Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 59 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 59/ मन्त्र 7
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - अग्निर्वैश्वानरः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वै॒श्वा॒न॒रो म॑हि॒म्ना वि॒श्वकृ॑ष्टिर्भ॒रद्वा॑जेषु यज॒तो वि॒भावा॑। शा॒त॒व॒ने॒ये श॒तिनी॑भिर॒ग्निः पु॑रुणी॒थे ज॑रते सू॒नृता॑वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒रः । म॒हि॒म्ना । वि॒श्वऽकृ॑ष्टिः । भ॒रत्ऽवा॑जेषु । य॒ज॒तः । वि॒भाऽवा॑ । शा॒त॒ऽव॒ने॒ये । श॒तिनी॑भिः । अ॒ग्निः । पु॒रु॒ऽनी॒थे । ज॒र॒ते॒ । सू॒नृता॑ऽवान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरो महिम्ना विश्वकृष्टिर्भरद्वाजेषु यजतो विभावा। शातवनेये शतिनीभिरग्निः पुरुणीथे जरते सूनृतावान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानरः। महिम्ना। विश्वऽकृष्टिः। भरत्ऽवाजेषु। यजतः। विभाऽवा। शातऽवनेये। शतिनीभिः। अग्निः। पुरुऽनीथे। जरते। सूनृताऽवान् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 59; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    यो विश्वकृष्टीरुत्पादितवान् यजतो विभावा सूनृतावान् वैश्वानरोऽग्निः सर्वद्योतकः परमात्मा स्वमहिम्ना भरद्वाजेषु शतिनीभिः सह वर्त्तमानः सन् पुरुनीथे शातवनेये वर्तते तं यो जरतेऽर्चति स सत्कारं प्राप्नोति ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (वैश्वानरः) सर्वनेता (महिम्ना) स्वप्रभावेण (विश्वकृष्टिः) विश्वाः सर्वाः कृष्टीर्मनुष्यादिकाः प्रजाः (भरद्वाजेषु) ये भरन्ति ते भरतः। वज्यन्ते ज्ञायन्ते यैस्ते वाजा भरतश्च ते वाजाश्च तेषु पृथिव्यादिषु। भरणाद्भारद्वाजः। (निरु०३.१७) (यजतः) यष्टुं सङ्गन्तुमर्हः (विभावा) यो विशेषेण भाति प्रकाशयति सः (शातवनेये) शतान्यसंख्यातानि वनयः सम्भक्तयो येषान्ते शतवनयस्तैर्निर्वृत्ते जगति (शतिनीभिः) शतसंख्याताः प्रशस्ता गतयो यासु क्रियासु ताभिः सह वर्त्तमानः (अग्निः) सूर्य्य इव स्वप्रकाशः (पुरुणीथे) यत्पुरुभिर्बहुभिः प्राणिभिः पदार्थैर्वा नीयते तस्मिन् (जरते) सत्करोति। जरत इत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। (निघं०३.१४) (सूनृतावान्) सूनृता अन्नादीनि प्रशस्तानि विद्यन्ते यस्मिन् सः ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    यो संख्यातेषु पदार्थेष्वसंख्यातक्रियाहेतुर्विद्युदिवेश्वरो वर्तते, स एव सर्वं जगद्धरति यो मनुष्यस्तद्विद्यां जानाति स सततं महीयते ॥ ७ ॥अत्र वैश्वानरशब्दार्थवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    जो (विश्वकृष्टीः) सबका उत्पन्नकर्त्ता (यजतः) पूजन के योग्य (विभावा) विशेष करके प्रकाशमान (सूनृतावान्) प्रशंसनीय अन्नादि का आधार (वैश्वानरः) सबको प्राप्त करानेवाला (अग्निः) सूर्य्य के समान जगदीश्वर अपने जगद्रूप (महिम्ना) महिमा के साथ (भरद्वाजेषु) धारण करने वा जानने योग्य पृथिवी आदि पदार्थों में (शतिनीभिः) असंख्यात गतियुक्त क्रियाओं से सहित (पुरुणीथे) बहुत प्राणियों में प्राप्त (शातवनेये) असंख्यात विभागयुक्त क्रियाओं से सिद्ध हुए संसार में वर्त्तता है, उसका जो मनुष्य (जरते) अर्चन पूजन करता है, वह निरन्तर सत्कार को प्राप्त होता है ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    जो असख्यात पदार्थों में असंख्यात क्रियाओं का हेतु बिजुलीरूप अग्नि के समान ईश्वर है, वही सब जगत् को धारण करता है, उसका पूजन जो मनुष्य करता है, वह सदा महिमा को प्राप्त होता है ॥ ७ ॥ इस सूक्त में वैश्वानर शब्दार्थ वर्णन से इसके अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शातवनेय के १०० यज्ञ

