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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 68/ मन्त्र 9
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा विराट् स्वरः - पञ्चमः

    पि॒तुर्न पु॒त्राः क्रतुं॑ जुषन्त॒ श्रोष॒न्ये अ॑स्य॒ शासं॑ तु॒रासः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒तुः । न । पु॒त्राः । क्रतु॑म् । जु॒ष॒न्त॒ । श्रोष॑न् । ये । अ॒स्य॒ । शास॑म् । तु॒रासः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पितुर्न पुत्राः क्रतुं जुषन्त श्रोषन्ये अस्य शासं तुरासः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पितुः। न। पुत्राः। क्रतुम्। जुषन्त। श्रोषन्। ये। अस्य। शासम्। तुरासः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 68; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    ये तुरासो मनुष्याः पितुः पुत्रानेवास्य शासं श्रोषन् शृण्वन्ति ते सुखिनो भवन्तु। यो दमूनाः पुरुक्षुः स्तृभी रायो व्यौर्णोन्नाकं च दुरः पिपेश स सर्वैर्मनुष्यैः सेवनीयः ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (पितुः) जनकस्य (न) इव (पुत्राः) औरसाः। पुत्रः पुरु त्रायते निपरणाद्वा पुं नरकं ततस्त्रायत इति वा। (निरु०१.११) (क्रतुम्) कर्म प्रज्ञां वा (जुषन्त) सेवन्ताम् (श्रोषन्) शृण्वन्तु (ये) मनुष्याः (अस्य) जगदीश्वरस्याप्तस्य वा (शासम्) शासनम् (तुरासः) शीघ्रकारिणः (वि) विशेषार्थे (रायः) धनानि (और्णोत्) स्वीकरोति (दुरः) हिंसकान् (पुरुक्षुः) पुरूणि क्षूण्यन्नानि यस्य सः (पिपेश) पिंशत्यवयवान् प्राप्नोति (नाकम्) बहुसुखम् (स्तृभिः) प्राप्तव्यैर्गुणैः (दमूनाः) उपशमयुक्तः। दमूना दममना वा दानमना वा दान्तमना वा। (निरु०४.४) ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्नहीश्वराप्ताज्ञापालनेन विना कस्यचित् किंचिदपि सुखं प्राप्तुं शक्नोति नहि जितेन्द्रियत्वादिभिर्विना कश्चित्सुखं प्राप्तुमर्हति। तस्मादेतत्सर्वं सर्वदा सेवनीयम् ॥ ५ ॥ अत्रेश्वरग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे पढ़ने और पढ़ाने हारे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    (ये) जो (तुरासः) अच्छे कर्मों को शीघ्र करनेवाले मनुष्य (पितुः) पिता के (पुत्राः) पुत्रों के (न) समान (अस्य) जगदीश्वर वा सत्पुरुष की (शासम्) शिक्षा को (श्रोषन्) सुनते हैं, वे सुखी होते हैं। जो (दमूनाः) शान्तिवाला (पुरुक्षुः) बहुत अन्नादि पदार्थों से युक्त (स्तृभिः) प्राप्त करने योग्य गुणों से (रायः) धनों के (व्यौर्णोत्) स्वीकारकर्त्ता तथा (नाकम्) सुख को स्वीकार कर और (दुरः) हिंसा करनेवाले शत्रुओं के (पिपेश) अवयवों को पृथक्-पृथक् करता है, उसी की सेवा सब मनुष्य करें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर की आज्ञा पालने विना किसी मनुष्य का कुछ भी सुख सम्भव नहीं होता तथा जितेन्द्रियता आदि गुणों के विना किसी मनुष्य को सुख प्राप्त नहीं हो सकता। इससे ईश्वर की आज्ञा और जितेन्द्रियता आदि का सेवन अवश्य करें ॥ ५ ॥ इस सूक्त में ईश्वर और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥

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    विषय

    सच्चे पुत्र

    पदार्थ

    १. (पितुः पुत्राः न) = जो व्यक्ति पिता के सच्चे पुत्रों के समान होते हैं वे (ऋतुं जषन्त) = यज्ञ का प्रीतिपूर्वक सेवन करते हैं । पुत्र वही है जो सुचरितों से पिता को प्रीणित करता है । इसी प्रकार प्रभु का सच्चा पुत्र वही जीव है जोकि प्रभु के यज्ञात्मक जीवन बिताने के आदेश को पालता है । (ये) = जो (अस्य) = इस पिता के (शासम्) = आदेश को (श्रोषन्) = सुनते हैं [सहयज्ञाः प्रजा सृष्ट्वा प्रोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्ट्कामधुक् ॥ गीता ३/१०] प्रभु ने यज्ञसहित प्रजाओं को उत्पन्न करके यही तो कहा कि इस यज्ञ से तुम फूलो - फलो, यह यज्ञ तुम्हारी इष्ट कामनाओं को पूर्ण करनेवाला हो । , जो भी व्यक्ति प्रभु के इस आदेश को सुनते हैं वे (तुरासः) = सब बुराइयों का संहार करनेवाले होते हैं । २. [ते] - वे (पुरुक्षुः) = [क्षु - अन्न] पालक और पूरक अन्नवाले प्रभु भी इस यज्ञात्मक जीवन बितानेवाले सच्चे पुत्र के लिए (रायः दुरः) = धन के द्वारों को वि (और्णोत्) = खोल देते हैं, अथवा (दुरः) = यज्ञ के द्वारभूत - साधनभूत धनों को (वि और्णोत्) = प्राप्त करानेवाले हैं । इन यज्ञात्मक जीवन बितानेवाले पुरुषों के लिए ही (दमूनाः) = सम्पूर्ण संसार का शासक (नाकम्) = द्युलोक को (स्तृभिः) = सितारों [Stars] से (पिपेश) = अलंकृत कर देता है । इन यज्ञशील पुरुषों का जन्म इन विविध लोकों में होता है । “स्वर्गकामो यजेत” यज्ञ के द्वारा ये इन स्वर्गभूत लोकों को प्राप्त करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सच्चा पुत्र वही है जो प्रभु के यज्ञात्मक जीवन बिताने के आदेश का पालन करता है । प्रभु इसे यज्ञार्थ धन प्राप्त कराते हैं और यज्ञात्मक लोकों में जन्म देते हैं ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त के आरम्भ में कहा है कि जीवन के परिपाक के लिए उपस्थान आवश्यक है [१] । ज्ञानपूर्वक कर्मों से देवत्व की प्राप्ति होती है [२] । हम यही चाहते हैं कि हमारा जीवन ‘ऋतमय’ हो [३] । प्रभु का निवास ज्ञानी पुरुषों में ही होता है [४] । प्रभु के सच्चे पुत्र यज्ञात्मक जीवन बिताते हैं, इन यज्ञों से वे स्वर्ग को प्राप्त करते हैं [५] वे प्रभु ही हमारे पिता हैं - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे पढ़ने और पढ़ानेवाले कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- ये तुरासः मनुष्याः पितुः पुत्रा न इव{क्रतुम्} {जुषन्त} अस्य शासं श्रोषन् शृण्वन्ति ते सुखिनः भवन्तु। यः दमूनाः पुरुक्षुः स्तृभी रायः वि और्णोत् नाकं च दुरः पिपेश स सर्वैः मनुष्यैः सेवनीयः ॥५॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (ये) मनुष्याः=जो, (तुरासः) शीघ्रकारिणः=शीघ्रता से कार्य करनेवाले, (मनुष्याः)= मनुष्य, (पितुः) जनकस्य=पिता के, (पुत्राः) औरसाः= वैध पुत्र के, (न) इव= समान, {क्रतुम्} कर्म प्रज्ञां वा= कर्म और प्रज्ञा से, {जुषन्त} सेवन्ताम्=सेवा करते हैं, (अस्य) जगदीश्वरस्याप्तस्य वा= परमेश्वर के, (शासम्) शासनम् = शिक्षा को, (श्रोषन्) शृण्वन्तु =सुनें, (ते)=वे, (सुखिनः)=सुखी, (भवन्तु)=होवें। (यः) =जो, (दमूनाः) उपशमयुक्तः= शांत किये जाने योग्य, (पुरुक्षुः) पुरूणि क्षूण्यन्नानि यस्य सः=बहुत से अन्न आदि वाले, (स्तृभिः) प्राप्तव्यैर्गुणैः=प्राप्त किये जानेवाले गुणों से, (रायः) धनानि =धन, (वि) विशेषार्थे =विशेष रूप से, (और्णोत्) स्वीकरोति=स्वीकार करते हैं, (च)=और, (नाकम्) बहुसुखम्=बहुत सुख के, (दुरः) हिंसकान्=हिंसकों के, (पिपेश) पिंशत्यवयवान् प्राप्नोति=अंगों को काट कर प्राप्त करता है, (सः)=वह, (सर्वैः)=समस्त, (मनुष्यैः) =मनुष्यों के द्वारा, (सेवनीयः)=पूजा के योग्य है ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। ईश्वर की आज्ञा के पालन के विना किसी भी मनुष्य को कुछ भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता है। जितेन्द्रियता आदि के विना कोई भी सुख की प्राप्ति करने के योग्य नहीं है। इसलिये इसकी सर्वदा पूजा करनी चाहिए॥५॥

