी प्रेरणा के अनुसार ही हम धनों का विनियोग करनेवाले हों । उस प्रेरणा के अभाव में यह धन हमारे निधन का ही कारण हो जाता है । आपकी प्रेरणा के अनुसार धनों का सविनियोग करते हुए हम जीवनों में 'धन्य' बना करते हैं । २. (वाजेभिः सम्) = हम शक्तियों से युक्त हों । धनों का ठीक ही विनियोग करेंगे तो शक्ति तो हमें प्राप्त होगी ही । ये शक्तियाँ (पुरुश्चन्द्रः) = पालन व पूरण करनेवाली हों तथा सबके आह्लाद का कारण बनें । (अभियुभिः) = ये शक्तियाँ दोनों ओर ज्योति से युक्त हों । इन शक्तियों के एक और प्रकृति का विज्ञान हो तो दूसरी ओर ब्रह्म का ज्ञान, अर्थात् शक्ति ज्ञान से शून्य न हो, क्योंकि ज्ञानशून्य शक्ति राक्षसी हो जाती है और वह संहार - ही - संहार का कारण बनती है । ३. हम उस (देव्या) = दिव्यगुणों से युक्त अथवा प्रकाशमय (प्रमत्या) = प्रकृष्ट मति से (संरभेमहि) = संगत हों जो (वीरशुष्मया) = [वि, ईर, शुष्म] कामादि शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करनेवाले बल से युक्त है, (गो अग्रया) = जिसमें ज्ञानेन्द्रियों को प्रमुखता प्राप्त है और जो (अश्वावत्या) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियोंवाली है । ज्ञानेन्द्रियों की प्रशस्तता बुद्धिवर्धन में सहायक होती है और उस बुद्धि के अनुसार सत्कार्यों में कर्मेन्द्रियों को प्रवृत्त होना होता है । इन दोनों इन्द्रियों के ठीक से कार्य करने पर हमारे जीवन में वासनाओं के लिए स्थान ही नहीं रह जाता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें धन के साथ प्रभुप्रेरणा प्राप्त हो, शक्ति के साथ पालकवृत्ति का ज्ञान प्राप्त हो, प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियोंवाली तथा वासनाओं को कम्पित करनेवाली प्रमति प्राप्त हो ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) सभाध्यक्ष ! सेनाध्यक्ष ! हम लोग ( राया संरभेमहि ) ऐश्वर्य से युक्त होकर एक साथ मिलकर कार्य करें । ( इषा संरभेमहि ) अन्न और प्रबल इच्छा से युक्त होकर संग्राम तथा अन्य कार्य प्रारम्भ करें । ( वाजेभिः सं ) वेगवान् अश्वों, यानों से और ( अभिद्युभिः ) सब तरफ़ और सब प्रकार के ज्ञानों और प्रकाशों से युक्त होकर हम लोग मिलकर युक्त (पुरुचन्द्रैः) बहुतों के आह्लादक, एवं अति अधिक सुवर्णादि धनसम्पन्न ऐश्वर्यो से ( सम् ) युक्त होकर हम संग्राम आदि कार्य प्रारम्भ करें । (देव्या) विजय करनेवाली ( प्रमत्या ) उत्कृष्ट ज्ञानवान्, विद्वानों प्रमुख रखनेवाली, एवं शत्रुओं को अच्छी प्रकार थामनेवाली, (वीरशुष्मया) पुरुषों तथा शत्रु को उखाड़ फेंकने में समर्थ बल से युक्त ( गो अग्रया ) भूमि और सेनापति की आज्ञा को ही मुख्य लक्ष्य रखनेवाली और (अश्वावत्या) अश्वों और अश्वारोही वीरों तथा शीघ्रगामी यान वाली सेना से प्रबल होकर हम ( सं रभेमहि ) भली प्रकार शत्रुओं से संग्राम करें और लौकिक अन्य २ बड़े कार्यों को भी हम ऐश्वर्य, अन्न और धन और उत्तम मतिवाली वीर सेना से युक्त होकर करें । गृहस्थ पक्ष में—(प्रमत्या) उत्तम बुद्धिवाली ( वीर-शुष्मया ) वीर्यवान पति या पुत्र के बल से युक्त ( गो-अग्रया ) उत्तमवाणी तथा गौआदि पशु सम्पदा को पालन करनेवाली, (अश्वावत्या ) अश्वादि पशुओं के उपयोग जाननेवाली स्त्री के सहित गृहस्थ कार्य सम्पन्न कर इति पञ्चदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-११ सव्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३ निचृज्जगती । २ भुरिग्जगती । ४ जगती । ५, ७ विराड्जगती ६, ८,९ त्रिष्टुप् ॥१० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ सतः पङ्क्तिः ॥