    पदार्थ

    १. (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों का नेतृत्व व पथ - प्रदर्शन करनेवाला (महिम्ना) = अपनी महिमा से (विश्वकृष्टिः) = [विश्वे कृष्टयो यस्य] सब मनुष्यों के परिवारवाला अथवा संसार का निर्माण करनेवाला (भरद्वाजेषु) = अपने में शक्ति का भरण करनेवालों में (यजतः) = यष्टव्य, संगतिकरण - योग्य, अर्थात् सशक्त पुरुषों में वास करनेवाला, (विभावा) = विशिष्ट दीप्तिवाला वह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (सूनृतावान्) = प्रिय - सत्यात्मिका वेदवाणीवाले हैं, हृदयस्थरूपेण सदा प्रिय सत्यवाणी से प्रेरणा प्राप्त कराते रहते हैं । २. ये प्रभु (शातवनेये) = [शातं क्रतून् वनति सम्भजति] सौ - के - सौ वर्ष यज्ञों का सेवन करनेवाले अथवा शत - संख्याक यज्ञों को करनेवाले (पुरुणीथे) = पालक और पूरक है नेतृत्व जिसका ऐसे पुरुष में (शतिनीभिः) = शत वर्ष - पर्यन्त चलनेवाली क्रियाओं से (जरते) = स्तुत होता है, अर्थात् सौ - के - सौ वर्ष क्रियामय जीवन बिताते हुए ये पुरुष उस प्रभु का स्तवन करते है इनका तो जीवन ही क्रियामय हो जाता है और क्रिया के द्वारा ही प्रभु का आराधन होता है, 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सौ वर्ष के दीर्घ जीवन को 'शातवनेय' का जीवन बनाएँ । हमारे ये सौ यज्ञ ही प्रभु का आराधन हो जाएँ ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि वे प्रभु अग्नियों के अग्नि हैं [१] । उस देव का दर्शन देव बनकर ही हो सकता है [२] । वे प्रभु सच्चे वसुमान् हैं [३] । उस सत्यशुष्म देव का ही हमारी वाणियाँ स्तवन करें [४] । हम सात्त्विक युद्ध के द्वारा ही देवीसम्पत्ति को प्राप्त करते हैं [५] । प्रभुकृपा से हमारे काम - क्रोध व लोभ का निवारण होता है [६] और हम 'शातवनेय' बनकर शतयज्ञमय जीवन से प्रभु का आराधन करें [७] । आराधन का स्वरूप अगले मन्त्र में कहते हैं -

