ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
सो अ॑र्ण॒वो न न॒द्यः॑ समु॒द्रियः॒ प्रति॑ गृभ्णाति॒ विश्रि॑ता॒ वरी॑मभिः। इन्द्रः॒ सोम॑स्य पी॒तये॑ वृषायते स॒नात्स यु॒ध्म ओज॑सा पनस्यते ॥
स्वर सहित पद पाठसः । अ॒र्ण॒वः । न । न॒द्यः॑ । स॒मु॒द्रियः॑ । प्रति॑ । गृ॒भ्णा॒ति॒ । विऽश्रि॑ताः । वरी॑मऽभिः । इन्द्रः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ । वृ॒ष॒ऽय॒ते॒ । स॒नात् । सः । यु॒ध्मः । ओज॑सा । प॒न॒स्य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सो अर्णवो न नद्यः समुद्रियः प्रति गृभ्णाति विश्रिता वरीमभिः। इन्द्रः सोमस्य पीतये वृषायते सनात्स युध्म ओजसा पनस्यते ॥
स्वर रहित पद पाठसः। अर्णवः। न। नद्यः। समुद्रियः। प्रति। गृभ्णाति। विऽश्रिताः। वरीमऽभिः। इन्द्रः। सोमस्य। पीतये। वृषऽयते। सनात्। सः। युध्मः। ओजसा। पनस्यते ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृग्गुण इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
य इन्द्रः सूर्य इव सोमस्य पीतये वृषायते सयुध्मो विश्रिता नद्योऽर्णवो न समुद्रियः सनादोजसा वरीमभिः पनस्यते राज्यं प्रति गृभ्णाति स राज्याय सत्काराय च सर्वैर्मनुष्यैः स्वीकार्य्यः ॥ २ ॥
पदार्थः
(सः) उक्तार्थः (अर्णवः) समुद्रः (न) इव (नद्यः) सरितः (समुद्रियः) समुद्रे भवो नौसमूहः (प्रति) क्रियायोगे (गृभ्णाति) गृह्णाति (विश्रिताः) विविधप्रकारैः सेवमानाः (वरीमभिः) वृण्वन्ति ये तैः शिल्पिभिः (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः (सोमस्य) वैद्यविद्यासम्पादितस्य (पीतये) पानाय (वृषायते) वृष इवाचरति (सनात्) सर्वदा (सः) (युध्मः) यो युध्यते सः (ओजसा) बलेन (पनस्यते) यः पनायति व्यवहरति स पना, पना इवाचरति ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सागरो विविधानि रत्नानि नानानदींश्च स्वमहिम्ना स्वस्मिन् संरक्षति तथैव सभाद्यध्यक्षो विविधान् पदार्थान्नानाविधाः सेनाः स्वीकृत्य दुष्टान् पराजित्य श्रेष्ठान् संरक्ष्य स्वमहिमानं विस्तारयेत् ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसे गुणवाला हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
जो (इन्द्रः) सभाध्यक्ष सूर्य के समान (सोमस्य) वैद्यक विद्या से सम्पादित वा स्वभाव से उत्पन्न हुए रस के (पीतये) पीने के लिये (वृषायते) बैल के समान आचरण करता है (सः) वह (युध्मः) युद्ध करनेवाला पुरुष (न) जैसे (विश्रिताः) नाना प्रकार के देशों को सेवन करने हारी (नद्यः) नदियाँ (अर्णवः) समुद्र को प्राप्त होके स्थिर होती और जैसे (समुद्रियः) सागरों में चलने योग्य नौकादि यान समूह पार पहुँचाता है, जैसे (सनात्) निरन्तर (ओजसा) बल से (वरीमभिः) धर्म वा शिल्पी क्रिया से (पनस्यते) व्यवहार करनेवाले के समान आचरण और पृथिवी आदि के राज्य को (प्रतिगृभ्णाति) ग्रहण कर सकता है, वह राज्य करने और सत्कार के योग्य है, उस को सब मनुष्य स्वीकार करें ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे समुद्र नाना प्रकार के रत्न और नाना प्रकार की नदियों को अपनी महिमा से अपने में रक्षा करता है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि भी अनेक प्रकार के पदार्थ और अनेक प्रकार की सेनाओं को स्वीकार कर दुष्टों को जीत और श्रेष्ठों की रक्षा करके अपनी महिमा फैलावें ॥ २ ॥
विषय
सरित्पति प्रभु
पदार्थ
१. (सः) = वह प्रभु (न) = जैसे (समुद्रियः) = समुद्र की ओर जानेवाली (वरीमभिः) = विस्तारों से (विश्रिताः) = विविध स्थानों का आश्रय करनेवाली (नद्यः) = नदियों को [नदीः] (अर्णवः) = समुद्र (प्रतिगृभ्णाति) = ग्रहण करता है, उसी प्रकार सारी प्रजाओं को ग्रहण करनेवाले हैं । सम्पूर्ण नदियों का पति समुद्र है, इसी प्रकार सारी प्रजाओं का पति प्रभु है । २. इस प्रभु की प्रजा बना हुआ (इन्द्रः) = जीव (सोमस्य पीतये) = सोमशक्ति का शरीर में पान के द्वारा (वृषायते) = शक्तिशाली पुरुष की भाँति आचरण करता है । इसके कार्य शक्तिसम्पन्न होते हैं । ३. (सः) = वह (सनात्) = सनातन जीव (युध्मः) = वासनाओं के साथ युद्ध करनेवाला योद्धा बनकर (ओजसा) = काम - संहार आदि ओजस्वी कार्यों के द्वारा (पनस्यते) = प्रभु का स्तवन करना चाहता है । जीव का सच्चा प्रभुस्तवन यही है कि वह इस जीवन में योद्धा बने और वासनारूप शत्रुओं का निराकरण करनेवाला बने ।
