ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 68/ मन्त्र 8
इ॒च्छन्त॒ रेतो॑ मि॒थस्त॒नूषु॒ सं जा॑नत॒ स्वैर्दक्षै॒रमू॑राः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒च्छन्त॑ । रेतः॑ । मि॒थः । त॒नूषु॑ । सम् । जा॒न॒त॒ । स्वैः । दक्षैः॑ । अमू॑राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इच्छन्त रेतो मिथस्तनूषु सं जानत स्वैर्दक्षैरमूराः ॥
स्वर रहित पद पाठइच्छन्त। रेतः। मिथः। तनूषु। सम्। जानत। स्वैः। दक्षैः। अमूराः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 68; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 8
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यो निषत्तो मनोरपत्ये रयीणां होताऽस्ति स आसां प्रज्ञानां पतिर्भवेत्। हे अमूराः ! स्वैर्दक्षैर्गुणैः सह तनूषु वर्त्तमानाः सन्तो मिथो रेतो विस्तारयन्तो भवन्त एतं समिच्छन्त चिदपि सर्वा विद्या यूयं नु जानत ॥ ४ ॥
पदार्थः
(होता) दाता (निषत्तः) सर्वत्र शुभकर्मसु स्थितस्य (मनोः) विज्ञानवतो मनुष्यस्य (अपत्ये) सन्ताने (सः) विद्वान् (चित्) अपि (नु) सद्यः (आसाम्) प्रजानाम् (पतिः) पालयिता (रयीणाम्) राज्यश्रियादिधनानाम् (इच्छन्त) इच्छन्तु। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (रेतः) विद्याशिक्षाजं शरीरात्मवीर्य्यम् (मिथः) परस्परं प्रीत्या (तनूषु) विद्यमानेषु शरीरेषु (सम्) सम्यगर्थे (जानत) (स्वैः) आत्मीयैः (दक्षैः) विद्यासुशिक्षाचातुर्य्यगुणैः (अमूराः) अमूढाः। (निरु०६.८) मूढत्वादिगुणरहिता ज्ञानवन्तः। अमूर इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३) ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरन्योन्यं सखायो भूत्वाखिलविद्याः शीघ्रं ज्ञात्वा सततमानन्दितव्यम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर अध्यापक और शिष्य कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
जो (निषत्तः) सर्वत्र स्थित (मनोः) मनुष्य के (अपत्ये) सन्तान में (रयीणाम्) राज्यश्री आदि धनों का (होता) देनेवाला है (सः) वह ईश्वर विद्युत् अग्नि (आसाम्) इन प्रजाओं का (पतिः) पालन करनेवाला है। हे (अमूराः) मूढ़पन आदि गुणों से रहित ज्ञानवाले ! (स्वैः) अपने (दक्षैः) शिक्षा सहित चतुराई आदि गुणों के साथ (तनूषु) शरीरों में वर्त्तमान होते हुए (मिथः) परस्पर (रेतः) विद्या शिक्षारूपी वीर्य का विस्तार करते हुए तुम लोग इस की (समिच्छन्त) अच्छे प्रकार शिक्षा करो (चित्) और तुम सब विद्याओं को (नु) शीघ्र (जानत) अच्छे प्रकार जानो ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि परस्पर मित्र हो और समग्र विद्याओं को शीघ्र जानकर निरन्तर आनन्द भोगें ॥ ४ ॥
विषय
ज्ञानी में प्रभु का निवास
पदार्थ
१. वह (होता) = सब आवश्यक पदार्थों का देनेवाला प्रभु (मनोः अपत्ये) = ज्ञानी की सन्तानों, अर्थात् अत्यन्त ज्ञानी पुरुषों में (निषत्तः) = निश्चय से आसीन होता है । सर्वव्यापकता के कारण प्रभु सर्वत्र हैं, परन्तु उसकी सर्वव्यापकता को अनुभव करनेवाला ही उसकी सत्ता का लाभ उठा पाता है । २. वह अनुभवी ही यह समझता है कि (सः) = वह प्रभु (चित् नु) = ही (आसां रयीणाम्) = इन धनों के (पतिः) = स्वामी हैं । इस तत्वद्रष्टा को अपने सब कोशों के पूर्ण होने पर भी इन कोशों के धनों का गर्व नहीं होता । ३. ये लोग (तनूषु) = शरीरों के निमित्त, अर्थात् सन्तान को जन्म देने के निमित्त (रेतः) = शक्ति को (मिथः) = परस्पर सम्बद्ध होकर पुत्ररूप में परिणत हुई (इच्छन्त) = चाहते हैं । इस शक्ति के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुए शरीर में भी ये प्रभु की महिमा को देखते हैं । ४. (अमूराः) = ज्ञानी लोग अथवा [अम गतौ] कर्मनिष्ठ लोग (स्वैः दक्षैः) = आत्मबलों के साथ (संजानत) = संज्ञानवाले