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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 67/ मन्त्र 5
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒जो न क्षां दा॒धार॑ पृथि॒वीं त॒स्तम्भ॒ द्यां मन्त्रे॑भिः स॒त्यैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒जः । न । क्षाम् । दा॒धार॑ । पृ॒थि॒वीम् । त॒स्तम्भ॑ । द्याम् । मन्त्रे॑भिः । स॒त्यैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अजः। न। क्षाम्। दाधार। पृथिवीम्। तस्तम्भ। द्याम्। मन्त्रेभिः। सत्यैः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 67; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरविद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वंस्त्वं यथा परमात्मा सत्यैर्मन्त्रेभिः क्षां दाधार पृथिवीं द्यां तस्तम्भ स्तभ्नाति प्रियाणि पदानि ददाति गुहा स्थितः सन् गुहं गाः पश्वो बन्धनादस्मान् रक्षति तथा विश्वायुः सन् धर्मेण प्रजा निपाह्यजो नेव भव ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (अजः) यः परमात्मा कदाचिन्न जायते सः (न) इव (क्षाम्) भूमिम्। क्षेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (दाधार) स्वसत्तयाकर्षणेन धरति (पृथिवीम्) अन्तरिक्षस्थानन्यांल्लोकान् (तस्तम्भ) स्तभ्नाति (द्याम्) प्रकाशमयं विद्यमानम्। सूर्य्यादिलोकसमूहं वा (मन्त्रेभिः) ज्ञानयुक्तैर्विचारैः (सत्यैः) सत्यलक्षणोज्ज्वलैर्नित्यैः (प्रिया) प्रियाणि (पदानि) प्राप्तव्यानि (पश्वः) पशोर्बन्धनात् (नि) नितराम् (पाहि) रक्ष (विश्वायुः) सर्वमायुर्जीवनं यस्मात्सः (अग्ने) विद्वन् (गुहा) गुहायां बुद्धौ (गुहम्) गूढं विज्ञानगम्यं कारणज्ञानम् (गाः) ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा परमेश्वरः स्वकीयैर्विज्ञानबलादिगुणैः सर्वं जगद्धरति यथा प्रियः सखा स्वकीयं मित्रं दुःखबन्धात् पृथक्कृत्य प्रियाणि सुखानि प्रापयति यथाऽन्तर्यामिरूपेण परमेश्वरो जीवादिकं धृत्वा प्रकाशयति, तथैव सभाध्यक्षः सत्यन्यायेन राज्यं सूर्यः स्वैराकर्षणादिगुणैर्जगच्च धरति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में ईश्वर और विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान् ! तू जैसे परमात्मा (सत्यैः) सत्य लक्षणों से प्रकाशित ज्ञानयुक्त (मन्त्रेभिः) विचारों से (क्षाम्) भूमि को (दाधार) अपने बल से धारण करता (पृथिवीम्) अन्तरिक्ष में स्थित जो अन्य लोक (द्याम्) तथा प्रकाशमय सूर्य्यादि लोकों को (तस्तम्भ) प्रतिबन्धयुक्त करता और (प्रिया) प्रीतिकारक (पदानि) प्राप्त करने योग्य ज्ञानों को प्राप्त कराता है (गुहा) बुद्धि में स्थित हुए (गुहम्) गूढ़ विज्ञान भीतर के स्थान को (गाः) प्राप्त हो वा होते हैं (पश्वः) बन्धन से हम लोगों की रक्षा करता वैसे धर्म से प्रजा की (नि पाहि) निरन्तर रक्षा कर और (अजो न) न्यायकारी ईश्वर के समान हूजिये ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर वा जीव कभी उत्पन्न वा नष्ट नहीं होता, वैसे कारण भी विनाश में नहीं आता। जैसे परमेश्वर अपने विज्ञान, बल आदि गुणों से पृथिवी आदि जगत् को रचकर धारण करता है, वैसे सत्य विचारों से सभाध्यक्ष राज्य का धारण करे। जैसे प्रिय मित्र अपने मित्र को दुःख के बन्धों से पृथक् करके उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त कराता है, वैसे ईश्वर और सूर्य्य भी सब सुखों को प्राप्त कराते हैं। जैसे अन्तर्य्यामि रूप से ईश्वर जीवादि को धारण करके प्रकाश करता है, वैसे सभाध्यक्ष सत्यन्याय से राज्य और सूर्य्य अपने आकर्षणादि गुणों से जगत् को धारण करता है ॥ ३ ॥

