ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 59/ मन्त्र 2
ऋषिः - नोधा गौतमः
देवता - अग्निर्वैश्वानरः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मू॒र्धा दि॒वो नाभि॑र॒ग्निः पृ॑थि॒व्या अथा॑भवदर॒ती रोद॑स्योः। तं त्वा॑ दे॒वासो॑ऽजनयन्त दे॒वं वैश्वा॑नर॒ ज्योति॒रिदार्या॑य ॥
स्वर सहित पद पाठमू॒र्धा । दि॒वः । नाभिः॑ । अ॒ग्निः । पृ॒थि॒व्याः । अथ॑ । अ॒भ॒व॒त् । अ॒र॒तिः । रोद॑स्योः । तम् । त्वा॒ । दे॒वासः॑ । अ॒ज॒न॒य॒न्त॒ । दे॒वम् । वैश्वा॑नर । ज्योतिः॑ । इत् । आर्या॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
मूर्धा दिवो नाभिरग्निः पृथिव्या अथाभवदरती रोदस्योः। तं त्वा देवासोऽजनयन्त देवं वैश्वानर ज्योतिरिदार्याय ॥
स्वर रहित पद पाठमूर्धा। दिवः। नाभिः। अग्निः। पृथिव्याः। अथ। अभवत्। अरतिः। रोदस्योः। तम्। त्वा। देवासः। अजनयन्त। देवम्। वैश्वानर। ज्योतिः। इत्। आर्याय ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 59; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे वैश्वानर यो भवानग्निरिव दिवः पृथिव्या मूर्द्धा नाभिश्चाभवदथ रोदस्योररतिरभवदार्यायेज्ज्योतिरिदेव यं देवं देवासोऽजनयन्त तन्त्वा वयमुपासीमहि ॥ २ ॥
पदार्थः
(मूर्द्धा) उत्कृष्टः (दिवः) सूर्य्यादिप्रकाशात् (नाभिः) मध्यवर्त्तिः (अग्निः) नियन्त्री विद्युदिव (पृथिव्याः) विस्तृताया भूमेः (अथ) अनन्तरे (अभवत्) भवति (अरतिः) स्वव्याप्त्या धर्त्ता (रोदस्योः) प्रकाशाऽप्रकाशयोर्भूमिसूर्ययोः (तम्) उक्तार्थम् (त्वा) त्वाम् (देवासः) विद्वांसः (अजनयन्त) प्रकटयन्ति (देवम्) द्योतकम् (वैश्वानर) सर्वप्रकाशक (ज्योतिः) ज्ञानप्रकाशम् (इत्) एव (आर्याय) उत्तमगुणस्वभावाय ॥ २ ॥
भावार्थः
यो जगदीश्वर आर्य्याणां विज्ञानाय सर्वविद्याप्रकाशकान् वेदान् प्रकाशितवान् यः सर्वतः उत्कृष्टः सर्वाधारो जगदीश्वरोऽस्ति, तं विदित्वा स एव मनुष्यैः सर्वदोपासनीयः ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (वैश्वानर) सब संसार के नायक ! जो आप (अग्निः) बिजुली के समान (दिवः) प्रकाश वा (पृथिव्याः) भूमि के मध्य समान (मूर्द्धा) उत्कृष्ट और (नाभिः) मध्यवर्त्तिव्यापक (अभवत्) होते हो (अथ) इन सब लोकों की रचना के अनन्तर जो (रोदस्योः) प्रकाश और अप्रकाश रूप सूर्यादि और भूमि आदि लोकों के (अरतिः) आप व्यापक होके अध्यक्ष (अभवत्) होते हो, जो (आर्याय) उत्तम गुण, कर्म, स्वभाववाले मनुष्य के लिये (ज्योतिः) ज्ञानप्रकाश वा मूर्त्त द्रव्यों के प्रकाश को (इत्) ही करते हैं, जिस (देवम्) प्रकाशमान (त्वा) आपको (देवासः) विद्वान् लोग (अजनयन्त) प्रकाशित करते हैं वा जिस बिजुलीरूप अग्नि को विद्वान् लोग (अजनयन्त) प्रकट करते हैं (तम्) उस आप ही की उपासना हम लोग करें ॥ २ ॥
भावार्थ
जिस जगदीश्वर ने आर्य अर्थात् उत्तम मनुष्यों के विज्ञान के लिये सब विद्याओं के प्रकाश करनेवाले वेदों को प्रकाशित किया है तथा जो सब से उत्तम सब का आधार जगदीश्वर है, उस को जानकर मनुष्यों को उसी की उपासना करनी चाहिये ॥ २ ॥
विषय
देव को देव का दर्शन [देवो भूत्वा यजेद्देवान्]
पदार्थ
