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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 55/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    दा॒नाय॒ मनः॑ सोमपावन्नस्तु ते॒ऽर्वाञ्चा॒ हरी॑ वन्दनश्रु॒दा कृ॑धि। यमि॑ष्ठासः॒ सार॑थयो॒ य इ॑न्द्र ते॒ न त्वा॒ केता॒ आ द॑भ्नुवन्ति॒ भूर्ण॑यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दा॒नाय॑ । मनः॑ । सो॒म॒ऽपा॒व॒न् । अ॒स्तु॒ । ते॒ । अ॒र्वाञ्चा॑ । हरी॒ इति॑ । व॒न्द॒न॒ऽश्रु॒त् । आ । कृ॒धि॒ । यमि॑ष्ठासः । सार॑थयः । ये । इ॒न्द्र्च । ते॒ । न । त्वा॒ । केताः॑ । आ । द॒भ्नु॒व॒न्ति॒ । भूर्ण॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दानाय मनः सोमपावन्नस्तु तेऽर्वाञ्चा हरी वन्दनश्रुदा कृधि। यमिष्ठासः सारथयो य इन्द्र ते न त्वा केता आ दभ्नुवन्ति भूर्णयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दानाय। मनः। सोमऽपावन्। अस्तु। ते। अर्वाञ्चा। हरी इति। वन्दनऽश्रुत्। आ। कृधि। यमिष्ठासः। सारथयः। ये। इन्द्र। ते। न। त्वा। केताः। आ। दभ्नुवन्ति। भूर्णयः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 55; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कथंभूतः स्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे वन्दनश्रुत्सोमपावन्निन्द्र ! ते तव मनो दानायास्तु समन्ताद्भवतु यथा वायोरर्वाञ्चौ हरी यथा भूर्णयो यमिष्ठासः सारथयस्तथा सर्वान् धर्मे नियच्छ सर्वेषु केता आकृधि एवंकृते ये तव शत्रवः सन्ति, ते तव वशे भवन्तु त्वा न दभ्नुवन्ति ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (दानाय) सुपात्रेभ्यो विद्यादिदानाय (मनः) अन्तःकरणम् (सोमपावन्) यः सोमान् श्रेष्ठान् रसान् पिबति तत्सम्बुद्धौ (अस्तु) भवतु (ते) तव (अर्वाञ्चा) यावर्वागऽञ्चतस्तौ (हरी) हरणशीलौ (वन्दनश्रुत्) येन वायुना वन्दनं स्तवनं भाषणं शृणोति श्रावयति वा तत्सम्बुद्धौ (आ) समन्तात् (कृधि) कुरु (यमिष्ठासः) अतिशयेन नियन्तारः (सारथयः) यानगमयितारः (ये) सुशिक्षिताः (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष (ते) तव (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (केताः) प्रज्ञाः प्रज्ञापनव्यवहारान् (आ) अभितः (दभ्नुवन्ति) हिंसन्ति (भूर्णयः) ये बिभ्रति ते। अत्र घृणिपृश्नि० (उणा०४.५४) अनेनायं निपातितः ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुसारथयोऽश्वान् संशिक्ष्य नियच्छन्ति यथा तिर्यग्गामी वायुश्च तथाऽऽध्यापकोपदेशका विद्यासूपदेशाभ्यां सर्वान् सत्याचरणे निश्चितान् कुर्वन्तु न ह्येताभ्यां विना मनुष्यान् धार्मिकान् कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (वन्दनश्रुत्) स्तुति वा भाषण के सुनने-सुनाने और (सोमपावन्) श्रेष्ठ रसों के पीनेवाले (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष ! (ते) आपका (मनः) मन (दानाय) पुत्रों को विद्यादि दान के लिये (अस्तु) अच्छे प्रकार होवे, जैसे वायु वा सूर्य्य के (अर्वाञ्चा) वेगादि गुणों को प्राप्त करानेवाली (हरी) धारणाऽकर्षण गुण और जैसे (भूर्णयः) पोषक (यमिष्ठासः) अतिशय करके यमनकर्ता (सारथयः) रथों को चलानेवाले सारथि घोड़े आदि को सुशिक्षा कर नियम में रखते हैं, वैसे तू सब मनुष्यादि को धर्म में चला और सब में (केताः) शास्त्रीय प्रज्ञाओं को (आकृधि) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये, इस प्रकार करने से (ये) जो तेरे शत्रु हैं वे (ते) तेरे वश में हो जायें, जिससे (त्वा) तुझ को (न दभ्नुवन्ति) दुःखित न कर सकें ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे उत्तम सारथि लोग घोड़े को अच्छे प्रकार शिक्षा करके नियम में चलाते हैं और जैसे तिरछा चलनेवाला वायु नियन्ता है, वैसे धार्मिक पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वान् लोग सत्य विद्या और सत्य उपदेशों से सबको सत्याचार में निश्चित करें, इन दोनों के विना मनुष्यों को धर्मात्मा करने के वास्ते कोई भी समर्थ नहीं हो सकता ॥ ७ ॥