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    विषय

    ब्रह्माण्ड का धारक प्रभु

    पदार्थ


    १. (अजः न) = गति के द्वारा सब अवाञ्छनीय तत्वों को दूर करनेवाले के समान [अज गतिक्षेपणयोः] (क्षाम्) = सबको निवास देनेवाली (पृथिवीम्) = पृथिवी को वे प्रभु (दाधार) = धारण करते हैं । वे प्रभु ही (सत्यैः मन्त्रेभिः) सत्य मन्त्रों के द्वारा, अपने पूर्ण शुद्धज्ञान से (द्यां तस्तम्भ) = द्युलोक को थामते हैं । पृथिवी व द्युलोक का धारण गति व ज्ञान के द्वारा प्रभु ही कर रहे हैं । 

    २. जिस प्रकार जड़जगत् में द्युलोक से पृथिवीलोक तक सारे ब्रह्माण्ड को प्रभु धारण कर रहे हैं, उसी प्रकार अपने मित्र जीव में आप (प्रिया पदानि) = “वैश्वानर, तैजस व प्राज्ञ” नामक तीनों प्रिय पदों की (नि पाहि) = रक्षा करें । आपकी कृपा से आपका भक्त सबका हित करनेवाला बने [वैश्वानर], हित कर सकने के लिए वह तेजस्वी और ज्ञानी हो [तैजस् - प्राज्ञ] । 

    ३. आप इस मित्र में (पश्वः) = काम - क्रोधादि पशुओं को भी (नि पाहि) = निश्चय से सुरक्षित कीजिए । ये पशु उच्छृङ्खलता से घूमते न रहें, अपितु पिंजरे में कैद हुए सिंहादि की भाँति ये भी सुनियन्त्रित होकर शरीर की शोभा बढ़ानेवाले हों । इस प्रकार आप अपने इस मित्र को (विश्वायुः) = पूर्णजीवन प्राप्त करानेवाले हों । 

    ४. (अग्ने) = हे प्रकाशस्वरूप अग्रणी प्रभो ! आप (गुहा गुहं गाः) = बुद्धि के भी अत्यन्त गूढ़ स्थान में गये हुए हो, अर्थात् आपका दर्शन तो अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि से होता है - “दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः” । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु अपनी गति व ज्ञान से ब्रह्माण्ड का धारण करते हैं, जीव को उन्नत स्थिति प्राप्त कराते हैं और सूक्ष्म बुद्धि से देखे जाते हैं । 