भावार्थ
भावार्थ - वे प्रभु सब प्रजाओं के पति हैं, जैसे समुद्र नदियों का । जीव को चाहिए कि युद्ध में वासना - संहाररूप ओजस्वी कार्य के द्वारा वह प्रभु का सच्चा स्तोता बनें ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
(अर्णवः नद्यः न ) जिस प्रकार समुद्र नदियों को अपने भीतर ले लेता है, उसी प्रकार (इन्द्रः) सूर्य भी ( नद्यः ) अव्यक्त शब्द करनेवाले, गर्जनाशील ( विश्रिताः ) विविध प्रकारों और रूपों में स्थित जलों को ( वरीमभिः ) नाना रोकनेवाले कारणों या किरणों द्वारा अथवा अति अधिक शक्तिवाले किरणों से ( प्रति गृभ्णाति ) ले लेता है। वही ( समुद्रियः ) समुद्र अर्थात् महान् आकाश या अन्तरिक्ष प्रदेश में उत्पन्न (इन्द्रः) सूर्य (सोमस्य पीतये) जल को अपने किरणों द्वारा पान कर लेने के कारण ही (वृषायते) बाद में वर्षा करने वाले मेघ के समान, मेघ का रूप होकर बरसता है। मानो सूर्य ही मेघ रूप में बदल जाता है । (सः) वह (सनात्) सदा से ही ( युध्मः) प्रहार करनेवाला विद्युत् होकर (ओजसा) अपने पराक्रम या बलकर्म से ( पनस्यते ) नाना व्यापार अर्थात् वर्षण, गर्जन, विद्युत् आदि के कार्य करता है । ठीक उसी प्रकार यह राजा ( समुद्रियः ) समुद्र से उत्पन्न रत्न के समान उज्वल होकर भी ( नद्यः न अर्णवः ) जिस प्रकार सागर अपने भीतर जल से भरी पूर्ण नदियों को ले लेता है उसी प्रकार वह (नद्यः) गर्जना करनेहारी सेनाओं तथा समृद्धिशाली उन उन नाना प्रजाओं को भी (प्रति गृभ्णाति) ले लेता है अपने वश कर लेता है, जो (वरीमभिः) नाना रक्षा साधनों और बड़े बड़े सामर्थ्यो से ( विश्रिताः ) विविध उपायों, स्वार्थों तथा विविध देशों, दिशाओं और कार्यों में आश्रय पा रही हैं । ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता राजा, ( सोमस्य पीतये ) ऐश्वर्य के भोग, राष्ट्र के पालन और ओषधि आदि रस पान के लिए (वृषायते) वर्षणकारी मेघ या सूर्य के समान आचरण करे । और (सनात्) सदा (सः) वह (ओजसा) अपने पराक्रम से, (युध्मः) शत्रुओं पर प्रहार करनेहारे योद्धा के समान सदा के पालन सन्नद्ध होकर ( पनस्यते ) स्तुति का पात्र हो, अथवा राज्य के समस्त व्यवहार करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४ जगती । २,५—७ निचृज्जगती । ३, ८ विराड्जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष कैसे गुणवाला हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
य इन्द्रः सूर्यः इव सोमस्य पीतये वृषायते स युध्मः विश्रिता नद्यः अर्णवः न समुद्रियः सनात् ओजसा वरीमभिः पनस्यते राज्यं प्रति गृभ्णाति स राज्याय सत्काराय च सर्वैः मनुष्यैः स्वीकार्य्यः॥२॥
पदार्थ
(यः)=जो, (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः=सभा आदि का अध्यक्ष, (सूर्यः)=सूर्य के, (इव)=समान, (सोमस्य) वैद्यविद्यासम्पादितस्य= वैद्य विद्या को सम्पादित किये हुए का, अर्थात् वैद्य के, (पीतये) पानाय=पीने के लिये, (वृषायते) वृष इवाचरति=साण्ड के समान आचरण करताहै, (सः)=वह, (युध्मः) यो युध्यते सः=जो युद्ध करता है, (विश्रिताः) विविधप्रकारैः सेवमानाः=विविध प्रकार से अनुसरण करते हुए, (नद्यः) सरितः=नदी और (अर्णवः) समुद्रः= समुद्र के, (न) इव=समान, (समुद्रियः) समुद्रे भवो नौसमूहः=समुद्र की नावों के समूह को, (सनात्) सर्वदा= सर्वदा, (ओजसा) बलेन=बल से, (वरीमभिः) वृण्वन्ति ये तैः शिल्पिभिः= चुननेवाले शिल्पियों के