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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 67/ मन्त्र 4
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    वि॒दन्ती॒मत्र॒ नरो॑ धियं॒धा हृ॒दा यत्त॒ष्टान्मन्त्राँ॒ अशं॑सन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒दन्ति॑ । ई॒म् । अत्र॑ । नरः॑ । धि॒य॒म्ऽधाः । हृ॒दा । यत् । त॒ष्टान् । मन्त्रा॑न् । अशं॑सन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विदन्तीमत्र नरो धियंधा हृदा यत्तष्टान्मन्त्राँ अशंसन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विदन्ति। ईम्। अत्र। नरः। धियम्ऽधाः। हृदा। यत्। तष्टान्। मन्त्रान्। अशंसन् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 67; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यद्येन नरो यथा धियन्धा विद्वांसस्तष्टान् मन्त्रान् विदन्त्यशंसन् स्तुवन्ति च। यथोदारो दाता हस्ते विश्वानि नृम्णानि दधानोऽन्येभ्यः सुपात्रेभ्यो ददाति यथा गुहा निषीदन्नीश्वरो विद्वान् अत्र अमे देवान् धाद्दधाति तथा वर्त्तन्ते तेऽतुलमानन्दं लभन्ते ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (हस्ते) करे (दधानः) धरन्नुदारो धातेव (नृम्णा) धनानि (विश्वानि) सर्वाणि (अमे) ज्ञानादिनिमित्तेषु गृहेषु (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा (धात्) दधाति (गुहा) गुहायां सर्वविद्यासंयुक्तायां बुद्धौ। गुहागूहतेः। (निरु०१३.९) (निषीदन्) स्थितोऽवस्थापयन् (विदन्ति) जानन्ति (ईम्) प्राप्तव्यान् बोधान्। ईमति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.२) (अत्र) अस्मिन् (नरः) ये नयन्ति ते मनुष्याः (धियन्धाः) ये प्रज्ञां कर्म्म वा दधाति ते (हृदा) हृदयस्तेन विज्ञानेन (यत्) (तष्टान्) तक्षन्ति तीक्ष्णीकुर्वन्ति यैर्विद्यास्तान् (मन्त्रान्) वेदावयवान् विचारान् वा (अशंसन्) स्तुवन्ति ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! युष्माभिर्योऽन्तर्य्याम्यात्मनि सत्यानृते उपदिशति बाह्योऽध्यापको विद्वांश्च वर्त्तते तं विहाय नैव कस्याप्युपासना संसर्गश्च कर्त्तव्य इति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    (यत्) जो (नरः) प्राप्ति करनेवाला मनुष्य जैसे (धियन्धाः) प्रज्ञा, कर्म को धारण करनेवाले विद्वान् लोग (तष्टान्) विद्याओं को तीक्ष्ण करनेवाले (मन्त्रान्) वेदों के अवयव वा विचाररूपी मन्त्रों को (विदन्ति) जानते (अशंसन्) स्तुति करते हैं। जैसे देनेवाला उदार मनुष्य (हस्ते) हाथ में (विश्वानि) सब (नृम्णा) धनों को (दधानः) धारण किया हुआ अन्य सुपात्र मनुष्यों को देता है। जैसे (गुहा) सब विद्याओं से युक्त बुद्धि में (निषीदन्) स्थित हुआ ईश्वर वा योगी विद्वान् (अत्र) इस (अमे) विज्ञान आदि में (देवान्) विद्वान् व दिव्य गुणों को (धात्) धारण करता है, वैसे होते हैं, वे अत्यन्त आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोगों को चाहिये कि जो अन्तर्यामी आत्मा में सत्य-झूँठ का उपदेश करता और बाह्य अध्ययन करानेवाला विद्वान् वर्त्तमान है, उसको छोड़ कर किसी की उपासना वा संगत कभी मत करो ॥ २ ॥