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    विषय

    अन्तर्मुख दानाय

    पदार्थ

    १. हे (सोमपावन्) = सोम - [वीर्य] - कणों को शरीर में ही व्याप्त करानेवाले जीव ! ते (मनः) = तेरा मन (दानाय) = दान के लिए (अस्तु) = हो । तेरी वृत्ति सदा दान देने की हो । 'यथा नः सर्व इज्जनः संगत्यां सुमना असद् दानकामश्च नो भुवत्' - यह वृति ही तेरे मलों का नाश करके जीवन के शोधन का कारण बनेगी । २. हे (वन्दनभुत्) = प्रातः - सायं प्रभु - वन्दना का श्रवण करनेवाले जीव ! तू (हरी) = इन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (अर्वाची) = अन्तर्मुखवाला (आकृधि) = सर्वथा करनेवाला हो । ये इन्द्रियाश्व बाह्य विषयों में ही न चरते रह जाएँ । इनको रोककर तू इन्हें मन में स्थिर कर, जिससे तू आत्मस्वरूप को देखनेवाला बने । ३. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (ये) = जो (ते) = तेरे (सारथयः) = बुद्धिरूप सारथि है, वे (यमिष्ठासः) = अतिशयेन उत्कृष्ट नियन्ता हैं । ये मनरूप लगाम के द्वारा इन्द्रियाश्वों को पूर्णतया काबू करने में समर्थ हों । ४. (न) = ऐसा न हो कि (भूर्णयः) = पालन - पोषण - सम्बन्धी (केताः) = ज्ञान ही (त्वा) = तुझे (आदभ्नुवन्ति) = सब ओर से हिंसित करनेवाले हों । तुझे सदा खान - पान की बातें ही न सूझती रहें, तेरी इन्द्रियाँ सदा विषयों व खेलों में ही न भागती रहें । तेरा जीवन विकृत होते - होते Poloplaying ही न हो जाए ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सोम का रक्षण करें, प्रभुस्तवन करते हुए इन्द्रियों को अन्तर्मुख करें । हमारी बुद्धि प्रकर्षेण मन द्वारा इन्द्रियों का नियन्त्रण करे । हम खान - पान में ही समाप्त न हो जाएँ ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (सोमपावन ) ऐश्वर्यं और ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र और अभिषिक्त राज्यपद के रक्षक राजन् ! विद्वन् ! ( ते मनः ) तेरा मन ( दानाय अस्तु) सदा दान देने के लिए हो । और (ते मनः दानाय अस्तु ) तेरा मन अर्थात् स्तम्भनबल, पराक्रम शत्रुओं के खण्डन, विनाश के लिए हो । हे (वन्दनश्रुत्) स्तुति और अभिवादन को प्रेम और आदर से श्रवण करनेहारे ! तू अपने ( हरी ) दोनों अश्वों को (अर्वाञ्चौ) आगे, अपने अधीन चलनेहारा (कृधि) कर । हे ( इन्द्र ) राजन् ! ( ये ) जो (यमिष्ठासः) नियन्त्रण करने में कुशल, ( सारथयः ) रथियों के साथ बैठनेवाले सारथी लोग और उनके समान सहयोगी नियमव्यवस्था के अधिकारी हैं, (ते) वे (केताः) ज्ञान वाले और ( भूर्णयः ) प्रजा के पालन पोषण करनेवाले होकर ( त्वा ) तुझ को (न आदभ्नुवन्ति) विनाश न करें। प्रत्युत सारथियों के समान वे भी राष्ट्र और राजा रूप मुख्य स्वामी की रक्षा करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४ जगती । २,५—७ निचृज्जगती । ३, ८ विराड्जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे वन्दनश्रुत् सोमपावन् इन्द्र ! ते तव मनः दानाय अस्तु समन्तात् भवतु यथा वायोः अर्वाञ्चा हरी यथा भूर्णयः यमिष्ठासः सारथयः तथा सर्वान् धर्मे नियच्छ सर्वेषु केता आ कृधि एवं कृते ये तव शत्रवः सन्ति ते तव वशे भवन्तु त्वा न दभ्नुवन्ति ॥७॥