द्वारा, (पनस्यते) यः पनायति व्यवहरति स पना, पना इवाचरति= दिखावा करते हुए, (राज्यम्)= राज्य के, (प्रति) क्रियायोगे= ओर से, (गृभ्णाति) गृह्णाति= ले लिये जाते हैं, (सः) उक्तार्थः =उपरोक्त कहे हुए, (च) =और, (राज्याय)= राज्य के, (सत्काराय)= आतिथ्य सत्कार के लिये, (सर्वैः)=सब, (मनुष्यैः)= मनुष्यों को, (स्वीकार्य्यः)=स्वीकार करना चाहिए ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे समुद्र विविध प्रकार के रत्न और विविध प्रकार की नदियां अपनी महिमा से अपने को संरक्षित करती हैं, वैसे ही सभा आदि के अध्यक्ष अनेक प्रकार के पदार्थ और अनेक प्रकार की सेनाओं को स्वीकार करके दुष्टों को हरा करके, श्रेष्ठों की रक्षा करके अपनी महिमा का विस्तार करता है ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यः) जो (इन्द्रः) सभा आदि का अध्यक्ष, (सूर्यः) सूर्य के (इव) समान (सोमस्य) वैद्य विद्या को सम्पादित किये हुए है, अर्थात् वैद्य है ,वह (पीतये) पीने के लिये (वृषायते) साण्ड के समान आचरण करता है, अर्थात् बड़ी मात्रा में पी जाता है। (सः) वह (युध्मः) जो युद्ध करता है, (विश्रिताः) उसमें विविध प्रकार से अनुसरण करते हुए, (नद्यः) नदी और (अर्णवः) समुद्र के, (न) समान (समुद्रियः) समुद्र की नावों के समूह को (सनात्) सर्वदा, (ओजसा) बल से, (वरीमभिः) चुननेवाले शिल्पियों के द्वारा (पनस्यते) दिखावा करते हुए (राज्यम्) राज्य की (प्रति) ओर से (गृभ्णाति) बंदी बना दिये जाते हैं। (च) और (सः) उपरोक्त कहे हुए (राज्याय) राज्य के (सत्काराय) आतिथ्य सत्कार के लिये (सर्वैः) सब (मनुष्यैः) मनुष्यों को (स्वीकार्य्यः) [यह] स्वीकार करना चाहिए ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) उक्तार्थः (अर्णवः) समुद्रः (न) इव (नद्यः) सरितः (समुद्रियः) समुद्रे भवो नौसमूहः (प्रति) क्रियायोगे (गृभ्णाति) गृह्णाति (विश्रिताः) विविधप्रकारैः सेवमानाः (वरीमभिः) वृण्वन्ति ये तैः शिल्पिभिः (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः (सोमस्य) वैद्यविद्यासम्पादितस्य (पीतये) पानाय (वृषायते) वृष इवाचरति (सनात्) सर्वदा (सः) (युध्मः) यो युध्यते सः (ओजसा) बलेन (पनस्यते) यः पनायति व्यवहरति स पना, पना इवाचरति ॥२॥ विषयः- पुनः स कीदृग्गुण इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- य इन्द्रः सूर्य इव सोमस्य पीतये वृषायते सयुध्मो विश्रिता नद्योऽर्णवो न समुद्रियः सनादोजसा वरीमभिः पनस्यते राज्यं प्रति गृभ्णाति स राज्याय सत्काराय च सर्वैर्मनुष्यैः स्वीकार्य्यः ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सागरो विविधानि रत्नानि नानानदींश्च स्वमहिम्ना स्वस्मिन् संरक्षति तथैव सभाद्यध्यक्षो विविधान् पदार्थान्नानाविधाः सेनाः स्वीकृत्य दुष्टान् पराजित्य श्रेष्ठान् संरक्ष्य स्वमहिमानं विस्तारयेत् ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा समुद्र नाना प्रकारची रत्ने व नाना प्रकारच्या नद्यांचे आपल्या महानतेने रक्षण करतो तसेच सभाध्यक्ष इत्यादीनीही अनेक प्रकारचे पदार्थ व अनेक प्रकारची सेना स्वीकारून, दुष्टांना जिंकून श्रेष्ठांचे रक्षण करून आपली प्रतिष्ठा वाढवावी. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as the ocean with its bottomless depths receives and holds the streams of water flowing over the expansive lands and heading towards the sea, and just as the sun, with its expanse of heavens, receives and holds the streams of vapours flowing across the spaces of the skies and then, like the most generous lord of life, showers the rains for the earth to have a drink of the soma of joy, so does the ruler lord of light and power receive and hold the streams of incoming wealth heading to the vast expanse of the treasury, and then like a generous lord of fertility showers the rain of wealth upon the people for them to have a drink of the joy of life. This ocean, this sun, this ruler, mighty warrior and protector rises in strength with his glory since time immemorial.