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अग्नि, वैश्वानर नाम से अग्नि विद्युत् या सूर्य के दृष्टान्त से अग्रणी नायक, सेनापति और राजा के कर्तव्यों और परमेश्वर की महिमा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( १ ) परमेश्वर या राजा अपने ( महिम्ना ) महान् सामर्थ्य से (वैश्वानरः) सब मनुष्यों का हितकारी, सब का नेता, संचालक और (विश्वकृष्टिः) समस्त मनुष्यादि प्रजाओं का स्वामी ( भरद्वाजेषु ) भरणपोषण करने वाले और ज्ञानोपदेश करनेवाले, सम्पन्न और विद्वान् पुरुषों में भी ( यजतः ) सबका उपास्य, सबको दान देने वाला और (विभावा) विशेष कान्ति, दीप्ति से युक्त, तेजस्वी है । वह (शतिनीभिः) सैकड़ों उत्तम कार्योंवाली शक्तियों सहित (अग्निः) ज्ञानवान् अग्रणी ( सूनृतावान्) शुभ सत्यवाणी, तथा ज्ञान और अन्न सम्पदा से सम्पन्न होकर ( पुरुनीथे ) बहुतसे सहायकों से चलाये जाने योग्य (शातवनेये) सैकड़ों ऐश्वर्यों के स्वामियों से पूर्ण राष्ट्र और जगत् में (जरते) वही स्तुति किया जाता है । राजा के पक्ष में—समस्त प्रजाओं का स्वामी ( पुरुनीथे ) बहुतों से संचालन योग्य, (शातवनेये) सैकड़ों सम्भोग्य ऐश्वर्यों के स्वामियों से युक्त अथवा सैकड़ों वनि अर्थात् भूति, वेतनादि से बद्ध भृत्यों से संचालित राज्य में ( शतिनीभिः ) सैकड़ों पुरुषों वाली सेनाओं से युक्त (अग्निः) अग्रणी सेनापति भी (सूनृतावान्) सत्यवाणी और उत्तम आज्ञावाला होकर (जरते) स्तुति के योग्य होता है । अथवा—(अग्निः) विद्वान् पुरुष (शातवनेये) शतऋतु के भोक्ता, शतवर्ष आयुवाले, चिरजीवी जनसमाज में भी ( सूनृतावान् जरते) उत्तम वेदवाणी से युक्त विद्वान् होकर उपदेश करता है वह और स्तुति योग्य होता है। इति पञ्चविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-७ नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५-७ त्रिष्टुप् । ३ पंक्तिः ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर इस मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः विश्वकृष्टीः उत्पादितवान् यजतः विभावा सूनृतावान् वैश्वानरःअग्निः सर्वद्योतकः परमात्मा स्व महिम्ना भरद्वाजेषु शतिनीभिः सह वर्त्तमानः सन् पुरुनीथे शातवनेये वर्तते तं यः जरते अर्चति स सत्कारं प्राप्नोति ॥७॥

    पदार्थ

    (यः)=जिसने, (विश्वकृष्टिः) विश्वाः सर्वाः कृष्टीर्मनुष्यादिकाः प्रजाः=समस्त विद्वान् मनुष्य आदि लोगों को, (उत्पादितवान्)=पैदा किया है, (यजतः) यष्टुं सङ्गन्तुमर्हः=यज्ञ में संगति करने योग्य, (विभावा) यो विशेषेण भाति प्रकाशयति सः=जो विशेष रूप से प्रकाशित करता है, (सूनृतावान्) सूनृता अन्नादीनि प्रशस्तानि विद्यन्ते यस्मिन् सः= प्रशस्त रूप से हर्ष और अन्न वाला, (वैश्वानरः) सर्वनेता=सबका नेता, (अग्निः) सूर्य्य इव स्वप्रकाशः=सूर्य के समान स्वयं प्रकाशित, (सर्वद्योतकः)=सबको प्रकाशित करनेवाला, (परमात्मा)= परमात्मा, (स्व)=अपने, (महिम्ना) स्वप्रभावेण=प्रभाव से, (भरद्वाजेषु) ये भरन्ति ते भरतः। वज्यन्ते ज्ञायन्ते यैस्ते वाजा भरतश्च ते वाजाश्च तेषु पृथिव्यादिषु=भरण-पोषण करनेवाले और पृथिवी में अन्न आदि, (शतिनीभिः) शतसंख्याताः प्रशस्ता गतयो यासु क्रियासु ताभिः सह= सैकड़ों की संख्या में गति और क्रियाओं के साथ, (वर्त्तमानः)= वर्त्तमान, (सन्)=होते हुए, (पुरुणीथे) यत्पुरुभिर्बहुभिः प्राणिभिः पदार्थैर्वा नीयते तस्मिन्=जो बहुत प्राणियों और पदार्थों को ले जानेवाला, (शातवनेये) शतान्यसंख्यातानि वनयः सम्भक्तयो येषान्ते शतवनयस्तैर्निर्वृत्ते जगति=जिसमें सैकड़ों या असंख्य इच्छायें बंटी हुई हैं, उन सैकड़ों इच्छाओं की संसार में निवृत्ति, (वर्तते)=होती है, (तम्)=उसका, (यः) =जो, (जरते) सत्करोति=सत्कार करता है, (अर्चति)=स्तुति करता है, (सः)= वह, (सत्कारम्)=सत्कार, (प्राप्नोति)=प्राप्त करता है॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो संख्यात पदार्थों में और असंख्यात क्रियाओं का हेतु बिजली रूप ईश्वर है, वही सब जगत् को धारण करता है, जो मनुष्य उसको विद्या से जानता है, वह सदा महिमा को प्राप्त होता है ॥७॥