    पदार्थ

    हे (वन्दनश्रुत्) येन वायुना वन्दनं स्तवनं भाषणं शृणोति श्रावयति वा तत्सम्बुद्धौ= वायु से वन्दन, स्तुतियां और बोलना सुनने और सुनाये जानेवाले, (सोमपावन्) यः सोमान् श्रेष्ठान् रसान् पिबति तत्सम्बुद्धौ=सोम के श्रेष्ठ रसों को पिलानेवाले, (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष= सभा आदि के अध्यक्ष ! (ते) तव= तुम्हारा, (मनः) अन्तःकरणम्=अन्तःकरण, (दानाय) सुपात्रेभ्यो विद्यादिदानाय=सुपात्रों के लिये विद्या आदि दान देनेवाला, (अस्तु)= होवे, (समन्तात्)=हर ओर से, (अस्तु) भवतु= होवे। (यथा)=जैसे, (वायोः)=वायु, (अर्वाञ्चा) यावर्वागऽञ्चतस्तौ=वेगवान, (हरी) हरणशीलौ=हरण करने के स्वभाववाला, (यथा)=जैसे, (भूर्णयः) ये बिभ्रति ते=जो ले जानेवाले, (यमिष्ठासः) अतिशयेन नियन्तारः=अतिशय रूप से ले जानेवाले, (सारथयः) यानगमयितारः=यानों को ले जानेवाले, (तथा)=वैसे ही, (सर्वान्)= समस्त, (धर्मे)=धर्मों में, (नियच्छ) =अच्छे प्रकार से ले जायें, (सर्वेषु)=सब में, (केताः) प्रज्ञाः प्रज्ञापनव्यवहारान्= प्रज्ञा के व्यवहार को, (आ) समन्तात्=हर ओर, (कृधि) कुरु=कीजिये, (एवम्) =ऐसे ही, (कृते)=जो किये गये हैं, (ये) सुशिक्षिताः= सुशिक्षित, (तव)=तुम्हारे, (शत्रवः)=शत्रु, (सन्ति)=हैं, (ते) तव=तुम्हारे, (वशे)= वश में, (भवन्तु)=होवें, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (न) निषेधे= न, {आ}अभितः=हर ओर से, (दभ्नुवन्ति) हिंसन्ति=मारते हैं ॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे उत्तम सारथि लोग घोड़ों को अच्छे प्रकार शिक्षित करके ले जाते हैं, जैसे वायु तिरछा चलनेवाला है, वैसे ही अध्यापक और उपदेशक विद्या और सत्य उपदेशों से सबको सत्याचार करने में सुनिश्चित करें, इनके विना मनुष्यों को धार्मिक नहीं कर सकते हैं ॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (वन्दनश्रुत्) वायु से वन्दन, स्तुतियां और बोलने सुनने और सुनाये जानेवाले, (सोमपावन्) सोम के श्रेष्ठ रसों को पिलानेवाले और (इन्द्र) सभा आदि के अध्यक्ष ! (ते) तुम्हारा (मनः) अन्तःकरण (दानाय) सुपात्रों के लिये विद्या आदि दान देनेवाला (समन्तात्) हर ओर से (अस्तु) होवे। (यथा) जैसे (वायोः) वायु (अर्वाञ्चा) वेगवान, (हरी) हरण करने के स्वभाववाला है। (यथा) जैसे (भूर्णयः) जो ले जानेवाले हैं, [वे] (यमिष्ठासः) अतिशय रूप से ले जाते हैं। (सारथयः) यानों को ले जानेवाले सारथी, (तथा) वैसे ही (सर्वान्) सबको (धर्मे) धर्म में (नियच्छ) अच्छे प्रकार से ले जायें। (सर्वेषु) सब में (केताः) बुद्धिमत्ता के व्यवहार को (आ) हर ओर (कृधि) कीजिये। (एवम्) ऐसे ही, (कृते) जो किये