    विशेष

    सूक्तार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ईश्वर और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (ये) जो (तुरासः) शीघ्रता से कार्य करनेवाले (मनुष्याः) मनुष्य, (पितुः) पिता के (पुत्राः) वैध पुत्र के (न) समान {क्रतुम्} कर्म और प्रज्ञा से {जुषन्त} सेवा करते हैं। (अस्य) इस परमेश्वर की (शासम्) शिक्षा को (श्रोषन्) सुनें और (ते) वे (सुखिनः) सुखी (भवन्तु) होवें। (यः) जो (दमूनाः) शांत किये जाने योग्य, (पुरुक्षुः) बहुत से अन्न आदि वाले, (स्तृभिः) प्राप्त किये जानेवाले गुणों से (रायः) धन, (वि) विशेष रूप से (और्णोत्) स्वीकार करता है (च) और (नाकम्) बहुत सुख की (दुरः) हिंसा करनेवालों के (पिपेश) अंगों को काट कर प्राप्त करता है, (सः) वह (सर्वैः) समस्त (मनुष्यैः) मनुष्यों के द्वारा (सेवनीयः) पूजा के योग्य होता है ॥५॥

    संस्कृत भाग

    स्वर सहित पद पाठ पि॒तुः । न । पु॒त्राः । क्रतु॑म् । जु॒ष॒न्त॒ । श्रोष॑न् । ये । अ॒स्य॒ । शास॑म् । तु॒रासः॑ ॥ वि । रायः॑ । औ॒र्णो॒त् । दुरः॑ । पु॒रु॒ऽक्षुः । पि॒पेश॑ । नाक॑म् । स्तृऽभिः॑ । दमू॑नाः ॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्नहीश्वराप्ताज्ञापालनेन विना कस्यचित् किंचिदपि सुखं प्राप्तुं शक्नोति नहि जितेन्द्रियत्वादिभिर्विना कश्चित्सुखं प्राप्तुमर्हति। तस्मादेतत्सर्वं सर्वदा सेवनीयम् ॥५॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रेश्वरग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥५॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    If men of genius and action were to dedicate themselves to yajna and listen to the divine voice and obey the discipline and command of this divine Agni as children listen to the father and do his behest, then the omnificent Lord of wealth and omnipotence would bless them with showers of wealth and open the beautiful doors of heaven and happiness to them.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Here it stands for strength expressed in knowledge, good education, dexterity and other virtues.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May all those persons be always happy who hasten to obey the commands of this Agni (God and a wise learned leader) like sons obedient to the orders of a father. That man is to be served and honoured by all who possessing self-control and peace and having abundant food and materials accepts or acquires wealth with his desirable virtues and attains perfect joy and destroys his violent opponents.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पुरुक्षु :) पुरूणि क्षणि अन्नानि यस्य सः (स्तृभिः) प्राप्तव्यैः गुणैः = By desirable virtues. (दमूना:) उपशमयुक्तः दमूना: दममना वा दानमना वा दान्तमना वा (निरु० ४.४५ ) = A man of self control and peace.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can enjoy happiness without obeying the commands of God and absolutely truthful enlightened persons. None can be happy without possessing self-control and other virtues. Therefore men should cultivate these virtues in order to enjoy happiness.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of God and fire, electricity etc. in this as in the former. Here ends the sixty-eighth hymn of ihe first Mandala of the Rigveda and the 12th Vargha.

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    Subject of the mantra

    Then, how should they be those who study and teach?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye)=That, (turāsaḥ)= fast working, (manuṣyāḥ)=man, (pituḥ) =of father, (putrāḥ) =legitimate son, (na) =like,{kratum} =by wisdom and action, {juṣanta} =serve, (asya) =of this God, (śāsam) =to education, (śroṣan) =listen and, (te) =they, (sukhinaḥ) =happy, (bhavantu) =be, (yaḥ) =those, (damūnāḥ)=appeasable, (purukṣuḥ)=Those with lots of food etc., (stṛbhiḥ)=by the qualities to be obtained, (rāyaḥ) =wealth, (vi)=especially, (aurṇot) =accepts, (ca)=and, (nākam)=of lot of happiness, (duraḥ)=of those who commit violence, (pipeśa)= Obtains organs by cutting, (saḥ) =that, (sarvaiḥ) =all, (manuṣyaiḥ) =by men, (sevanīyaḥ)=is worthy of worship.

    English Translation (K.K.V.)

    A fast-working man who serves with action and wisdom like a legitimate son of one’s father. Listen to this God's teaching and they will be happy. The one who is capable of being pacified, has lots of food, etc., who especially accepts wealth from the virtues that can be obtained and who obtains a lot of happiness by cutting off the limbs of those who commit violence, is worthy of worship by all human beings.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are paronomasia and simile as a figurative at two places in this mantra. No human being can achieve anything without obeying the commands of God. Without control over the senses etc. no one is capable of attaining happiness. That's why it should always be worshipped.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    There are paronomasia and simile as a figurative at two places in this mantra. No human being can achieve anything without obeying the commands of God. Without control over the senses etc. no one is capable of attaining happiness. That's why it should always be worshipped.

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