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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 67/ मन्त्र 7
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा विराट् स्वरः - पञ्चमः

    य ईं॑ चि॒केत॒ गुहा॒ भव॑न्त॒मा यः स॒साद॒ धारा॑मृ॒तस्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ई॒म् । चि॒केत॑ । गुहा॑ । भव॑न्तम् । आ । यः । स॒साद॑ । धारा॑म् । ऋ॒तस्य॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ईं चिकेत गुहा भवन्तमा यः ससाद धारामृतस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ईम्। चिकेत। गुहा। भवन्तम्। आ। यः। ससाद। धाराम्। ऋतस्य ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 67; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यो मनुष्यो गुहाभवन्तमीं ज्ञानस्वरूपमीश्वरं विद्वांसं ज्ञापकमुदकं वा चिकेत जानाति। य ऋतस्य धारामाससाद ये ऋता सपन्तो वसूनि विचृतन्ति। यस्मै परमेश्वरः प्रववाचादनन्तरमस्मायिदेव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (यः) मनुष्यः (ईम्) विज्ञानमुदकं वा (चिकेत) जानाति (गुहा) बुद्धौ विज्ञाने (भवन्तम्) सन्तं जगदीश्वरं सभाद्यध्यक्षं वा (आ) समन्तात् (यः) (ससाद) अवसादयति (धाराम्) वाचं प्रवाहं वा। धारेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (ऋतस्य) सत्यविद्यामयस्य वेदचतुष्टयस्य जलस्य वा (वि) विशेषे (ये) मनुष्याः (चृतन्ति) ग्रथ्नन्ति (ऋता) ऋतानि सत्यानि (सपन्तः) समवयन्तः (आ) अनन्तरे (इत्) एव (वसूनि) विद्यासुवर्णादिधनानि (प्र) प्रकृष्टे (ववाच) उक्तवान्। सम्प्रसारणाच्चेत्यत्र वाच्छन्दसीत्युनवर्त्तनाद् यणादेशः। (अस्मै) मनुष्याय ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। नहि कस्यचित्परमेश्वरोपासनविज्ञानाभ्यां सत्यविद्याचरणाभ्यां च विना सुखानि यथावन्निर्विघ्नतया भवितुं शक्यन्ते ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर भी ईश्वर और विद्वान् के गुणों का उपदेश करते हैं ॥

    पदार्थ

    (यः) जो मनुष्य (गुहा) बुद्धि तथा विज्ञान में (ईम्) विज्ञानस्वरूप (भवन्तम्) जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष को (चिकेत) जानता है (यः) जो (ऋतस्य) सत्य विद्यारूप चारों वेद वा जल के (धाराम्) वाणी वा प्रवाह को (आ ससाद) प्राप्त कराता है (ये) जो मनुष्य (ऋता) सत्यों को (सपन्तः) संयुक्त करते हुए (वसूनि) विद्या, सुवर्ण आदि धनों को (विचृतन्ति) ग्रन्थियुक्त करते हैं, जिसलिये परमेश्वर ने (प्र ववाच) कहा है (आत्) इसके पीछे (इत्) उसी के लिये सब सुख प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। किसी मनुष्य को परमेश्वर की उपासना वा विज्ञान, सत्यविद्या और उत्तम आचरणों के विना सुख प्राप्त नहीं हो सकते ॥ ४ ॥

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    विषय

    वसु - प्रवचन

    पदार्थ

    १. (यः) = जो पुरुष (गुहा भवन्तम्) = बुद्धिरूपी गुहा में निवास करनेवाले प्रभु को (ईम्) = निश्चय से (चिकेत) = जानता है और (यः) = जो (ऋतस्य धाराम्) = ऋत की वाणी को, सत्य ज्ञान की प्रतिपादिका वेदवाणी को (आससाद) = सर्वथा प्राप्त करता है, अर्थात् जो चित्तवृत्ति के निरोध से हृदय में प्रभु - दर्शन करता है और वेदवाणी के अध्ययन से सत्यज्ञान प्राप्त करता है, २. और ऋत की धाराओं को प्राप्त करने से (ये) = जो (ऋता) = सत्य व यज्ञों का (सपन्तः) = सेवन करते हुए (विचृतन्ति) = अविद्या - ग्रन्थियों का विकिरण या विक्षेपण करते हैं (अस्मै) = इस व्यक्ति के लिए (आत् इत्) = ठीक इसके पश्चात्, बिना किसी विलम्ब के (वसूनि) = वसुओं का (प्रववाच) = वे प्रभु उपदेश करते हैं । निवास के लिए आवश्यक सब तत्त्वों का इसे वे प्रभु ज्ञान कराते हैं और सब ऐश्वर्यों को इसे प्रदान करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हृदयस्थ प्रभु को हम जानें, सत्य की प्रतिपादिका वेदवाणी को प्राप्त करें और ऋत का सेवन करते हुए अविद्या - ग्रन्थि को विनष्ट करें । प्रभु हमारे लिए वसुओं का प्रवचन करेंगे ।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    One who knows Agni existent in the cave of the heart, takes the shower in the stream of Truth and life flowing from Divinity. Those who tie the knot with the presence, serve It and shine the path of realisation along the steps, to them Agni reveals the secrets of the wealths of life and light of the Spirit.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they [God and a learned person] is taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) He who knows the Omniscient God present in the intellect or knowledge, who obtains the speech of absolutely the True Vedas and all those who glorify God and acquire wealth (knowledge and gold etc.), observing truthfulness and honesty in all dealings and whom God Himself instructs ( through the Vedas and Inner Voice of conscience), enjoy all happiness and delight.(2) He who knows a learned righteous person and gets the correct knowledge of water and other elements. The rest as above.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ईम्) विज्ञानम् उदकं वा = Knowledge or water, (ऋतस्य) सत्यविद्यामयस्य वेदचतुष्टयस्य जलस्यवा =Of true Vedas full of all true knowledge, which are four in number and of the water.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Shleshalankara (double entendre) in the Mantra. None can enjoy true happiness without the communion with God and scientific knowledge, without true knowledge and conduct.

    Translator's Notes

    ईम् इति पदनाम पदगतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च त्र ज्ञानार्थगमनम् = Among the three meanings of -here knowledge has been taken. ईम् इति उदक नाम (निघ० १.१२) Water. ऋतम् इति सत्यनाम (निघ० ३.१०) ऋतम् इति उदकनाम (निघ० १.१२) Hence the two meanings given by Rishi Dayananda Sarasvati in his commentary as translated above. By Rita, Vedas are also taken as they are full of perfect truth revealed by Omniscient God.

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