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    विषय

    ज्ञानपूर्वक स्तवन

    पदार्थ


    १. गतमन्त्र में प्रभु को हव्यवाट् कहा था । उसी का व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि - वे प्रभु (हस्ते) = अपने हाथ में (विश्वानि) = सब (नृम्णा) = धनों को (दधानः) = धारण करते हुए और (गुहा निषीदन्) = अन्तः करणरूप गुहा में स्थित हुए - हुए (देवान्) = ज्ञानपूर्वक स्तुति करनेवाले सब दिव्य पुरुषों को (अमे) = बल में (धात्) = धारण करते हैं । जो भी प्रभु को हृदयस्थरूपेण अनुभव करता है वह अपने में शक्ति का अनुभव करता है । प्रभुभक्त को किन्हीं भी आवश्यक धनों की कमी नहीं रहती । 

    २. (अत्र) = यहाँ, इस मानवजीवन में (धियं धाः) = ज्ञानपूर्वक कर्मों का धारण करनेवाले (नरः) = उन्नतिशील पुरुष (ईम्) = निश्चय से (विदन्ति) = उस प्रभु को जानते हैं, परन्तु जानते तब हैं (यत्) = जब (हृदा) = हृदय से, अत्यन्त श्रद्धा से (तष्टान्) = अतिसूक्ष्म रीति से विवेचित किये हुए, जिन्हें समझने का प्रयत्न किया गया है उन (मन्त्रान्) = वेदमन्त्रों का (अशंसन्) = स्तवन के लिए उच्चारण करते हैं । एवं, प्रभु - प्राप्ति के लिए ज्ञान, कर्म [धी] व उपासन तीनों ही आवश्यक हैं । यदि इनको अपने में समन्वित करके हम प्रभु को प्राप्त करते हैं तो वे प्रभु हमारे लिए सब धनों को प्राप्त कराते हैं । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के लिए ज्ञानपूर्वक कर्मों द्वारा प्रभु का उपासन ही साधन है । वे प्रभु हमारे लिए सब धनों को हाथ में लिये हुए हैं । स्तोताओं को वे शक्ति प्राप्त कराते हैं । 

