ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
आदित्ते॒ विश्वे॒ क्रतुं॑ जुषन्त॒ शुष्का॒द्यद्दे॑व जी॒वो जनि॑ष्ठाः ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । इत् । ते॒ । विश्वे॑ । क्रतु॑म् । जु॒ष॒न्त॒ । शुष्का॑त् । यत् । दे॒व॒ । जी॒वः । जनि॑ष्ठाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्ते विश्वे क्रतुं जुषन्त शुष्काद्यद्देव जीवो जनिष्ठाः ॥
स्वर रहित पद पाठआत्। इत्। ते। विश्वे। क्रतुम्। जुषन्त। शुष्कात्। यत्। देव। जीवः। जनिष्ठाः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्जगदीश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे देव जगदीश्वर ! त्वामाश्रित्य यद्ये विश्वे सर्वे जनिष्ठाः सपन्तो विद्वांस एवैः शुष्कान् ते देवत्वं क्रतुं नाम जुषन्त ते ऋतममृतं भजन्त सेवन्ते तथा जीव आदिरेतत्सर्वं प्रयत्नेन प्राप्नुयात् ॥ २ ॥
पदार्थः
(आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (ते) तव तस्य वा (विश्वे) अखिलाः (क्रतुम्) प्रज्ञापनं कर्म वा (जुषन्त) प्रीणन्ति सेवन्ते वा (शुष्कात्) धर्मानुष्ठानतपसो नीरसात् काष्ठादेः (यत्) ये (देव) जगदीश्वर (जीवः) इच्छादिगुणविशिष्टश्चेतनः (जनिष्ठाः) अतिशयेन प्रकटाः (भजन्त) सेवन्ते (विश्वे) सम्पूर्णाः (देवत्वम्) देवस्य भावः (नाम) प्रसिद्धम् (ऋतम्) सत्यम् (सपन्तः) समवयन्तः (अमृतम्) मरणजन्मदुःखादिदोषरहितम् (एवैः) ज्ञापकैः प्रापकैर्गुणैः ॥ २ ॥
भावार्थः
नहि मनुष्याः परमेश्वरोपासनाऽज्ञानुष्ठानेन विना व्यवहारपरमार्थसुखं प्राप्तुमर्हन्तीति ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (देव) जगदीश्वर ! आपका आश्रय करके (यत्) जो (विश्वे) सब (जनिष्ठाः) अतिज्ञान युक्त (सपन्तः) एक सम्मत विद्वान् लोग (एवैः) प्राप्तिकारक गुणों और (शुष्कात्) धर्मानुष्ठान के तप से वा नीरस काष्ठादि से (ते) आपके (देवत्वम्) दिव्य गुण प्राप्त करनेवाले (क्रतुम्) बुद्धि और कर्म (नाम) प्रसिद्ध अर्थयुक्त संज्ञा को सिद्ध (जुषन्त) प्रीति से सेवा करें, वे (ऋतम्) सत्य रूप को (भजन्त) सेवन करते हैं, वैसे (अमृतम्) मोक्ष को (जीवः) इच्छादि गुणवाला चेतनस्वरूप मनुष्य (आत्) इसके अनन्तर (इत्) ही इस सबको प्राप्त हो ॥ २ ॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर की उपासना वा आज्ञानुष्ठान के विना व्यवहार और परमार्थ के सुखों को प्राप्त नहीं हो सकते ॥ २ ॥
विषय
क्रतु, देवत्व व अमृत [मोक्षमार्ग]
पदार्थ
१. हे (देव) = ज्ञानज्योति से देदीप्यमान प्रभो ! (यत्) = जब (शुष्कात्) = [धर्मानुष्ठानतपसः - द०] उपवास व व्रतादि धर्मों के अनुष्ठानरूप तप से शरीरस्थ अवाञ्छनीय तत्त्वों का शोषण होता है तब आप (जीवः) = नवजीवन देते हुए (जनिष्ठाः) = प्रादुर्भूत होते हो । तपस्या से हृदय निर्मल होकर उसमें प्रभु का प्रकाश होता है । (आत् इत्) = इसके ठीक पश्चात् (ते विश्व) = वे सब तपस्वी लोग (क्रतुं जुषन्त) = ज्ञान व कर्मों का प्रीतिपूर्वक सेवन करते हैं । ज्ञान व कर्म का प्रसङ्ग तो उनके जीवन में पहले भी चलता था, परन्तु अब प्रभु का प्रकाश होने पर इन ज्ञानपूर्वक कर्मों में उनकी प्रीति पहले से अधिक हो जाती है । ब्रह्मविदां वरिष्ठ लोग - ब्रह्मज्ञानी लोग अधिक क्रियामय जीवनवाले हो जाते हैं - “क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः” । २. ये (विश्वे) = सब (नाम सपन्तः) = आपके नाम का सेवन करते हुए और (ऋतं सपन्तः) = यज्ञादि उत्तम सत्यकों को सेवन करते हुए (देवत्वं भजन्त) = देवत्व को प्राप्त करते हैं । देवत्व - प्राप्ति का मार्ग नाम और ऋत का सेवन ही है । इनके सेवन से हदय शुद्ध बना रहता है । ‘अकर्मण्यता व प्रभुभक्ति का अभाव’ ही मनुष्य को असुर बनानेवाले हैं । ३. ये देवत्व को प्राप्त करनेवाले लोग (एवैः) = क्रियाशीलता के द्वारा (अमृतम्) = नीरोगता का भी लाभ करते हैं । कर्म में लगे रहने से शरीर की शक्ति स्थिर रहती है, हृदय में बुरे विचार उत्पन्न नहीं होते, एवं इस गतिमयता से शरीर व मन दोनों का स्वास्थ्य प्राप्त हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - तपस्या से प्रभु का प्रकाश प्राप्त होता है और इससे जीवन में ज्ञान व कर्म का विकास होता है । नाम व ऋत [यज्ञ] के सेवन से देवत्व की प्राप्ति होती है और क्रियाशीलता से नीरोगता बनी रहती है ।
विशेष / सूचना
नोट - प्रस्तुत मन्त्र में ‘क्रतु, देवत्व व अमृत’ - शब्दों का यह क्रम सूचित करता है कि ज्ञानपूर्वक कर्मों से [क्रतु] ही देवत्व की प्राप्ति होती है । देव बनकर मनुष्य अमर हो जाता है । यही मोक्ष - मार्ग है ।
विषय
आचार्य उत्तम, शासक, सभाध्यक्ष आदि का वर्णन
भावार्थ
हे परमेश्वर ! (ऋतस्य) सर्वव्यापक, सर्वज्ञानमय अनादि सत्य स्वरूप तेरे ही (प्रेषाः) ये समस्त उत्तमकोटि की प्रेरणाएं हैं। और (धीतिः) ध्यान, धारणा और उस द्वारा आनन्द रस का पान भी (ऋतस्य) अनादि सत्य स्वरूप तेरी ही जल के पान के समान शान्तिदायक और जीवन की वर्धक हैं । इसीसे तू ( विश्वायुः ) समस्त लोकों और प्राणियों का जीवन स्वरूप, प्राणों का प्राण है। (विश्वे) समस्तजन (अपांसि) तेरे उपदिष्ट सत्य कर्मों ही को (चक्रुः) करें । (यः) जो ( तुभ्यम् ) तेरे निमित्त अपने आपको ( दाशात् ) समर्पण करें और ( यः वा ) जो कोई ( ते ) तेरे विषय की ( शिक्षात् ) अन्यों को शिक्षा दे तू ( चिकित्वान् ) सब कुछ जानता हुआ (तस्मै) उसको ( रयिम् ) ऐश्वर्य प्रदान कर राजा और विद्वान के पक्ष में—हे राजन् ! हे विद्वन् ! तू सत्य व्यवस्था और ज्ञान का प्रेरक, उपदेशक और धारक हो। सब तेरे बनाये नियम कर्तव्यों का पालन करें । जो तुझे धन दे और जो तुझे उत्तम शिक्षा दे उसके (रयिम्) ऐश्वर्य धन की तू भी ( दयस्व ) रक्षा कर । अथवा उसको तू ऐश्वर्य प्रदान कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशरः शाक्त्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ४ निचृत् पंक्तिः ॥ २, ३, ५ पंक्तिः ॥ पंचर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे देव जगदीश्वर ! त्वाम् आश्रित्य यत्{आत्} {इत्} ये विश्वे सर्वे जनिष्ठाः सपन्तः विद्वांसः एवैः शुष्कान् ते देव त्वं क्रतुं नाम जुषन्त ते ऋतम् अमृतं भजन्त सेवन्ते तथा जीव आदिः एतत् सर्वं प्रयत्नेन प्राप्नुयात् ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (देव) जगदीश्वरः= जगदीश्वर ! (त्वाम्)=आपके, (आश्रित्य)=आश्रय में, (यत्) ये=जो, {आत्} अनन्तरम्=बाद में, {इत्} एव=ही, (विश्वे) अखिलाः=समस्त, (जनिष्ठाः) अतिशयेन प्रकटाः=अतिशय रूप से प्रकट होनेवाले, (सपन्तः) समवयन्तः= एकत्रित होते हुए, (विद्वांसः)=विद्वान् लोग, (एवैः) ज्ञापकैः प्रापकैर्गुणैः= ज्ञात करानेवाले गुणों