ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 67/ मन्त्र 10
चित्ति॑र॒पां दमे॑ वि॒श्वायुः॒ सद्मे॑व॒ धीराः॑ सं॒माय॑ चक्रुः ॥
स्वर सहित पद पाठचित्तिः॑ । अ॒पाम् । दमे॑ । वि॒श्वऽआ॑युः । सद्म॑ऽइव । धीराः॑ । स॒म्ऽमाय॑ । च॒क्रुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्तिरपां दमे विश्वायुः सद्मेव धीराः संमाय चक्रुः ॥
स्वर रहित पद पाठचित्तिः। अपाम्। दमे। विश्वऽआयुः। सद्मऽइव। धीराः। सम्ऽमाय। चक्रुः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 67; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 10
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 10
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरविद्युद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! धीराः यूयं संमाय सद्मेव यं लाभं चक्रुः। तथा यो महित्वा वीरुत्सु प्रज्ञा दाधार विरोधत् प्रसूष्वन्तर्वर्त्तते। य उतापि विश्वायुश्चितिर्दमेऽपां मध्ये प्रजा दधाति तं सुसेवध्वम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(वि) विशेषार्थे (यः) जगदीश्वरो विद्युद्वा (वीरुत्सु) सत्तारचनाविशेषेण निरुद्धेषु कार्य्यकारणद्रव्येषु। वीरुध इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३) (रोधत्) निरुणद्धि स्वीकरोति (महित्वा) सत्कृत्य (उत) अपि (प्रजाः) समुत्पन्नाः (उत) अपि (प्रसूषु) येभ्यो ये वा प्रसूयन्ते तेषु (अन्तः) मध्ये (चित्तिः) सम्यङ् ज्ञाता ज्ञापको वा (अपाम्) प्राणानां जलानां वा (इमे) उपशमे गृहीते गृहे वा (विश्वायुः) विश्वमायुर्यस्य सः (सद्मेव) गृहमिव संग्राममिव वा। सद्मेति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (धीराः) ज्ञानवन्तो विद्वांसः (संमाय) सम्यङ् मानं कृत्वा (चक्रुः) कुर्वन्ति ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्योऽन्तर्य्यामिरूपेण रूपवेगादिगुणवत्त्वेन वा प्रजासु व्याप्य संनियच्छति तमेव जगदीश्वरमुपास्य कार्य्येषु विद्युतं संप्रयोज्य यथा विद्वांसो गृहे स्थित्वा संग्रामे शत्रून् विजित्य सुखयन्ति तथैव सुखयितव्यम् ॥ ५ ॥ अत्रेश्वरसभाध्यक्षविद्युद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अगले मन्त्र में ईश्वर और विद्युत् अग्नि के गुणों का वर्णन किया है ॥
पदार्थ
हे (धीराः) ज्ञानवाले विद्वान् मनुष्यो ! (संमाय) अच्छे प्रकार मान कर (सद्मेव) जैसे घर वा संग्राम के लिये जिस लाभ को (चक्रुः) करते हो, वैसे (यः) जो जगदीश्वर वा बिजुली (महित्वा) सत्कार करके (वीरुत्सु) रचना विशेष से निरोध प्राप्त हुए कारण-कार्य द्रव्यों में (प्रजाः) प्रजा (विरोधत्) विशेष कर के आवरण करता है, जो (उत) (प्रसूषु) उत्पन्न होनेवालों में भी (अन्तः) मध्य में वर्त्तमान है, जो (उत) (विश्वायुः) पूर्ण आयुयुक्त भी (चित्तिः) अच्छे प्रकार जाननेवाला (दमे) शान्तियुक्त घर तथा (अपाम्) प्राण वा जलों के मध्य में प्रजा को धारण करता है, उसकी सेवा अच्छे प्रकार करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि जो अन्तर्यामीरूप तथा रूप वेगादि गुणों से प्रजा में नियत (संयमन) करता है, उसी जगदीश्वर की उपासना और विद्युत् अग्नि को अपने कार्यों में संयुक्त करके जैसे विद्वान् लोग घर में स्थित हुए संग्राम में शत्रुओं को जीत कर सुखी करते हैं, वैसे सुखी करे ॥ ५ ॥ इस सूक्त में ईश्वर, सभाध्यक्ष और विद्युत्, अग्नि के गुणों का वर्णन होने से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
प्रभुरूप गृह में
पदार्थ