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    विषय

    नाना दृष्टान्तों से वीर पुरुष, नायक, राजा अग्नि तथा परमेश्वर का वर्णन

    भावार्थ

    ( यः ) जो मनुष्य ( गुहा भवन्तम् ) परम बुद्धि या हृदय में विद्यमान व्यापक परमेश्वर को ( चिकेत ) जान लेता है और (यः) जो ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञानमय वेदविद्या की (धाराम् ) वाणी को या सत्य व्यवहार को धारण करनेवाली विद्या, शास्त्रव्यवस्था को (आ ससाद) प्राप्त कर लेता, अपने वश कर लेता है और (ये) जो विद्वान् पुरुष ( सपन्तः ) परस्पर एक स्थान पर संगत होकर ( ऋता ) सत्य सत्य ज्ञानों को ( विचृतन्ति ) विशेष रूप से और विविध प्रकारों से खोलते, उनको प्रकट करते हैं । ( आत् इत् ) वह पूर्वोक्त शासक पुरुष (अस्मै) उस विद्वान् जन के लिए ( वसूनि ) नाना ज्ञानों और ऐश्वर्यों के प्राप्त करने का (प्रववाच) प्रवचन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशरः शाक्त्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥छन्दः—१ पङ्क्तिः । २ भुरिक् पङ्क्तिः । ३ निचृत्पङ्क्तिः । ४,५ विराट् पङ्क्तिः ॥ पंचर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यत् येन नरः यथा धियन्धा {हृदा} विद्वांसः तष्टान् मन्त्रान् विदन्ति अशंसन् स्तुवन्ति च। यथा उदारः दाता हस्ते विश्वानि नृम्णानि दधानः अन्येभ्यः सुपात्रेभ्यः ददाति यथा गुहा निषीदन् {ईम्} ईश्वरः विद्वान् अत्र अमे देवान् धात् दधाति तथा वर्त्तन्ते ते अतुलम् आनन्दं लभन्ते ॥२॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (यत्)=क्योंकि, (येन)=जिस से, (नरः) ये नयन्ति ते मनुष्याः=मनुष्य, (यथा)=जिस प्रकार से, (धियन्धाः) ये प्रज्ञां कर्म्म वा दधाति ते=प्रज्ञा और कर्म को धारण करनेवाले, {हृदा} हृदयस्तेन विज्ञानेन=हार्दिक विशेष ज्ञान से, (विद्वांसः)= विद्वान् लोग, (तष्टान्) तक्षन्ति तीक्ष्णीकुर्वन्ति यैर्विद्यास्तान्=जिस विद्या से तीक्ष्ण करते हैं, (मन्त्रान्) वेदावयवान् विचारान् वा=वेद के मन्त्रों या विचारों से, (विदन्ति) जानन्ति=जानते हैं, (च)=और, (अशंसन्) स्तुवन्ति= स्तुति करते हैं, (यथा)=जिस प्रकार से, (उदारः)= उदार, (दाता)= दाता, (हस्ते) करे=अपने हाथ में, (विश्वानि) सर्वाणि=समस्त, (नृम्णानि) धनानि=धन, (दधानः) धरन्नुदारो धातेव=धारण करने में उदार के समान, (अन्येभ्यः)=अन्य के लिये, (सुपात्रेभ्यः)=सुपात्रों के लिये, (ददाति)=देता है, (यथा)=जैसे, (गुहा) गुहायां सर्वविद्यासंयुक्तायां बुद्धौ=समस्त विद्याओं से संयुक्त बुद्धि रूपी गुफा में, (निषीदन्) स्थितोऽवस्थापयन् = व्यवस्थित करने के लिये और {ईम्} प्राप्तव्यान् बोधान्=बोध कराने के लिये, (ईश्वरः)= ईश्वर, (विद्वान्)= विद्वान्, (अत्र) अस्मिन् =इस, (अमे) ज्ञानादिनिमित्तेषु गृहेषु=ज्ञान आदि के निमित्त घरों में, (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा=विद्वानों या दिव्य गुणों को, (धात्) दधाति=धारण करता है, (तथा)=वैसे, (वर्त्तन्ते)=होते हैं, (ते)=वे, (अतुलम्) =अतुल, (आनन्दम्)= आनन्द को, (लभन्ते)=प्राप्त करते हैं॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यों ! तुम लोगों के द्वारा अपने अन्तः आत्मा में जो सत्य और असत्य का उपदेश करता है और बाह्य अध्यापक विद्वान् वर्त्तमान है, उसको छोड़ कर किसी की उपासना और संगति कभी नहीं करनी चाहिए ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यत्) क्योंकि (येन) जिस से (नरः) मनुष्य, (यथा) जिस प्रकार से (धियन्धाः) प्रज्ञा और कर्म को धारण करनेवाले, {हृदा} हार्दिक विशेष ज्ञान से (विद्वांसः) विद्वान् लोग, (तष्टान्) जिस विद्या से तीक्ष्ण करते हैं, (मन्त्रान्) वेद के मन्त्रों या विचारों से (विदन्ति) जानते हैं (च) और (अशंसन्) स्तुति करते हैं। (यथा) जिस प्रकार से (उदारः) उदार (दाता) दाता हैं। (हस्ते) अपने हाथ में (विश्वानि) समस्त (नृम्णानि) धन (दधानः) धारण करने में उदार के समान और (अन्येभ्यः) अन्य (सुपात्रेभ्यः) सुपात्रों के लिये (ददाति) देता है। (यथा) जैसे (गुहा) समस्त विद्याओं से संयुक्त बुद्धि रूपी गुफा में (निषीदन्) व्यवस्थित करने के लिय और {ईम्} बोध कराने के लिये (ईश्वरः) ईश्वर और (विद्वान्) विद्वान् (अत्र) इस (अमे) ज्ञान आदि के निमित्त घरों में (देवान्) विद्वानों या दिव्य गुणों को (धात्) धारण करता है, (तथा) वैसे ही (वर्त्तन्ते) वे होते हैं। (ते) वे (अतुलम्) अतुलनीय (आनन्दम्) आनन्द को (लभन्ते) प्राप्त करते हैं॥२॥