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    विषय

    फिर इस सभाध्यक्ष की सहायता से मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र सभाध्यक्ष ! यथा वयं त्वत् सहायेन सम् राया सम् इषा पुरुश्चन्द्रैः अभिद्युभिः सं वाजेभिः प्रमत्या देव्या गोअग्रया अश्वावत्या वीरशुष्मया सेनया सह वर्त्तमानाः शत्रुभिः सं रभेमहि सम्यक् संग्रामं कुर्याम तथा एतत् कृत्वा लौकिकपारमार्थिकान् व्यवहारान् रभेमहि तं त्वं संसाधय ॥ ५ ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रदेश्वर सभाध्यक्ष वा= परम ऐश्वर्य के पद पर आसीन ईश्वर या सभाध्यक्ष ! (यथा)=जैसे, (वयम्)=हम, (त्वत्)=तुम्हारी, (सहायेन)= सहायता से, (सम्) प्राप्तौ=अच्छी तरह से, (राया) राज्यपरमश्रिया=राज्य की परम लक्ष्मी को, (सम्) सम्यक्=अच्छी तरह से, (इषा) धर्मेच्छयान्नादिना वा= धर्म में इच्छा अथवा अन्न आदि, (पुरुश्चन्द्रैः) पुरवो बहवश्चन्द्रा आह्लादकारकाः सुवर्णरजतादयो धातवो वा येभ्यस्तैः=बहुत से चन्द्रमा या आनन्ददायक सोना, चांदी आदि धातुओं से, (अभिद्युभिः) अभितो दिवः विद्याव्यवहारप्रकाशा येषु तैः=हर ओर से विद्या का व्यवहार और प्रकाश करनेवाले, (सम्) श्रैष्ठ्येऽर्थे=श्रेष्ठ, (वाजेभिः) विज्ञानादिगुणैः संग्रामैर्वा=विशेष ज्ञान आदि गुणों या संग्रामों से, (प्रमत्या) प्रकृष्टा मतिर्मननं यस्यां तया= प्रकृष्ट मनवालों की, (देव्या) दिव्यगुणसहितया विद्यायुक्त्या सेनया=दिव्यगुण वालों की विद्या युक्त सेना से, (गोअग्रया) गाव इन्द्रियाणि धेनवः पृथिव्यो वाऽग्राः श्रेष्ठा यस्यां तया= श्रेष्ठ गाय, इन्द्रियों और पृथिवी वाले, (अश्ववत्या) प्रशस्ता वेगबलयुक्ता अश्वा विद्यन्ते यस्यां तया= प्रशस्त वेग और बलवाले अश्वों वाले, (वीरशुष्मया) वीराणां योद्धॄणां शुष्माणि बलानि यस्यां तया=वीरों और योद्धाओं के बलवाली, (सेनया)=सेना के, (सह) =साथ, (वर्त्तमानाः)= वर्त्तमान, (शत्रुभिः)= शत्रु के द्वारा, (सम्) सम्यक्=अच्छी तरह से, (रभेमहि) शत्रुभिः सह युध्येमहि=हम शत्रु के साथ युद्ध करें, (सम्यक्)= अच्छी तरह से, (संग्रामम्)=संग्राम, (कुर्याम) =करें, (तथा)=वैसे ही, (एतत्)=इसे, (कृत्वा)=करके, (लौकिकपारमार्थिकान्) = लौकिक और पारमार्थिक, (व्यवहारान्)= व्यवहारों का, (रभेमहि) आरम्भं कुर्याम= आरम्भ करें, (तम्)=उसको, (त्वम्)=तुम, (संसाधय)= क्रियान्वित करो॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    किसी विद्वान् की सहायता के विना अच्छे प्रकार से पुरुषार्थ की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है। निश्चय रूप से बल, आरोग्य, पूर्ण सामग्री और उत्तम शिक्षा से युक्त धार्मिक, शूरवीरों से युक्त चतुरङ्गिणी अर्थात् चारों ओर अङ्ग वाली सेना के विना किसी शत्रु को पराजित करके वा विजय की प्राप्ति नहीं की जा सकती है, इसलिये सबको सदा उन्नति करनी चाहिये ॥५॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- लक्ष्मी- शास्त्रों में लक्ष्मी भाग्य, समृद्धि, धन आदि को कहा गया है। राजा की समृद्धि को राजलक्ष्मी कहा गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य के पद पर आसीन ईश्वर या सभाध्यक्ष ! (यथा) जैसे (वयम्) हम (त्वत्) तुम्हारी (सहायेन) सहायता से, (सम्) अच्छी तरह से (राया) राज्य की परम लक्ष्मी को (इषा) धर्म में इच्छा अथवा अन्न आदि (पुरुश्चन्द्रैः) बहुत से चन्द्रमा या आनन्ददायक सोना, चांदी आदि धातुओं से (अभिद्युभिः) हर ओर से विद्या का व्यवहार और प्रकाश करनेवाले हैं। [हम] (सम्) श्रेष्ठ (वाजेभिः) विशेष ज्ञान आदि गुणों या संग्रामों से (प्रमत्या) प्रकृष्ट मनवालों की और (देव्या) दिव्यगुण वालों की विद्या युक्त सेना से (गोअग्रया) श्रेष्ठ गायें, इन्द्रियों और पृथिवी वाले (अश्ववत्या) प्रशस्त वेग और बलवाले अश्वों वाले (वीरशुष्मया) वीरों और योद्धाओं के बलवाली (सेनया) सेना के (सह) साथ (वर्त्तमानाः) वर्त्तमान (शत्रुभिः) शत्रु के द्वारा (सम्) अच्छी तरह से, (रभेमहि) हम शत्रु के साथ युद्ध करें। (तथा) वैसे ही (एतत्) इसे (कृत्वा) करके (लौकिकपारमार्थिकान्) लौकिक और पारमार्थिक (व्यवहारान्) व्यवहारों को (रभेमहि) आरम्भ करें। (तम्) उसको (त्वम्) तुम (संसाधय) क्रियान्वित करो॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सम्) प्राप्तौ (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रदेश्वर सभाध्यक्ष वा (राया) राज्यपरमश्रिया (सम्) सम्यक् (इषा) धर्मेच्छयान्नादिना वा (रभेमहि) आरम्भं कुर्याम (सम्) श्रैष्ठ्येऽर्थे (वाजेभिः) विज्ञानादिगुणैः संग्रामैर्वा (पुरुश्चन्द्रैः) पुरवो बहवश्चन्द्रा आह्लादकारकाः सुवर्णरजतादयो धातवो वा येभ्यस्तैः (अभिद्युभिः) अभितो दिवः विद्याव्यवहारप्रकाशा येषु तैः (सम्) श्लेषे (देव्या) दिव्यगुणसहितया विद्यायुक्त्या सेनया (प्रमत्या) प्रकृष्टा मतिर्मननं यस्यां तया (वीरशुष्मया) वीराणां योद्धॄणां शुष्माणि बलानि यस्यां तया (गोअग्रया) गाव इन्द्रियाणि धेनवः पृथिव्यो वाऽग्राः श्रेष्ठा यस्यां तया। अत्र सर्वत्र विभाषा गोः। (अष्टा०६.१.१२२) अनेन प्रकृतिभावः। (अश्ववत्या) प्रशस्ता वेगबलयुक्ता अश्वा विद्यन्ते यस्यां तया (रभेमहि) शत्रुभिः सह युध्येमहि ॥ ५ ॥ विषयः- पुनरेतत्सहायेन मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र सभाध्यक्ष ! यथा वयं त्वत्सहायेन सम्राया समिषा पुरुश्चन्द्रैरभिद्युभिः संवाजेभिः प्रमत्या देव्या गोऽअग्रयाऽश्वावत्या वीरशुष्मया सेनया सह वर्त्तमानाः शत्रुभिः संरभेमहि सम्यक् संग्रामं कुर्याम तथैतत्कृत्वा लौकिकपारमार्थिकान् व्यवहारान् रभेमहि तं त्वं संसाधय ॥ ५ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि कश्चिदपि विद्वत्सहायमन्तरा सम्यक् पुरुषार्थसिद्धिमाप्नोति नैव किल बलारोग्यपूर्णसामग्रीसुशिक्षितया धार्मिकशूरवीरयुक्त्या चतुरङ्गिण्या सेनया विना कश्चिच्छत्रुपराजयं कृत्वा विजयं प्राप्तुं शक्नोति, तस्मादेतत्सर्वदोन्नेयमिति ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणत्याही माणसाला विद्वानाच्या मदतीशिवाय चांगल्या प्रकारे पुरुषार्थाची सिद्धी प्राप्त करता येत नाही व निश्चयपूर्वक बल, आरोग्य, पूर्ण सामग्री व उत्तम शिक्षणाने धार्मिक शूरवीर युक्त चतुरंगी सेना असल्याशिवाय शत्रूंचा पराजय करून विजय प्राप्त करण्यास समर्थ बनू शकत नाही यामुळे माणसांनी हे कार्य वृद्धिंगत केले पाहिजे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of knowledge and power, honour and prosperity, let us begin well, advance, succeed and celebrate with noble wealth and power, food and energy, knowledge and speed, universal beauty and joy and the light of brilliance. Let us advance and enjoy with divine wisdom, forceful arms of the brave, prime lands and cows and sophisticated intelligence, and all this at the top speed of advancement.