१. (यः) = जो प्रभु (वीरुत्सु) = इन प्रतानिनी [फैलनेवाली] लताओं में (महित्वा) = अपनी महिमा से (विरोधत्) = विविध पुष्पादिकों को उत्पन्न करते हैं (उत) = और (प्रजाः) = इन फलों को उत्पन्न करते हैं, (उत) = तथा (प्रसुषु अन्तः) = माताओं में - मातृगर्भों में (प्रजाः) = सन्तानों को प्रकट करते हैं । २. जो प्रभु (अपाम्) = [आपो नारा इति प्रोक्ताः] प्रजाओं के लिए (चित्तिः) = ज्ञान देनेवाले हैं । सर्गारम्भ में प्रभु ही तो ज्ञान देनेवाले हैं - “स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्” पा०यो०सू० १/२६ ३. वे प्रभु (दमे) = दमन के होने पर (विश्वायुः) = पूर्णायु देनेवाले हैं । प्रभु ने शरीर में वीर्य आदि धातुओं की उत्पत्ति की ऐसी सुव्यवस्था की है कि यदि मनुष्य संयम द्वारा इनका अपव्यय न होने दे तो शरीर पूरी सौ वर्ष की आयु तक चलता है । ४. इस प्रभु को (धीराः) = ज्ञानी पुरुष (सद्म इव संमाय) = घर - सा बनाकर, अर्थात् प्रभु को ही जीवन का आधार बनाकर (चक्रुः) = जीवन के कार्यों को करते हैं । प्रभुरूप गृह में रहते हुए उन्हें किसी प्रकार की व्याकुलता नहीं होती । विघ्नों से न घबराते हुए ये उत्साह से अपने कार्यों में लगे रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की महिमा लताओं पर विकसित होनेवाले पुष्पों व फलों में दिखती है, यही महिमा मातृगर्भ में विकसित होनेवाली सन्तान में प्रकट होती है । ये प्रभु ही ज्ञान देनेवाले हैं । वे संयमी को पूर्णायु प्राप्त कराते हैं । धीर पुरुष प्रभु को ही घर बनाकर कार्यों में लगे रहते
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त के प्रारम्भ में प्रभु को हव्यवाट् कहा है [१] । उस प्रभु का ही हमें ज्ञानपूर्वक स्तवन करना चाहिए [२] । प्रभु ही ब्रह्माण्ड के धारक हैं [३] । हमें इस प्रभु को जानने का प्रयत्न करना चाहिए [४] । प्रभु को ही घर बनाकर, ब्रह्मस्थ होकर कार्यों में लगे रहना चाहिए [५] । अपने को परिपक्व करनेवाला प्रभु का ही उपासन करता है - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
विषय (भाषा)- अब इस मन्त्र में ईश्वर और विद्युत् अग्नि के गुणों का वर्णन किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः धीराः यूयं संमाय सद्मेव यं लाभं चक्रुः। तथा यः महित्वा वीरुत्सु प्रज्ञा दाधार वि रोधत् प्रसूषु अन्तः वर्त्तते। य उत अपि विश्वायुः चितिः दमे अपां {इमे} मध्ये प्रजा दधाति तं सुसेवध्वम् ॥५॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)=मनुष्यों! (धीराः) ज्ञानवन्तो विद्वांसः=ज्ञानवान् विद्वान्, (यूयम्)=तुम सब, (संमाय) सम्यङ् मानं कृत्वा= अच्छे प्रकार से मान करके, (सद्मेव) गृहमिव संग्राममिव वा=घर या संग्राम के समान, (यम्)= जिसे, (लाभम्)= प्राप्त, (चक्रुः) कुर्वन्ति= करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (यः) जगदीश्वरो विद्युद्वा=परमेश्वर या विद्युत्, (महित्वा) सत्कृत्य= आदरपूर्वक व्यवहार करके, (वीरुत्सु) सत्तारचनाविशेषेण निरुद्धेषु कार्य्यकारणद्रव्येषु= अस्तित्व में लाने हेतु विशेष रचना से और पदार्थों के कार्य कारण के नियंत्रण में, (प्रज्ञा)= प्रज्ञा को, (दाधार)= धारण करता है, (वि) विशेषार्थे =विशेष रूप से, (रोधत्) निरुणद्धि स्वीकरोति =सीमित करते हुए स्वीकार करता है, (प्रसूषु) येभ्यो ये वा प्रसूयन्ते तेषु=जिनके लिये या जो उत्पन्न किये जाते हैं, उनके, (अन्तः) मध्ये=अन्दर, (वर्त्तते)=रहता है, (यः)=जो, (उत) अपि=भी, (विश्वायुः) विश्वमायुर्यस्य सः= समस्त आयुवाला है, (चित्तिः) सम्यङ् ज्ञाता ज्ञापको वा=अच्छी तरह से जाननेवाला और जनानेवाला है, (दमे)=दमन करने में, (अपाम्) प्राणानां जलानां वा= प्राणों में या जलों में, {इमे} उपशमे गृहीते गृहे वा=शांति प्राप्त किये जाने में या घर के, (मध्ये)=अन्दर, (प्रजाः) समुत्पन्नाः=अच्छी तरह से उत्पन्न करके, (दधाति)=धारण करता है, (तम्)=उसकी, (सुसेवध्वम्) =अच्छे प्रकार से सेवा कीजिये॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों के द्वारा अन्तर्यामी रूप से और रूप वेग आदि गुणों से अथवा प्रजा में व्याप्त होकर जो संयमन करता है, उसी जगदीश्वर की उपासना करके कार्यों में विद्युत् को अच्छे प्रकार प्रयोग करना चाहिए। जैसे विद्वान् लोग घर में स्थित होकर और संग्राम में शत्रुओं को जीत कर सुखी होते हैं, वैसे सुखी होना चाहिए ॥५॥