गये हैं (ये) सुशिक्षित, (तव) तुम्हारे (शत्रवः) शत्रु (सन्ति)हैं, (ते) तुम्हारे (वशे) वश में (भवन्तु) होवें। (त्वा) तुमको {आ} हर ओर से (न+दभ्नुवन्ति) नहीं मारते हैं ॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (दानाय) सुपात्रेभ्यो विद्यादिदानाय (मनः) अन्तःकरणम् (सोमपावन्) यः सोमान् श्रेष्ठान् रसान् पिबति तत्सम्बुद्धौ (अस्तु) भवतु (ते) तव (अर्वाञ्चा) यावर्वागऽञ्चतस्तौ (हरी) हरणशीलौ (वन्दनश्रुत्) येन वायुना वन्दनं स्तवनं भाषणं शृणोति श्रावयति वा तत्सम्बुद्धौ (आ) समन्तात् (कृधि) कुरु (यमिष्ठासः) अतिशयेन नियन्तारः (सारथयः) यानगमयितारः (ये) सुशिक्षिताः (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष (ते) तव (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (केताः) प्रज्ञाः प्रज्ञापनव्यवहारान् (आ) अभितः (दभ्नुवन्ति) हिंसन्ति (भूर्णयः) ये बिभ्रति ते। अत्र घृणिपृश्नि० (उणा०४.५४) अनेनायं निपातितः ॥७॥ विषयः- पुनः स कथंभूतः स्यादित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे वन्दनश्रुत्सोमपावन्निन्द्र ! ते तव मनो दानायास्तु समन्ताद्भवतु यथा वायोरर्वाञ्चौ हरी यथा भूर्णयो यमिष्ठासः सारथयस्तथा सर्वान् धर्मे नियच्छ सर्वेषु केता आकृधि एवंकृते ये तव शत्रवः सन्ति, ते तव वशे भवन्तु त्वा न {आ} दभ्नुवन्ति ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुसारथयोऽश्वान् संशिक्ष्य नियच्छन्ति यथा तिर्यग्गामी वायुश्च तथाऽऽध्यापकोपदेशका विद्यासूपदेशाभ्यां सर्वान् सत्याचरणे निश्चितान् कुर्वन्तु न ह्येताभ्यां विना मनुष्यान् धार्मिकान् कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥७॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा उत्तम सारथी घोड्यांना प्रशिक्षण देऊन नियमात चालवितो व जसा तिरपा चालणारा वायू नियंता असतो तसे धार्मिक गोष्टी शिकविणाऱ्या व उपदेश करणाऱ्या विद्वानांनी सत्य विद्या व उपदेशाने सर्वांना सत्याचरणात स्थित करावे. याशिवाय माणसांना कोणीही धर्मात्मा बनवू शकत नाही. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord creator of soma and lover of the drink of joy, may your heart and mind concentrate on giving. Lord of fame commanding admiration and reverence, direct your dynamic and magnetic forces this way for progress and stability. May your charioteers, leaders and guides of the nation, be experts on the steering wheel and in the direction of Dharma. Realise your noble and brilliant intentions. May no enemies be able to injure and suppress or terrorize you.