    विशेष

    महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ‘वैश्वानर’ शब्द के अर्थ के वर्णन से इसके अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जिसने (विश्वकृष्टिः) समस्त विद्वान् मनुष्य आदि लोगों को (उत्पादितवान्) पैदा किया है। (यजतः) यज्ञ में संगति करने योग्य (विभावा) जो विशेष रूप से प्रकाशित करता है, (सूनृतावान्) प्रशस्त रूप से हर्ष और अन्न वाला है, (वैश्वानरः) सबका नेता है, (अग्निः) सूर्य के समान स्वयं प्रकाशित है और (सर्वद्योतकः) सबको प्रकाशित करनेवाला है। [वह] (परमात्मा) परमात्मा (स्व) अपने (महिम्ना) प्रभाव से (भरद्वाजेषु) भरण-पोषण करनेवाला और पृथिवी में अन्न [आदि देनेवाला है]। (शतिनीभिः) सैकड़ों की संख्या में गति और क्रियाओं के साथ (वर्त्तमानः) वर्त्तमान (सन्) होते हुए (पुरुणीथे) जो बहुत प्राणियों और पदार्थों को ले जानेवाला है, (शातवनेये) जिसमें सैकड़ों या असंख्य इच्छायें बंटी हुई हैं, उन सैकड़ों इच्छाओं की संसार से निवृत्ति (वर्तते) होती है, (तम्) उसका (यः) जो (जरते) सत्कार करता है और (अर्चति) स्तुति करता है, (सः) वह (सत्कारम्) सत्कार (प्राप्नोति) प्राप्त करता है॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वैश्वानरः) सर्वनेता (महिम्ना) स्वप्रभावेण (विश्वकृष्टिः) विश्वाः सर्वाः कृष्टीर्मनुष्यादिकाः प्रजाः (भरद्वाजेषु) ये भरन्ति ते भरतः। वज्यन्ते ज्ञायन्ते यैस्ते वाजा भरतश्च ते वाजाश्च तेषु पृथिव्यादिषु। भरणाद्भारद्वाजः। (निरु०३.१७) (यजतः) यष्टुं सङ्गन्तुमर्हः (विभावा) यो विशेषेण भाति प्रकाशयति सः (शातवनेये) शतान्यसंख्यातानि वनयः सम्भक्तयो येषान्ते शतवनयस्तैर्निर्वृत्ते जगति (शतिनीभिः) शतसंख्याताः प्रशस्ता गतयो यासु क्रियासु ताभिः सह वर्त्तमानः (अग्निः) सूर्य्य इव स्वप्रकाशः (पुरुणीथे) यत्पुरुभिर्बहुभिः प्राणिभिः पदार्थैर्वा नीयते तस्मिन् (जरते) सत्करोति। जरत इत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। (निघं०३.१४) (सूनृतावान्) सूनृता अन्नादीनि प्रशस्तानि विद्यन्ते यस्मिन् सः ॥७॥ विषयः- पुनरीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- यो विश्वकृष्टीरुत्पादितवान् यजतो विभावा सूनृतावान् वैश्वानरोऽग्निः सर्वद्योतकः परमात्मा स्वमहिम्ना भरद्वाजेषु शतिनीभिः सह वर्त्तमानः सन् पुरुनीथे शातवनेये वर्तते तं यो जरतेऽर्चति स सत्कारं प्राप्नोति ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यो संख्यातेषु पदार्थेष्वसंख्यातक्रियाहेतुर्विद्युदिवेश्वरो वर्तते, स एव सर्वं जगद्धरति यो मनुष्यस्तद्विद्यां जानाति स सततं महीयते॥७॥ सूक्तस्य भावार्थः- अत्र वैश्वानरशब्दार्थवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    असंख्य पदार्थांमध्ये असंख्य क्रियांचा हेतू असलेल्या विद्युतरूपी अग्नीप्रमाणे ईश्वर असतो, तोच सर्व जगाचे धारण करतो. जो माणूस त्याची पूजा करतो त्याचा महिमा सदैव वाढतो. ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Vaishvanara, lord pervasive and leader of the world of existence, is the lord of world humanity by virtue of His might and grandeur. Among the sources of life sustenance such as earth and showers of rain, He is the light and glory of the man of yajna. Lord of the reality of existence and the word of truth, in the world of hundredfold splendour, Agni is praised and worshipped in a hundred manners in choric songs by the celebrants.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then in this mantra the virtues of God have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ) =Who, (viśvakṛṣṭiḥ) =to all learned people etc., (utpāditavān) =has created, (yajataḥ)=worthy of companionship in the yajna, (vibhāvā) which specifically illuminates, (sūnṛtāvān) =is full of enjoyment and food, (vaiśvānaraḥ) =is leader to all, (agniḥ)=shines like the sun itself and, (sarvadyotakaḥ) =the one who illuminates all, [vaha]=that, (paramātmā) =God, (sva) =own, (mahimnā) =by the influence, (bharadvājeṣu)= sustainer and food on earth, [ādi denevālā hai]=provider of things etc., (śatinībhiḥ)=with hundreds of movements and actions, (varttamānaḥ) =present, (san)=being, (puruṇīthe) =which is going to carry many living beings and things, (śātavaneye) In which hundreds or innumerable desires are divided, the completion of those hundreds of desires from the world, (vartate) =happens, (tam) =of that, (yaḥ) =which,(jarate)=welcomes and, (arcati)=praises, (saḥ) =He, (satkāram) =respect, (prāpnoti)=receives.