विशेष
महर्षिकृत सूक्तार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ईश्वर, सभाध्यक्ष और विद्युत्, अग्नि के गुणों का वर्णन होने से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों! (धीराः) ज्ञानवान् विद्वान्, (यूयम्) तुम सब (संमाय) अच्छे प्रकार से मान करके (सद्मेव) घर या संग्राम के समान (यम्) जिसे, (लाभम्) प्राप्त (चक्रुः) करते हैं, (तथा) वैसे ही (यः) परमेश्वर या विद्युत् (महित्वा) आदरपूर्वक व्यवहार करके, (वीरुत्सु) अस्तित्व में लाने हेतु विशेष रचना से और पदार्थों के कार्य कारण के नियंत्रण में, (प्रज्ञा) प्रज्ञा को (दाधार) धारण करता है। (वि) विशेष रूप से (रोधत्) सीमित करते हुए स्वीकार करता है। (प्रसूषु) जिनके लिये या जो उत्पन्न किये जाते हैं, उनके (अन्तः) अन्दर (वर्त्तते) रहता है। (यः) जो (उत) भी (विश्वायुः) समस्त आयुवाला है, और, (चित्तिः) अच्छी तरह से जाननेवाला और जनानेवाला है, (दमे) दमन करने में, (अपाम्) प्राणों में या जलों में, {इमे} शांति प्राप्त किये जाने में या घर के (मध्ये) अन्दर (प्रजाः) अच्छी तरह से उत्पन्न करके (दधाति) धारण करता है, (तम्) उसकी (सुसेवध्वम्) अच्छे प्रकार से सेवा कीजिये॥५॥
संस्कृत भाग
स्वर सहित पद पाठ वि । यः । वी॒रुत्ऽसु॑ । रोध॑त् । म॒हि॒ऽत्वा । उ॒त । प्र॒ऽजाः । उ॒त । प्र॒ऽसूषु॑ । अ॒न्तरिति॑ ॥ चित्तिः॑ । अ॒पाम् । दमे॑ । वि॒श्वऽआ॑युः । सद्म॑ऽइव । धीराः॑ । स॒म्ऽमाय॑ । च॒क्रुः॒ ॥ विषयः- अथेश्वरविद्युद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्योऽन्तर्य्यामिरूपेण रूपवेगादिगुणवत्त्वेन वा प्रजासु व्याप्य संनियच्छति तमेव जगदीश्वरमुपास्य कार्य्येषु विद्युतं संप्रयोज्य यथा विद्वांसो गृहे स्थित्वा संग्रामे शत्रून् विजित्य सुखयन्ति तथैव सुखयितव्यम् ॥५॥ । सूक्तार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रेश्वरसभाध्यक्षविद्युद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥५॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, that universal spirit and energy of life which manifests in form and measure in the shoots that come forth in the herbs and trees and in the child in the womb of the mother, that superconsciousness, the realised souls experience when they have collected their consciousness as if behind closed doors, when even the motion of their pranas has been stilled.$(The energy of life which is the heat, vitality and glow of health in life forms, which is universally active, the scientists and yogis realise in a state of total concentration.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the attributes of God and electricity are thaught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) O men, you should adore that God well whom wise men attain as their Home (Refuge) having shown Him the highest reverence, who upholds all His subjects well according to the Law of cause and effect and whose glory is manifest in the herbs, creepers and plants etc. prevading them all, He is Omniscient and Giver of life to all to be known through the practice of Pranayama or Breath Control. (2) You should know well the properties of electricity which is present inside the herbs, plants and waters etc. and which is known by great scientists and utilised by them for various beneficial purposes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वीरुत्सु) सत्तारचनाविशेषेण विरुद्वेषु कार्यकारणद्रव्येषु, वोरुध इति पदनाम (निघ० ४.