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    विषय

    नाना दृष्टान्तों से वीर पुरुष, नायक, राजा अग्नि तथा परमेश्वर का वर्णन

    भावार्थ

    ( यः ) जो परमेश्वर ( वीरुत्सु ) विविध रूपों से छुपे कार्यों को प्रकट करने वाले कारणों में से ( महित्वा ) अपने महान् सामर्थ्य से ( प्रजाः ) आगे उत्पन्न होने वाले कार्यों को (वि रोधत्) विविध रूपों से प्रकट करता है । और ( यः वीरुत्सु प्रजाः वि रोधत् ) और जो लताओं में विविध पुष्प फलों को भी विशेष विविध रूपों से प्रकट करता है, (उत्) और (प्रसूषु अन्तः) माताओं के गर्भ में जो प्रजाओं को (वि रोधत्) विविध प्रकारों से उत्पन्न करता है, वह ( चित्तः ) ज्ञानवान्, चित् स्वरूप, चेतना का देने वाला, ( विश्वायुः) सबका जीवनाधार होकर ( अपां दमे ) प्राणों और जलों के बीच में समस्त प्रजाओं को उत्पन्न करता है । (धीराः) ध्यानी, बुद्धिमान् पुरुष ( संमाय ) निर्माण करके जैसे ( सद्म इव ) अपना घर खड़ा कर लेते हैं उसी प्रकार विद्वान् पुरुष जिसको ( संमाय ) अच्छी प्रकार ज्ञान करके ( सद्म इव चक्रुः ) अपना परम आश्रय या शरण बना लेते हैं। राजा के पक्ष में—राजा ( वीरुत्सु ) शत्रुओं को विविध उपायों से रोकने वाली सेनाओं और ( प्रसूषु ) उत्तम ऐश्वर्यवान् धनाढ्यों के आधार पर (प्रजाः वि रोधत्) प्रजाओं को विविध उपायों से वश करे । वह ( चित्तिः ) ज्ञानवान्, प्रजाओं का चेताने वाला हो । (अपां) प्रजाओं के ( दमे ) दमन में तत्पर हो। और ( विश्वायुः) सबके जीवनों का रक्षक हो ॥ धीर जन उसको (संमाय) अच्छी प्रकार राजा बनाकर (सद्म इव चक्रुः ) सब प्रजा के शरण स्थान के समान बनावें । इत्येकादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशरः शाक्त्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥छन्दः—१ पङ्क्तिः । २ भुरिक् पङ्क्तिः । ३ निचृत्पङ्क्तिः । ४,५ विराट् पङ्क्तिः ॥ पंचर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब इस मन्त्र में ईश्वर और विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने विद्वन् त्वं यथा परमात्मा सत्यैः मन्त्रेभिः क्षां दाधार पृथिवीं द्यां तस्स्तम्भ स्तभ्नाति प्रियाणि पदानि ददाति गुहा स्थितः सन् गुहं गाः पश्वो बन्धनाद् अस्मान् रक्षति तथा विश्वायुः सन् धर्मेण प्रजा निपाहि अजः न इव भव ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (अग्ने) विद्वन्= विद्वान्, (त्वम्)=तुम, (यथा)=जैसे, (परमात्मा)= परमात्मा, (सत्यैः) सत्यलक्षणोज्ज्वलैर्नित्यैः= सत्य लक्षणों से प्रकाशित नित्य, (मन्त्रेभिः) ज्ञानयुक्तैर्विचारैः=ज्ञान युक्त विचारों के द्वारा, (द्याम्) प्रकाशमयं विद्यमानम्=प्रकाश से युक्त होकर, (दाधार) स्वसत्तयाकर्षणेन धरति=अपनी सत्ता के आकर्षण से धारण रहता है, (पृथिवीम्) अन्तरिक्षस्थानन्यांल्लोकान्=अन्तरिक्ष में स्थित अन्य लोकों और, (क्षाम्) भूमिम्=भूमि को, (तस्तम्भ) स्तभ्नाति=थामता है, (प्रिया) प्रियाणि= प्रिय, (पदानि) प्राप्तव्यानि=प्राप्त किये जाने योग्य वस्तुओं को, (ददाति)=देता है, (गुहा) गुहायां बुद्धौ=बुद्धि रूपी गुफा में, (स्थितः)= स्थित, (सन्)=होते हुए, (गुहम्) गूढं विज्ञानगम्यं कारणज्ञानम्= गूढ विशेष ज्ञान से जानने योग्य कारण रूपी ज्ञान को, (गाः)= प्राप्त करके, (पश्वः) पशोर्बन्धनात्=पशुओं के बन्धन से, (अस्मान्)=हमारी, (रक्षति) =रक्षा करता है, (तथा)=वैसे ही, (विश्वायुः) सर्वमायुर्जीवनं यस्मात्सः=समस्त जीवनवाला, (सन्)=होते हुए, (धर्मेण)=धर्म से, (प्रजा)=प्रजा की, (नि) नितराम्= निरन्तर, (पाहि) रक्ष=रक्षा कीजिये, (अजः) यः परमात्मा कदाचिन्न जायते सः=जो परमात्मा कभी भी उत्पन्न न होनेवाले के, (न) इव=समान, (भव)=होवे ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर अपने विशेष ज्ञान और बल आदि गुणों से समस्त जगत् को धारण करता है, जैसे प्रिय मित्र अपने मित्र को दुःख के बन्धनों से हटा करके प्रिय सुखों को प्राप्त कराता है, जैसे अन्तर्यामी रूप ईश्वर जीव आदि को धारण करके प्रकाशित करता है, वैसे ही सभाध्यक्ष सत्य और न्याय से राज्य को धारण करता है और सूर्य अपने आकर्षण आदि गुणों से जगत् को धारण करता है ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) विद्वान्! (त्वम्) तुम (यथा) जैसे (परमात्मा) परमात्मा (सत्यैः) सत्य लक्षणों से प्रकाशित नित्य है, (मन्त्रेभिः) ज्ञान युक्त विचारों के द्वारा (द्याम्) प्रकाश से युक्त होकर (दाधार) अपनी सत्ता के आकर्षण से टिका हुआ रहता है। (पृथिवीम्) अन्तरिक्ष में स्थित अन्य लोकों और (क्षाम्) भूमि को (तस्तम्भ) थामता है। (प्रिया) प्रिय और (पदानि) प्राप्त की जाने योग्य वस्तुओं को (ददाति) देता है। (गुहा) बुद्धि रूपी गुफा में (स्थितः) स्थित (सन्) होते हुए, (गुहम्) विशेष गूढ ज्ञान से जानने योग्य कारण रूपी ज्ञान को (गाः) प्राप्त करके, (पश्वः) पशुओं के बन्धन से (अस्मान्) हमारी (रक्षति) रक्षा करता है, (तथा) वैसे ही (विश्वायुः) समस्त जीवनवाले (सन्) होते हुए, (धर्मेण) धर्म से (प्रजा) प्रजा की (नि) निरन्तर (पाहि) रक्षा कीजिये, (अजः) जिससे परमात्मा कभी भी उत्पन्न न होनेवाले के (न) समान (भव) होवे ॥३॥