होते हैं, आत्मिक बल से युक्त होते हैं और उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त किये हुए होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी लोग प्रभु को हृदयस्थरूपेण देखते हैं । उसी को सब धनों का स्वामी समझते हैं । शक्तियों के मेल से उत्पन्न होनेवाली सन्तान में उन्हें प्रभु की महिमा दिखती है और ये आत्मिक बल व ज्ञान से युक्त होकर क्रियाशील जीवनवाले होते हैं ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर अध्यापक और शिष्य कैसे हों, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यः निषत्तः मनोः अपत्ये रयीणां होता अस्ति स आसां प्रज्ञानां पतिःभवेत्। हे अमूराः ! स्वैः दक्षैः गुणैः सह तनूषु वर्त्तमानाः सन्तः मिथः रेतः विस्तारयन्तः भवन्तः एतं सम् इच्छन्त चित् अपि सर्वा विद्या यूयं नु जानत॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- (यः) =जो, (निषत्तः) सर्वत्र शुभकर्मसु स्थितस्य=समस्त स्थानों में शुभ कर्मों में स्थित के, (मनोः) विज्ञानवतो मनुष्यस्य=विशेष ज्ञानवाले मनुष्य की, (अपत्ये) सन्ताने= सन्तान में, (रयीणाम्) राज्यश्रियादिधनानाम्=राज्य की लक्षमी आदि धनों के, (होता) दाता=देनेवाला, (अस्ति)=है। (सः) विद्वान्=विद्वान्, (आसाम्) प्रजानाम्=सन्तान की, (प्रज्ञानाम्)= प्रज्ञा का, (पतिः) पालयिता=रक्षक, (भवेत्)=होवे। हे (अमूराः) अमूढाः=मूढ़ता रहित ! (स्वैः) आत्मीयैः=अपने स्नेही के लिये, (दक्षैः) विद्यासुशिक्षाचातुर्य्यगुणैः=विद्या, सुशिक्षा और चतुरता के गुणों से, (गुणैः)= गुणों के, (सह)=साथ, (तनूषु) विद्यमानेषु शरीरेषु=विद्यमान शरीर में, (वर्त्तमानाः)=उपस्थित, (सन्तः)=होते हुए, (मिथः) परस्परं प्रीत्या= परस्पर प्रीति पूर्वक, (रेतः) विद्याशिक्षाजं शरीरात्मवीर्य्यम्=विद्या और शिक्षा से उत्पन्न शरीर के तेज से, (विस्तारयन्तः)= विस्तार करते हुए, (भवन्तः)= आप सब, (एतम्)= इसकी, (सम्) सम्यगर्थे= ठीक-ठीक, (इच्छन्त) इच्छन्तु =इच्छा करो, (चित्) अपि=और, (सर्वा)=समस्त, (विद्या)= विद्या, (यूयम्)=तुम सब, (नु) सद्यः=आज ही, (जानत)= जानो ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा परस्पर मित्र होकर के समस्त विद्याओं को शीघ्र जानकर निरन्तर आनन्दित होना चाहिए ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यः) जो (निषत्तः) समस्त स्थानों में शुभ कर्मों में स्थित (मनोः) विशेष ज्ञानवाले मनुष्य की (अपत्ये) सन्तान में (रयीणाम्) राज्य की लक्षमी आदि धनों का (होता) देनेवाला (अस्ति) है। (सः) वह विद्वान् (आसाम्) सन्तान की (प्रज्ञानाम्) प्रज्ञा का (पतिः) रक्षक (भवेत्) होवे। हे (अमूराः) मूढ़ता रहित ! (स्वैः) अपने स्नेही के लिये (दक्षैः) विद्या, सुशिक्षा और चतुरता के (गुणैः) गुणों के (सह) साथ (तनूषु) विद्यमान शरीर में (वर्त्तमानाः) उपस्थित (सन्तः) होते हुए, (मिथः) परस्पर प्रीति पूर्वक (रेतः) विद्या और शिक्षा से उत्पन्न शरीर के तेज से (विस्तारयन्तः) विस्तार करते हुए, (भवन्तः) आप सब (एतम्) इस शरीर की (सम्) ठीक-ठीक (इच्छन्त) इच्छा करो (चित्) और (यूयम्) तुम सब (सर्वा) समस्त (विद्या) विद्या (नु) आज ही (जानत) जानो ॥४॥
संस्कृत भाग
स्वर सहित पद पाठ होता॑ । निऽस॑त्तः । मनोः॑ । अप॑त्ये । सः । चि॒त् । नु । आ॒सा॒म् । पतिः॑ । र॒यी॒णाम् ॥ इ॒च्छन्त॑ । रेतः॑ । मि॒थः । त॒नूषु॑ । सम् । जा॒न॒त॒ । स्वैः । दक्षैः॑ । अमू॑राः ॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरन्योन्यं सखायो भूत्वाखिलविद्याः शीघ्रं ज्ञात्वा सततमानन्दितव्यम् ॥४॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Lord of light, high-priest of the cosmic yajna of creation and generation, receiver of oblations and creator and begetter of blessings, immanently seated in humanity, Agni is the lord ruler and controller of these wealths of life, and its yajnic creations. Ye men and women of intelligence and generative science mutually desirous of creative energy and fertility together in your body system, know the science of generative yajna with your knowledge, education and expertise.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