३ ) = In various objects regulated by the law of cause and effect-creepers, plants etc. (सद्म) गृहं संग्रामो वा सद्मेति संग्रामनाम (निघo २.१७ ) (सझेति गृहनाम निघ० ३.४ ) (1) Home, (2) Battle.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Shleshalankara or double entendre used in the Mantra. Men should enjoy happiness by adoring God who is the Antaryami or Indwelling Universal Spirit pervading and controlling all His subjects and they should utilise electricity in various works. They should get delight as learned people do when sitting at home or as brave persons after defeating their enemies in the battlefields.
Translator's Notes
This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of God, President of the Assembly and Electricity as in that hymn. Here ends the commentary on the Sixty-seventh hymn of the first Mandala of the Rigveda and the eleventh Varga.
Subject of the mantra
Now in this mantra the qualities of God and electric fire have been described.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (dhīrāḥ)= to the learned scholar, (yūyam) =all of you, (saṃmāya)= by considering well, (sadmeva)= like in a house or a battle, (yam) =to which, (lābham) =obtain, (cakruḥ) =do, (tathā) =similarly, (yaḥ) =God or electricity, (mahitvā)=By behaving respectfully, (vīrutsu) =To bring into existence by special creation and under the control of the cause and effect of substances, (prajñā) =to wisdom, (dādhāra) =possesses, (vi) =specially, (rodhat)=accepts while limiting, (prasūṣu)= those for whom or those who are created, (antaḥ) =within, (varttate) =lives, (yaḥ) =that, (uta) =also, (viśvāyuḥ)= is of all ages and, (cittiḥ)=He is well-knowing and enlightening, (dame) =in possessing, (apām) =in life breaths or in waters, {ime}= in attaining peace or in home (madhye) =inside, (prajāḥ) by creating well, (dadhāti) =possesses, (tam) =his, (susevadhvam) =serve him well.
English Translation (K.K.V.)
O humans! Like in a house or a battle, you all receive a knowledgeable scholar by considering well, in the same way, God or electricity, by treating him with respect, by special creation to bring into existence and under the control of the cause and effect of things, possesses intelligence. Accepts while specifically limiting. Lives within those for whom or those who are created. Whoever is of all ages and who knows well and who gives birth, whether in suppressing, in life-breaths or in waters, in attaining peace or in creating and sustaining well inside the house, serve Him well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There are paronomasia and simile as a figurative in this mantra at two places. One should use electricity in a good way by worshiping the same god who controls the human beings internally and through qualities like form, speed etc. or by pervading among the people. Just as learned people are happy by staying at home and conquering their enemies in battle, one should be happy in the same way.
TRANSLATOR’S NOTES-
Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- Before describing the qualities of God, President of the Assembly, electricity and fire in this hymn, one should know the compatibility of the interpretation of this hymn with the interpretation of the previous hymn.
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