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    Subject of the mantra

    Then how should that Chairman of the Assembly be, this matter is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vandanaśrut) =salutations, praises and speaking, heard and narrated through air, (somapāvan) =the one who gives the best juice of Soma and, (indra) Chairman of the Assembly etc., (te) =your, (manaḥ) =conscience, (dānāya) =one who donates knowledge etc. to the deserving, (samantāt) =from all sides, (astu) =be, (yathā) =like, (vāyoḥ) =air, (arvāñcā) =speedy, (harī) Has the nature to kidnaping, (yathā) =like, (bhūrṇayaḥ) =those wh carry away, [ve]=they, (yamiṣṭhāsaḥ) =take away extremely, (sārathayaḥ) = charioteers who take away the chariots, (tathā) =in the same way, (sarvān) =to all, (dharme) =in righteousness, (niyaccha)= carry away well, (sarveṣu) =in all, (ketāḥ) =intelligent behavior, (ā) =from all sides, (kṛdhi) do, (evam) =similarly, (kṛte) =those said, (ye) =well educated, (tava) =your, (śatravaḥ) =enemies, (santi) =are, (te) =your, (vaśe) =in control, (bhavantu) =be, (tvā) =to you, {ā} =from all sides, (na+dabhnuvanti) =do not kill.

    English Translation (K.K.V.)

    O the one who is worshiped through the air, praised, heard and narrated, the one who makes one to drink the best juices of Soma and the president of the Assembly etc.! Your conscience should be that of donating knowledge etc. for the deserving people from everywhere. Like the wind is fast and has the nature of abducting. Like those who are going to take it, they take it excessively. Similarly, the charioteers who carry the vehicles should carry everyone in the right manner in the righteousness. Practice intelligent behaviour in everything, everywhere. Similarly, your enemies, those who have been well educated, they should be under your control. They do not kill you from all sides.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the best charioteers lead the horses by training them well, just as the wind moves obliquely, in the same way the teachers and preachers should ensure everyone to follow the right conduct through knowledge and true teachings, without these they cannot make people righteous.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How else should he (Indra) he is taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O drinker of the Soma juice (the juice of the nourishing herbs) O hearer of our praises, let thy mind be always inclined to give thy knowledge to deserving persons. Let thy steeds be under thy control. As thy charioteers are skillful in restraining horses, in the same way, restrain all from going astray from the path of righteousness, give good knowledge or instructions to all. Let not crafty enemies bearing arms prevail against thee. Let them be under thy control.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दानाय ) सुपात्रेभ्यो विद्यदिदानाय = For giving knowledge to deserving persons. (केता:) प्रज्ञाः प्रज्ञापनव्यवहारान् = Good knowledge or instructions about conduct.( दभ्नुवन्ति)हिन्सन्ति = Kill.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As good charioteers train horses and keep them under their control, in the same manner, the teachers and preachers by their knowledge and sermons keep all established or firm in the observance of truc conduct. None can make men righteous without their assistance.

    Translator's Notes

    केता is from किय-ज्ञाने दभ्नुबन्ति is from दभ्नोतिबवधकर्मा ( निघ० २.२९) In the above three Mantras, Indra stands mostly for teachers and preachers endowed with the great wealth of knowledge and wisdom as Rishi Dayananda has rightly stated taking into consideration the context denoted by the expressions like स इद् बने नमस्युभिर्वचस्यते-केताः दानाय मनः कृणुष्व etc. Even Griffith, though not properly understanding the meaning of the above Mantras and taking them to refer to Indra a particular God in his eyes, says in his foot-note in the fourth Mantra. स इद् बने नमस्युभिर्वचस्यते वने "In the wood, in the first line of the first verse seems to be an allusion to the forest life of Brahmans." (The Hymns of the Rigveda Vol. 1. P. 77).

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