१. (अग्निः) = सब अग्नियों में अग्नित्व की स्थापना करनेवाला महान् अग्नि (दिवः मूर्धा) = द्युलोक की मूर्धा है, सिर की भाँति प्रधान है और (पृथिव्याः) = पृथिवी का (नाभिः) = बन्धन करनेवाला है, पृथिवीस्थ सब प्राणियों को परस्पर सम्बद्ध करनेवाला है । २. (अथ) = इस प्रकार द्युलोक की मूर्धा और पृथिवी की नाभि होता हुआ यह प्रभु (रोदस्योः) = द्यावापृथिवी का (अरतिः) = स्वामी (अभवत्) = हो गया है । ३. हे (वैश्वानर) = सब नरों का हित करनेवाले प्रभो ! (तम्) = उस (देवम्) = द्योतमान प्रकाश के (पुञ्ज त्वा) = तुझे (देवासः) = ज्ञान की ज्योति से दीप्त होनेवाले लोग ही (अजनयन्त) = अपने हृदयों में प्रादुर्भूत करते हैं, अर्थात् देव का साक्षात्कार देव बनकर ही किया जाता है । ४. ये प्रभु (आर्याय) = आर्य के लिए श्रेष्ठ वृत्तिवाले पुरुष के लिए (इत्) = निश्चय से (ज्योतिः) = प्रकाश हैं । आर्य के लिए प्रभु पथ - प्रदर्शक हैं । 'कर्तव्य कर्म को करना, अकर्तव्य को न करना, प्रकरणप्राप्त आचार में स्थित होना' ही आर्यत्व है । ऐसी वृत्तिवाले पुरुष को प्रभु की प्रेरणा सुन पड़ती है । उस प्रेरणा के अनुसार चलता हुआ यह सदा प्रकाश में स्थित होता है, कभी अन्धकार का अनुभव नहीं करता ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं । उस देव का दर्शन देव बनने से ही होता है ।
विषय
अग्नि, वैश्वानर नाम से अग्नि विद्युत् या सूर्य के दृष्टान्त से अग्रणी नायक, सेनापति और राजा के कर्तव्यों और परमेश्वर की महिमा का वर्णन ।
भावार्थ
वह ( अग्निः ) सबका अग्रणी, सबका प्रकाशक परमेश्वर , ( दिवः ) आकाश, और सूर्य आदि तेजस्वी पदार्थों का भी सूर्य के समान ( मूर्धा ) शिर, सबसे मुख्य, सबसे उच्च सबका अधिष्ठाता है। वही ( पृथिव्याः नाभिः ) पृथिवी के भी बीच में केन्द्रवत् अग्नि या विद्युत् के समान उसको धारण करने वाला (अथ) और (रोदस्योः) भूमि और सूर्य, प्रकाशित और अप्रकाशित दोनों प्रकार के लोकों का ( अरतिः ) स्वामी, उनको धारण करने हारा (अभवत्) है । हे (वैश्वानर) समस्त लोकों के चलाने हारे ! (तं) उस (त्वा) तुझ (देवं) सबके दाता और प्रकाशक परमेश्वर को ही (देवासः) विद्वान् ज्ञानी पुरुष (आर्याय) उत्तम गुण स्वभाव वाले पुरुषों के लिये ( ज्योतिः इत् ) सूर्य के समान ज्ञान प्रकाश देने वाला (अजनयन्त) प्रकट करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-७ नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५-७ त्रिष्टुप् । ३ पंक्तिः ।
विषय
फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे वैश्वानर यः भवान् अग्निः इव दिवः पृथिव्या मूर्द्धा नाभिः च अभवत् अथ रोदस्योः अरतिः अभवत् आर्याय इत् ज्योतिः इत् एव यं देवं देवासः अजनयन्त तं त्वा वयम् उपासीमहि ॥२॥
पदार्थ
हे (वैश्वानर) सर्वप्रकाशक= सबके प्रकाशक, (यः)=जो, (भवान्)=आप, (अग्निः) नियन्त्री विद्युदिव=नियंत्रक बिजली के, (इव)=समान, (दिवः) सूर्य्यादिप्रकाशात्= सूर्य आदि के प्रकाश से, (पृथिव्याः) विस्तृताया भूमेः= विस्तृत भूमि में, (मूर्द्धा) उत्कृष्टः= उत्कृष्ट, (च)=और, (नाभिः) मध्यवर्त्तिः= बीच में विद्यमान, (अभवत्)=थे, (अथ) अनन्तरे=बाद में, (रोदस्योः) प्रकाशाऽप्रकाशयोर्भूमिसूर्ययोः=प्रकाशित और अप्रकाशित भूमि और सूर्य, (अरतिः) स्वव्याप्त्या धर्त्ता=अपनी व्याप्ति और धारण