    संस्कृत भाग

    स्वरः - पञ्चमः हस्ते॒ दधा॑नो नृ॒म्णा विश्वा॒न्यमे॑ दे॒वान्धा॒द्गुहा॑ नि॒षीद॑न् ॥ वि॒दन्ती॒मत्र॒ नरो॑ धियं॒धा हृ॒दा यत्त॒ष्टान्मन्त्राँ॒ अशं॑सन् ॥ स्वर सहित पद पाठ हस्ते॑ । दधा॑नः । नृ॒म्णा । विश्वा॑नि । अमे॑ । दे॒वान् । धा॒त् । गुहा॑ । नि॒ऽसीद॑न् ॥ वि॒दन्ति॑ । ई॒म् । अत्र॑ । नरः॑ । धि॒य॒म्ऽधाः । हृ॒दा । यत् । त॒ष्टान् । मन्त्रा॑न् । अशं॑सन् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! युष्माभिर्योऽन्तर्य्याम्यात्मनि सत्यानृते उपदिशति बाह्योऽध्यापको विद्वांश्च वर्त्तते तं विहाय नैव कस्याप्युपासना संसर्गश्च कर्त्तव्य इति ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. कोणत्याही माणसाला परमेश्वराची उपासना, विज्ञान, सत्यविद्या व उत्तम आचरणाशिवाय निर्विघ्नपणे सुख प्राप्त होऊ शकत नाही. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    People of faith and dedication, possessed of sacred intelligence who chant and meditate on mantras, divining into the secrets of nature and divinity with their heart and soul, come to know and realise here itself in actuality the presence and attributes of Agni which is immanent in the depth of the soul, reveals Itself, holding the wealths of the world for the devotees, and establishes the dedicated generous brilliancies in knowledge, power and wealth of the world and protects and promotes them in life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he [Agni] is taught in the fourth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those leaders enjoy infinite bliss who being endowed with intellect and actions know with wisdom the Vedic Mantras which sharpen or enlighten various sciences and glorify them, who act as a liberal donor giving to deserving persons, all wealth that he has in hand or as God who being seated in the cave of the intellect upholds all or a learned man living in the intellect possessing all knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ईम्) प्राप्तव्यान् बोधान् = The teachings worth attaining. (हृदा) हृदयस्थेन विज्ञानेन = with the knowledge in the heart. (तष्टान्) तक्षन्ति तीक्ष्णीकुर्वन्ति विद्या यैस्तान् = Which sharpen various sciences.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should always meditate upon that God only who being omnipresent is within the soul and so instructs men in what is true and what is false. They should also associate themselves with learned teachers and not with ignorant persons.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of scholar should he be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yat) =Because, (yena) =by which, (naraḥ) =humans, (yathā) =in the manner, (dhiyandhāḥ) =Those who possess wisdom and action, {hṛdā} =with heartfelt special knowledge, (vidvāṃsaḥ) =scholars, (taṣṭān)= The knowledge with which they sharpen, (mantrān)= by the mantras or thoughts of the Vedas, (vidanti) =know, (ca) =and, (aśaṃsan) =praise, (yathā)=in the manner, (udāraḥ) =generous, (dātā) =giving, (haste) =in own hands, (viśvāni) =all, (nṛmṇāni) =wealth, (dadhānaḥ)=Like generous in possessing and, (anyebhyaḥ) =others, (supātrebhyaḥ)= for the deserving, (dadāti) =gives, (yathā) =like, (guhā)=In the cave of wisdom combined with all the knowledge, (niṣīdan)=to organize and, {īm}= to make known, (īśvaraḥ) =God and, (vidvān) =scholar, (atra) =this, (ame)=In homes for the sake of knowledge etc., (devān)=learned or divine qualities, (dhāt) =possesses, (tathā) =similarly, (varttante) =they are, (te) =they, (atulam)=incomparable, (ānandam) =to pleasure, (labhante) =obtain.

    English Translation (K.K.V.)

    Because the way humans, the ones possessing wisdom and action, the learned people with special knowledge of the heart, the knowledge with which they sharpen, know and praise them from the mantras or thoughts of the Vedas. The way he is generous and giving. He is generous in holding all the wealth in his hands and gives it to other deserving people. Just as God and scholars adopt scholarly or divine qualities in their homes for the sake of this knowledge etc. in order to organize them in the cave of intellect combined with all the knowledge and to give understanding, similarly they are there. They attain incomparable pleasure

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. O humans! You should never worship or associate with anyone except the one who preaches truth and falsehood in your inner soul and who is the external teacher and scholar.

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