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    Subject of the mantra

    Then what humans should do with the help of this Chairman, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)= God or the Chairman occupying the position of supreme majesty, (yathā) =like, (vayam) =we, (tvat) =your, (sahāyena) =with the help, (sam)=thoroughly, (rāyā) To the supreme Lakshmi of the state, (iṣā)= desire or food etc. in righteousness, (puruścandraiḥ) =many Moons or pleasant metals like gold, silver etc., (abhidyubhiḥ)=they are going to spread knowledge and light from every side, [hama]=we, (sam) =best, (vājebhiḥ)=from special knowledge etc. qualities or struggles, (pramatyā)=and of the strong minded, (devyā)=from the knowledgeable army of those with divine qualities, (goagrayā)=the best cows, those of the senses and the earth, (aśvavatyā)=having horses with great speed and strength, (vīraśuṣmayā)= the strength of heroes and warriors, (senayā) =of army, (saha) =with,(varttamānāḥ) =present, (śatrubhiḥ) =by the enemy, (sam) =thoroughly, (rabhemahi) =we fight against the enemy, (tathā) =in the same way, (etat) =to this, (kṛtvā) =having done, (laukikapāramārthikān)=temporal and spiritual, (vyavahārān) =to the practice, (rabhemahi) =let us start,(tam) =to that, (tvam) =you, (saṃsādhaya) =implement.

    English Translation (K.K.V.)

    O God or the Chairman of the Assembly! who is seated on the throne of supreme Lakshmi! Just as with your help, we are going to give good treatment and light of knowledge from every side to the supreme Lakshmi of the kingdom, desire in religion or food etc. with lots of moons or pleasant metals like gold, silver etc. May we overcome the present enemy with the best of cows, with the army of those with great minds and knowledge of those with divine qualities, with great qualities like special knowledge etc., with the senses and the earth, with the mighty army of warriors with great speed and strong horses. Let us fight with the enemy. Similarly, by doing this, start worldly and spiritual activities. You implement it.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without the help of a scholar one cannot achieve success in good efforts. Certainly, no enemy can be defeated or conquered without a strong, healthy, well-educated, religious, valiant army i.e. an all-round army, That's why everyone should always progress

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Fortune, prosperity, wealth etc. have been told in the scriptures as Lakshmi. The prosperity of the king is called Rajalakshmi.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do with the help of Indra is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (God or President of the Assembly), let us obtain wealth, noble desire and plenteous food, with much delightful gold silver and other metals, shining all around on account of being utilized for the spread of knowledge, with the virtues like wisdom and education or with the divine and learned army full of wisdom, strength, effective speech, land and cattle, endowed with speedy and powerful horses. Let us fight with the wicked and accomplish secular and spiritual dealings. Thou shouldst also help us in the accomplishment of this object.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( वाजेभि:) विज्ञानादि गुणैः संग्रामैर्वा = With knowledge and other virtues or with battles.( वज-गतौ अभिदयुभिः) अभितो दिवः विद्याव्यवहारप्रकाशा येषु तैः = Shining with the light of knowledge on all sides.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can accomplish all objects without the help of the learned persons. None can defeat enemies without the powerful, healthy and educated army consisting of righteous and brave persons and endowed with requisite implements and parts. Therefore a King must possess such a strong army.

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