    संस्कृत भाग

    स्वर सहित पद पाठ अ॒जः । न । क्षाम् । दा॒धार॑ । पृ॒थि॒वीम् । त॒स्तम्भ॑ । द्याम् । मन्त्रे॑भिः । स॒त्यैः ॥ प्रि॒या । प॒दानि॑ । प॒श्वः । नि । पा॒हि॒ । वि॒श्वऽआ॑युः । अ॒ग्ने॒ । गु॒हा । गुह॑म् । गाः॒ ॥ विषयः- पुनरीश्वरविद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा परमेश्वरः स्वकीयैर्विज्ञानबलादिगुणैः सर्वं जगद्धरति यथा प्रियः सखा स्वकीयं मित्रं दुःखबन्धात् पृथक्कृत्य प्रियाणि सुखानि प्रापयति यथाऽन्तर्यामिरूपेण परमेश्वरो जीवादिकं धृत्वा प्रकाशयति, तथैव सभाध्यक्षः सत्यन्यायेन राज्यं सूर्यः स्वैराकर्षणादिगुणैर्जगच्च धरति॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. जो अंतर्यामी रूपाने व रूप, वेग इत्यादी गुणांनी प्रजेला नियंत्रित करतो त्याच जगदीश्वराची माणसांनी उपासना करावी व विद्युत अग्नीला आपल्या कार्यात संयुक्त करून जसे विद्वान लोक घरात स्थित होतात व संग्रामात शत्रूंना जिंकून सुखी करतात, तसे सुखी करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The eternal lord of existence, Agni, light and life of the universe, holds the earth as He holds the sky and sustains heaven in space with true mantras of Rtam (which are identical with His thoughts and laws of nature). Agni, lord and spirit of the universe, deepest in the depth of the soul as you are, protect the steps of the growth of the soul’s vision of divinity, guard them against the violence and vulgarity of brute force.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God and the electricity are taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, as un-born eternal God sustains the earth and the heaven with true Supreme wisdom and eternal Laws, gives all dear or desirable objects, protects us from the bondage of the animals being seated in the cave of our intellect and giving abstruse secret knowledge in the same manner, thou should protect all people with righteousness and the observance of thy duties all thy life and be like the un-born Eternal God (in purity and benevolence etc.).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अज:) यः परमात्मा कदाचिन्न जायते सः = God who is never born. [The word clearly refutes the theory of God's taking incarnation etc.]. (गुहा) गुहायां बुद्धौ = In the intellect which is like a cave.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As God sustains the whole universe with His knowledge and Power, as a dear friend causes good happiness to his friend by dis-severing the bond of misery, as God in the form of Antaryami or Indwelling Universal spirit illuminates the soul, by maintaining them, in the same manner, the President of the Assembly maintains or upholds the state by true justice and the Sun upholds the world by attraction and other attributes

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    Subject of the mantra

    Now in this mantra the qualities of God and a scholar have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne) =scholar, (tvam) =you, (yathā) =like, (paramātmā) God, (satyaiḥ) =always effulgent with the signs of truth, (mantrebhiḥ) =through wise thoughts, (dyām)=beig full of light, (dādhāra) =remains stable due to the attraction of its power of existence, (pṛthivīm)=other worlds in space and, (kṣām) =to the earth, (tastambha) =sustains, (priyā) =dear and, (padāni) prāpta kī jāne yogya vastuoṃ ko (dadāti) =gives, (guhā)= in a cave in the form of intellect, (sthitaḥ) =located, (san) =being, (guham)=Causal knowledge capable of being known through special esoteric knowledge, (gāḥ) =having obtained, (paśvaḥ)=from the bondage of animals, (asmān) =our,(rakṣati) =protects, (tathā) =similarly, (viśvāyuḥ)=the owner of all life, (san) =being, (dharmeṇa) =by righteousness, (prajā) =of people, (ni)=constantly, (pāhi) =protect, (ajaḥ) = due to which God becomes the embodiment of the one who will never be born, (na) =like, (bhava) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! A God like you is always effulgent with the signs of truth, filled with light through thoughts full of knowledge, and remains sustained by the attraction of his power. Holds other worlds and lands located in space. Gives things which are dear and worth getting. Being situated in a cave in the form of intellect, having acquired the knowledge of reason which can be known through special esoteric knowledge, He protects us from the bondage of animals, in the same way, being the owner of all life, constantly protects the people with righteousness, so that God becomes like the one who will never be born.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as God holds the entire world with His special qualities like knowledge and strength, just as a dear friend frees his friend from the bonds of sorrow and enables him to attain dear happiness, just as God in the inner form illuminates the living beings etc. by holding them, similarly Only the President of the Assembly holds the kingdom with truth and justice and the Sun holds the world with his attractiveness et cetera.

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