Subject of the mantra
Then this mantra has preached about how virtuous that Chairman of the Assembly should be.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ) =The one, (indraḥ) =Chairman of the Assembly etc., (sūryaḥ) =of Sun, (iva)=like, (somasya)=Vaidya has accomplished the knowledge, that is, he is a Vaidya, (pītaye) =for drinking, (vṛṣāyate)= behaves like a bull, that is, drinks in large quantities. (saḥ) =that, (yudhmaḥ) =one who wages war, (viśritāḥ)= following it in various ways, (nadyaḥ) =river and, (arṇavaḥ) =of ocean, (na) =like, (samudriyaḥ) =to a group of sea boats, (sanāt) =always, (ojasā) =forcefully, (varīmabhiḥ)=by the artisans who choose, (panasyate)=pretending. (rājyam)=of the state, (prati)=on behalf of, (gṛbhṇāti)=are made prisoners. (ca) =and, (saḥ) =said as above, (rājyāya) =of the state, (satkārāya)=for hospitality, (sarvaiḥ) =all, (manuṣyaiḥ) =to humans, (svīkāryyaḥ)= must accept, [yaha] =this.
English Translation (K.K.V.)
The one who is the Chairman of the Assembly, who has acquired medical knowledge like the Sun, that is, a Vaidya (Herbal physician), behaves like a bull while drinking, that is, he drinks in large quantities. In the war he wages, following in various ways, a multitude of boats of river and ocean, of the same ocean, are always taken captive on behalf of the state, by force, by pretending by craftsmen. And all human beings should accept this for the hospitality of the state as mentioned above.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the oceans of various types of jewels and the various types of rivers preserve themselves with their glory, in the same way, the president of the assembly, etc., preserves his glory by accepting various types of things and various types of armies, by defeating the wicked and by protecting the noble ones.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (Indra) is taught further in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That man is to be accepted by all men for honor and kingship, who is mighty like the sun, who is like the watery ocean that receives the rivers spread out in all sides. Like the ocean ,receiving the rivers from all sides, the king receives his subjects of various kinds from all sides. He acts like the mighty bull,, to drink the Soma Juice prepared from various nourishing herbs by good physicians. Being a powerful warrior, he is for ever praised for his might.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अर्णव:) समुद्र: = Ocean ( पनस्यते ) यः पनायते व्यवहरति स पना इवाचरति = Acts or is praised. ( पन-व्यवहारे स्तुतौ च )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the ocean keeps in itself many jewels and many rivers by its greatness or vastness, in the same manner, the President of the Assembly or the Council of ministers should accept various articles and armies, defeat the wicked and protect the noble persons and thus extend his glory.
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