    English Translation (K.K.V.)

    The one, who has created all the learned people et cetera. The one, who is especially illuminating, worthy of companionship in the yajna, full of joy and food, the leader of all, self-effulgent like the Sun and the one who illuminates all. That God is the one who nourishes and provides food etc. to the earth through his influence. He who honours and praises the One who is present with hundreds of movements and activities and who carries many beings and things, in whom hundreds or innumerable desires are divided, those hundreds of desires get completed from the world, He receives respect.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The one who is God in the form of electricity, who is the cause of innumerable things and actions, is the one who sustains the entire world, the person who knows Him through knowledge always attains glory. Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- From the description of the interpretation of the word ‘vaiśvānara’ in this hymn, it should be known that its interpretation is consistent with the interpretation of the previous hymn.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    He who worships or glorifies God-Creator of all men, most Adorable Unifier and Leader of all, Illuminator of all by His Greatness, who is present in earth and other worlds which uphold all beings and are to be known, consisting of innumerable objects and along with numberless admirable processes. He is the Lord of good corns and other articles, in whom all take their shelter.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( भरद्वाजेषु ) ये भरन्ति ते भरताः । वज्यन्ते ज्ञायन्ते ये ते वाजा: । भरतश्च ते वाजाश्च तेषु पृथिव्यादिषु भरणाद् भरद्वाज: (निघ० ३.१७) = The earth and other worlds which uphold many beings and which are to be known. ( शातवनये ) शतानि असंख्यातानि वनयः संभक्तयः येषां ते शतवनयः तैर्निवृते जगति = In the world consisting of hundred of substances. (जरते) सत्करोति जरत इत्यर्चतिकर्मा (निघ० ३.१४) (सूनृतानाम्) सूनृता अन्नादीनि प्रशस्यानि यस्मिन् सः = He who is the Master of food materials, सूनृता इत्यन्ननाम [निघ० २.७]

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God who is present like electricity in innumerable substances and is the cause of numberless acts and movements, upholds the entire world. He who knows the Science of God, is worshipped of respected by all.

    Translator's Notes

    In this hymn God and His devotees have been mentioned as Vaishwanara, so it has connection with the previous hymn. Here ends the commentary on the fifty-ninth hymn of the 1st Mandala of the Rigveda Sanhita.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top