करनेवाली, (अभवत्) भवति=होती है, (आर्याय) उत्तमगुणस्वभावाय= उत्तम गुण और स्वभाव के लिये, (इत्) एव=ही, (ज्योतिः) ज्ञानप्रकाशम्= ज्ञान का प्रकाश, (इत्) एव=ही, (यम्)=जिसका, (देवम्) द्योतकम्= प्रकट करनेवाले, (देवासः) विद्वांसः=विद्वान्, (अजनयन्त) प्रकटयन्ति =प्रकट करते हैं, (तम्) उक्तार्थम्=उपरोक्त कहे गये के लिये ही, (त्वा) त्वाम्=तुम्हारी, (वयम्)=हम, (उपासीमहि)= उपासना करते हैं ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जिस जगदीश्वर ने आर्य अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्यों के विशेष ज्ञान के लिये सब विद्याओं के प्रकाश करनेवाले वेदों को प्रकाशित किया है और जो सब से उत्कृष्ट सब का आधार परमेश्वर है, उस को जानकर मनुष्यों को उसी की ही उपासना सर्वदा करनी चाहिये ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (वैश्वानर) सबके प्रकाशक!(यः) जो (भवान्) आप (अग्निः) नियंत्रक बिजली के (इव) समान (दिवः) सूर्य आदि के प्रकाश से,(पृथिव्याः) विस्तृत भूमि में (मूर्द्धा) उत्कृष्ट (च) और (नाभिः) बीच के स्थान में विद्यमान (अभवत्) थे। (अथ) इसके बाद में (रोदस्योः) प्रकाशित और अप्रकाशित भूमि और सूर्य (अरतिः) अपनी व्याप्तिवाले और धारण करनेवाले (अभवत्) थे (आर्याय) उत्तम गुण और स्वभाव के लिये (इत्) ही (ज्योतिः) ज्ञान के प्रकाश से (इत्) ही, (यम्) जिसे (देवम्) प्रकट करनेवाले (देवासः) विद्वान् (अजनयन्त) प्रकट करते हैं। (तम्) उपरोक्त कहे गये के लिये ही [परमेश्वर] (त्वा) तुम्हारी (वयम्) हम (उपासीमहि) उपासना करते हैं ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मूर्द्धा) उत्कृष्टः (दिवः) सूर्य्यादिप्रकाशात् (नाभिः) मध्यवर्त्तिः (अग्निः) नियन्त्री विद्युदिव (पृथिव्याः) विस्तृताया भूमेः (अथ) अनन्तरे (अभवत्) भवति (अरतिः) स्वव्याप्त्या धर्त्ता (रोदस्योः) प्रकाशाऽप्रकाशयोर्भूमिसूर्ययोः (तम्) उक्तार्थम् (त्वा) त्वाम् (देवासः) विद्वांसः (अजनयन्त) प्रकटयन्ति (देवम्) द्योतकम् (वैश्वानर) सर्वप्रकाशक (ज्योतिः) ज्ञानप्रकाशम् (इत्) एव (आर्याय) उत्तमगुणस्वभावाय ॥२॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे वैश्वानर यो भवानग्निरिव दिवः पृथिव्या मूर्द्धा नाभिश्चाभवदथ रोदस्योररतिरभवदार्यायेज्ज्योतिरिदेव यं देवं देवासोऽजनयन्त तन्त्वा वयमुपासीमहि ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यो जगदीश्वर आर्य्याणां विज्ञानाय सर्वविद्याप्रकाशकान् वेदान् प्रकाशितवान् यः सर्वतः उत्कृष्टः सर्वाधारो जगदीश्वरोऽस्ति, तं विदित्वा स एव मनुष्यैः सर्वदोपासनीयः ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या जगदीश्वराने आर्य अर्थात् उत्तम माणसांच्या विज्ञानासाठी सर्व विद्यांचा प्रकाश करणाऱ्या वेदांना प्रकाशित केलेले आहे व जो सर्वात उत्तम सर्वांचा आधार जगदीश्वर आहे. त्याला जाणून माणसांनी त्याचीच उपासना केली पाहिजे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni is the top of heaven and the centre hold of the earth, and it is the ruler of the earths, the skies and the heavens all. Vaishvanara, leading light of the universe, such as you are, the brilliancies of nature such as sun and moon reveal your presence and the nobilities of humanity celebrate you as light of the Word and life of the world for the good and the pious.