He should be the Lord of these subjects or people who is engaged in all good works and everywhere the giver of wealth of various kinds to the children of wise learned men. O learned persons, endowed with knowledge. good education, dexterity and other virtues and desiring protective vigour in your own excellent off-spring wish well of him. Learn all sciences.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(निषत्तः) सर्वत्र शुभगुणकर्मसुव्याप्तः = Engaged in good acts and virtues every where. (मनो:) विज्ञानवतो मनुष्यस्य = Of a wise and learned man. (दक्षै:) विद्यासुशिक्षा चातुर्यगुणैः = By the virtues of knowledge, good education, and dexterity.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should enjoy bliss constantly by being friendly to one another and by acquiring the knowledge of all sciences.
Translator's Notes
दक्ष इति बलनाम ( निघ० १.९ ) Here it stands for strength expressed in knowledge, good education, dexterity and other virtues.
Subject of the mantra
Then, how should the teacher and disciple be? This topic is discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ) =Who, (niṣattaḥ) =situated in good deeds in all places ,(manoḥ)= of a person with special knowledge, (apatye) =in children, (rayīṇām)=of the wealth of the state like Lakshmi etc., (hotā) =provider, (asti) =is, (saḥ) =that scholar, (āsām) =of children, (prajñānām) =of wisdom, (patiḥ) =protector, (bhavet) =be, (amūrāḥ)=devoid of foolishness, (svaiḥ)= for own loved one, (dakṣaiḥ) =of knowledge, education and cleverness, (guṇaiḥ) =of qualities, (saha) =with, (tanūṣu)=in the existing body, (varttamānāḥ) =present, (santaḥ) =being, (mithaḥ) =mutually lovingly, (retaḥ) =with the brightness of the body resulting from knowledge and education, (vistārayantaḥ)=expanding, (bhavantaḥ) =all of you, (etam) =of this body, (sam) =well, (icchanta) =desire, (cit) =and, (yūyam) =all of you, (sarvā) =all, (vidyā) =knowledge, (nu) =today itself, (jānata) =know.
English Translation (K.K.V.)
Who is the provider of wealth like Lakshmi of the kingdom to the children of a person with special knowledge who is engaged in auspicious deeds in all places. He should be the protector of the wisdom of the learned child. O one devoid of foolishness! Being present in the existing body with the qualities of knowledge, good education and cleverness for your loved one, mutually lovingly expanding the body with the radiance arising from knowledge and education, all of you desire this body well and all of you have knowledge today itself self.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Humans should be constantly happy by knowing all the knowledge quickly through human beings by becoming friends with each other.
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