से, (शुष्कात्) धर्मानुष्ठानतपसो नीरसात् काष्ठादेः=धर्म के अनुष्ठान से नीरस काष्ठ आदि के, (ते) तव तस्य वा=तुम्हारे, (देवत्वम्) देवस्य भावः=देव भाव का, (क्रतुम्) प्रज्ञापनं कर्म वा=प्रज्ञा या कर्म का, (नाम) प्रसिद्धम्=प्रसिद्ध, (जुषन्त) प्रीणन्ति सेवन्ते वा=सेवन करते हैं, (ते) तव तस्य वा=तुम्हारा, (ऋतम्) सत्यम्=सत्य, (अमृतम्) मरणजन्मदुःखादिदोषरहितम्=मृत्यु आदि के दोष से रहित, (भजन्त) सेवन्ते= सेवन करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (जीवः) इच्छादिगुणविशिष्टश्चेतनः=इच्छा आदि विशेष गुणवाले चेतन, (आदिः)= आदि, (एतत्) =ये, (सर्वम्) =समस्त, (प्रयत्नेन)= प्रयत्न से, (प्राप्नुयात्)=प्राप्त करें ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्य परमेश्वर की उपासना वा आज्ञानुष्ठान के विना व्यवहार और परमार्थ के सुखों को प्राप्त नहीं हो सकते ॥२॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- ‘आत्’ पद से पश्चात् अर्थ होने के कारण गत मन्त्र की अनुवृत्ति इस मन्त्र में रही है। दोनों मन्त्रों के अर्थों को एकसाथ पढ़ने से सम्पूर्ण अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (देव) जगदीश्वर ! (त्वाम्) आपके (आश्रित्य) आश्रय में (यत्) जो {आत्} इसके पश्चात् {इत्} ही (विश्वे) समस्त (जनिष्ठाः) अतिशय रूप से प्रकट होनेवाले और (सपन्तः) एकत्रित होते हुए (विद्वांसः) विद्वान् लोग, (एवैः) ज्ञात करानेवाले गुणों से (शुष्कात्) धर्म के अनुष्ठान से नीरस काष्ठ आदि के (ते) तुम्हारे (देवत्वम्) देव भाव जो (क्रतुम्) प्रज्ञा और कर्म से (नाम) प्रसिद्ध हैं का (जुषन्त) सेवन करते हैं। (ते) तुम्हारे (ऋतम्) सत्य स्वरूप जो (अमृतम्) मृत्यु आदि के दोष से रहित है का (भजन्त) पूजन करते हैं, (तथा) वैसे ही (जीवः) इच्छा आदि विशेष गुणवाले चेतन जीव (आदिः) आदि, (एतत्) ये (सर्वम्) समस्त (प्रयत्नेन) प्रयत्न से (प्राप्नुयात्) प्राप्त करें ॥२॥
संस्कृत भाग
स्वर सहित पद पाठ आत् । इत् । ते॒ । विश्वे॑ । क्रतु॑म् । जु॒ष॒न्त॒ । शुष्का॑त् । यत् । दे॒व॒ । जी॒वः । जनि॑ष्ठाः ॥ भज॑न्त । विश्वे॑ । दे॒व॒ऽत्वम् । नाम॑ । ऋ॒तम् । सप॑न्तः । अ॒मृत॑म् । एवैः॑ ॥ विषयः- पुनर्जगदीश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि मनुष्याः परमेश्वरोपासनाऽज्ञानुष्ठानेन विना व्यवहारपरमार्थसुखं प्राप्तुमर्हन्तीति ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की ईश्वराने निर्माण केल्याशिवाय जड कारणापासून कोणतेही कार्य उत्पन्न होत नाही व नष्ट होत नाही. आधाराशिवाय आधेयही स्थित होण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. कोणताही माणूस कर्माशिवाय क्षणभरही स्थित राहू शकत नाही. जे विद्वान लोक विद्या इत्यादी शुभ गुण इतरांना देतात तसेच ग्रहणही करतात. त्या दोहोंचा सत्कार करावा, इतरांचा नाही. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Brilliant lord of existence, most generative support of life-force arising from dry sources of energy, all the brilliancies of the universe join your sacred act of creation. All of them worship your divinity in truth and faith. All of them with all their manners, customs, rituals, in short with every motion of their thought and body, do homage to your laws of existence and your immortal presence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is God is taught in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God, all those learned virtuous and renowned persons by the performance of the righteous austerities (which are dry like wood) and by other virtues that lead towards Thee, lovingly try to obtain Thy Divinity and Thy famous acts. They attain afterwards Truth and immortality. Every conscious soul should also try to attain this desirable state with great effort and earnestness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शुष्कात् ) धर्मानुष्ठानतपसः - नीरसात् काष्ठात् = The performance of righteous like dry wood. (सपन्त:) समवयन्तः = Lovingly uniting all. (एवैः) ज्ञापकैः प्रापकंर्गुणैः = By virtues which give us the knowledge of God and which lead towards Him.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men can not get secular and spiritual happiness without the communion with God and obeying His Commands.
Subject of the mantra
Then, how is God/ This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (deva) =God, (tvām) =your, (āśritya)=in shelter, (yat) =those, {āt} =afterwards this, {it} =only, (viśve) =all, (janiṣṭhāḥ)= highly visible and, (sapantaḥ)=gathered, (vidvāṃsaḥ) =scholars, (evaiḥ)=from the qualities that make it known, (śuṣkāt) =of mundane wood etc. from the rituals of righteousness, (te) =your, (devatvam)= god feeling which, (kratum)=by wisdom and action, (nāma) =of those which are famous, (juṣanta) =serve, (te) =your, (ṛtam) =true form which, (amṛtam)= is free from the defects of death etc. (bhajanta)= worship, (tathā) =similarly, (jīvaḥ) =conscious beings with special qualities like desire etc., (ādiḥ) =etc., (etat) =these, (sarvam) =all, (prayatnena) =by efforts, (prāpnuyāt)=should attain.
English Translation (K.K.V.)
O God! It is only after this that all the highly manifested and gathered learned people, under your shelter, serve your divine form of mundane wood etc. which is famous for wisdom and action, through the rituals of righteousness, with the qualities that make it known. We worship your true form which is free from the defects of death etc. Similarly, the animate beings having special qualities like desire etc., should attain these with all efforts.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Without God's worship, commands and rituals, it is not possible for a human being to attain the happiness of behaviour and charity.
TRANSLATOR’S NOTES-
Due to the interpretation of word ‘‘āt’’ being afterwards, this mantra has a continuation of the previous mantra. By reading the interpretation of both the mantras together, the entire interpretation of both mantras becomes clear.
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