Subject of the mantra
Then, how is that God? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vaiśvānara)=illuminator of all, yaḥ) =that, (bhavān)=you, (agniḥ)=of controller lightning, (iva) =like, (divaḥ) =by the light of Sun etc.,(pṛthivyāḥ) =in the vast land, (mūrddhā) =excellent, (ca) =and, (nābhiḥ)=present in the middle place, (abhavat) =were, (atha) =afterwards, (rodasyoḥ)=the lighted and unlighted earth and the Sun, (aratiḥ)=those who pervade and hold their own, (abhavat) =were, (āryāya)=for good qualities and nature, (it) =only, (jyotiḥ)= by the light of knowledge, (it)=only, (yam) =by which, (devam) =revealing, (devāsaḥ) =scholar, (ajanayanta) =reveal, (tam)=for the above mentioned only, [parameśvara]=God, (tvā) =your, (vayam) =we, (upāsīmahi) =worship.
English Translation (K.K.V.)
O illuminator of all! Who, like the controlling lightning, was present in the vast land, in the excellent and middle place, with the light of the Sun et cetera. Afterwards, the lighted and unlighted earth and the Sun were pervading and sustaining. It is only through the light of knowledge that the scholars reveal the best qualities and nature. We worship God only for the above mentioned reason.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The god who has revealed the Vedas which manifest all the knowledge for the special knowledge of the Aryans i.e. the best human beings and who is the Supreme God who is the basis of all the best, knowing Him, humans should always worship Him only.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni (God) is taught further in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Illuminator of all, Thou art Superior to the earth and the heaven like the fire or electricity. Thou art the canter. Thou art the Upholder of the heaven and the earth by Thy pervasion and their Lord. Thou art the Giver of Light of Knowledge (in the form of the Vedas) to all righteous persons. Wise learned men manifest Thee. May we also always adore Thee.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[मूर्द्धा] उत्कृष्टः = Exalted, Superior. [अरतिः ] स्वव्याप्त्या धर्ता = Upholder by His pervasiveness. [आर्याय] उत्तमगुणकार्यस्वभावाय = For a man of noble character and conduct.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know and adore the lord who has revealed the Vedas-repositories of all sciences for giving that perfect knowledge to noble persons, who is the most exalted and the Support of all.
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